आयुर्वेद के बिना निरोगी भारत की कल्पना अर्थहीन छलावा है

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लम्बे समय से स्वास्थ्य बजट का 97 प्रतिशत बायो-मेडिकल चिकित्सा पद्धति में खपाकर भी रोगों की वैश्विक राजधानी बनता जा रहा देश यह क्यों नहीं समझ पा रहा है कि आयुर्वेद की अगुआई के बिना निरोगी भारत की कल्पना अर्थहीन छलावा है। आयुर्वेद के बिना भारत का कोई परिवार या समाज निरोगी नहीं रह सकता।

तमाम ज्ञात-अज्ञात कारणों से निरोगी परिवार, समाज या राज्य की कल्पना वर्तमान में ऐसे दर्शन पर आधारित है जिसमें बीमार व्यक्ति को उपचार के द्वारा स्वस्थ कर वापस स्वास्थ्य प्रदान कर कर्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है। यह रणनीति आवश्यक तो है परंतु निरोगी राज्य की कल्पना को साकार करने के लिये अपर्याप्त है। निरोगी राज्य की कल्पना, सिद्धांत, क्रियान्वयन और परिणाम केवल मरीजों की ओर ही सारी शक्ति केंद्रित कर साकार नहीं किये जा सकते। निरोगी राज्य की कल्पना तब साकार होती है जब पहले स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा की जाये।

“स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं का सिद्धान्त” यह प्रतिपादित करता है कि जो लोग आज स्वस्थ हैं उन्हें बीमारियों से बचाते हुये भविष्य में भी स्वस्थ रखा जाये तो जनसंख्या का नया भाग जो आज स्वस्थ है वह भविष्य में बीमारियों में नहीं गिरेगा। “आतुरस्य विकारप्रशमनं का सिद्धांत” यह स्पष्ट करता है कि आज जो लोग अस्वस्थ्य हैं उन्हें शीघ्र उपचार देकर स्वस्थ कर दिया जाये और बीमारी से मुक्त होते ही भविष्य के लिये तत्काल “स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं” की रणनीतियों में डाल दिया जाये ताकि भविष्य में वे उस जनसंख्या का भाग बन जायें जो बीमारियों में नहीं गिरेगा।

आयुर्वेद की इस रणनीति का लाभ यह है कि आने वाले समय में जब नये कोहोर्ट या जत्थे समय बीतने के साथ बीमारी में नहीं फंसते तब जनसंख्या में निरोग रहने वालों के संख्या बढ़ने लगती है। आइये कुछ उदाहरण देखते हैं। तथाकथित आधुनिक चिकित्सा पद्धति को लम्बे समय से स्वास्थ्य बजट का 97 प्रतिशत देने के बावजूद 195 देशों के बीच स्वास्थ्य संबंधी सतत विकास लक्ष्य में भारत का 145वां स्थान है। वर्ष 2018 में भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित साझा शोध के अनुसार वर्ष 1990 से 2016 के मध्य के 26 वर्षों में भारत में हृदय रोग से होने वाली मौतों में 34 प्रतिशत बढ़त हुई है, जबकि अमेरिका में यह दर 40 प्रतिशत कम हुई है| जर्नल ऑफ़ दि अमेरिकन कॉलेज ऑफ कार्डियोलॉजी (72.1:79-95, 2018) में प्रकाशित इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि वर्ष 2016 में भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में क्रमशः इन बीमारियों के कारण अनुमानित 62.5 और 12.7 मिलियन वर्ष का जीवनकाल नष्ट हुआ। इनमें इस्चेमिक हार्ट डिजीज और स्ट्रोक 15 से 20 प्रतिशत मृत्यु के लिये जिम्मेवार हैं| भारत में प्रत्येक एक लाख जनसंख्या में 5,681 लोग कार्डियोवैस्कुलर बीमारी से पीड़ित हैं| कुल संख्या के रूप में देखें तो भारत में 54.6 मिलियन लोग कार्डियोवैस्कुलर बीमारी से पीड़ित हैं, जो अमेरिका के 33.6 मिलियन लोगों की तुलना में 70 प्रतिशत ज्यादा है| प्रश्न यह है कि भारत में बढ़त क्यों और अमेरिका में घटत क्यों? इसका उत्तर आप केवल उस रणनीति में पा सकते हैं जिसकी चर्चा हमने इस आलेख के प्रारंभ में किया है|

भारत में कुल होने वाली मृत्य की संख्या में से 60 प्रतिशत से अधिक केवल गैर-संचारी रोगों के कारण है। देश के अस्पतालों में चिकित्सार्थ भर्ती होने वाले कुल मरीजों में 40 प्रतिशत गैर-संचारी रोगों के होते हैं। भारतीय परिवारों, समाज और सरकार को इन बीमारियों की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था को वर्ष 2030 के पूर्व गैर-संचारी रोगों के कारण 4.58 लाख करोड़ डॉलर की हानि हो सकती है। मानसिक बीमारियों का कुल वैश्विक बोझ कुल 32.4 प्रतिशत इयर्स लिव्ड विद डिसेबिलिटी और कुल 13 प्रतिशत डिसेबिलिटी एडजस्टेड लाइफ इयर्स या विकलांगता-समायोजित जीवन-काल के बराबर है। इनमें से एक तिहाई प्रकरण केवल चीन और भारत में हैं जो कि सभी विकसित देशों से अधिक हैं। और तो और, वर्ष 2013 से 2025 के बीच मानसिक, न्यूरोलॉजिकल और मादक द्रव्यों के विकारों के बोझ में चीन में 10 प्रतिशत और भारत में 23 प्रतिशत बढ़ने की आशंका है।

अमेरिका में योग और आयुर्वेद का 28 से 30 बिलियन डालर का बाज़ार खड़ा है। योग और आयुर्वेद जैसे विशुद्ध भारतीय विचार पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था इतनी क्यों मेहरबान हो रही है? अगर इस धन का अंदाज़ा न लग रहा हो तो तुलना कर के समझ लीजिये कि वर्ष 2011 में भारत में एफडीआई की आवक केवल 36.5 बिलियन डालर ही थी। यह भी जान लीजिये कि विश्व में केवल 65 देश ही ऐसे हैं जिनका जी.डी.पी. 80 बिलियन डालर से ऊपर है।

केवल मॉडर्न मेडिसिन के भरोसे तो अमेरिका जैसे दिग्गज और विकसित देश ही स्वस्थ नहीं रह पाये, तो भारत का क्या कहना। पर भारत के नागरिक अभी भी आयुर्वेद और योग की हैसियत को नहीं समझ पाये। एक तरफ जहाँ दुनिया योग, आयुर्वेद और उससे जुड़े परचून में छप्पन हजार करोड़ रुपये या 80 बिलियन डॉलर का भारी-भरकम बाज़ार खड़ा कर चुकी है, वहीं भारत के नागरिक अभी भी आयुर्वेद और योग जैसी विधाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं देते। इसी प्रकार जहाँ आज दुनिया स्वास्थ्य के लिये वेलनेस टूरिज्म, जिसमें आयुर्वेद की चिकित्सा के लिये आने वाले पर्यटक भी सम्मिलित हैं, से जुड़ी अर्थव्यवस्था में 438.6 बिलियन डॉलर का वैश्विक बाजार खड़ा कर चुकी है, वहीं भारतीय समाज आज भी मॉडर्न मेडिसिन में अपने स्वास्थ्य बजट का 97 प्रतिशत फूंकते हुये तमाम रोगों की वैश्विक राजधानी बनकर भी चिंतित नहीं है।

दुनिया भर की सरकारें अपना काम करती रहती हैं और करना भी चाहिये। सरकारें इस भ्रम में जीतीं है कि यह उनकी मजबूरी है कि उन्हें सबसे पहले बीमार व्यक्तियों के उपचार को प्राथमिकता देनी पड़ती है। सरकारों और उनके अफसरों के इस भ्रम को टिकाऊ-सत्य बनाने में आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों से जुड़ी दवा कंपनियां जी जान से जुटी रहती हैं। क्यों? क्योंकि लोगों के बीमार पड़ने में ही धन कमाया जा सकता है। बीमार हो जाने के बाद मौत की ओर बढ़ती जनसंख्या पर टिकी इन वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं के बाज़ार में धनवर्षा होती है। जबकि आयुर्वेद का सिद्धांत इसके ठीक उलट है। जैसा कि हम बता चुके हैं, आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा को प्राथमिकता दी जाती है। यह प्राथमिकता कोई संयोग मात्र नहीं है बल्कि दीर्घकालिक अनुभवजन्य ज्ञान के आधार पर प्राचीन भारत के ऋषि-वैज्ञानिकों द्वारा दिया गया एक ऐसा ठोस सिद्धांत है जो आज भी यथावत उपयोगी है। किसी परिवार के सभी सदस्य जो आज बिल्कुल स्वस्थ हैं, यदि उनमें ऐसा निवेश किया जाये जिससे उनके स्वास्थ्य का अनुवर्तन होता रहे तो स्वाभाविक है कि वह परिवार कभी बीमारी में नहीं गिरेगा। बस इतना ही करना है। यही आयुर्वेद का सिद्धांत है। जैसा कि हमने पहले कहा, आयुर्वेद का दूसरा सिद्धांत बीमारों की बीमारी दूर करना है। कीजिये, लेकिन आयुर्वेद को पीछे रखकर नहीं बल्कि आयुर्वेद को प्राथमिकता देते हुये अन्य पद्धतियों की मदद लीजिये।

दुर्भाग्य है कि समकालीन समाज आयुर्वेद की औषधियों को किनारे कर बीमारों की बीमारी दूर करने में पूरी ताकत और 97 प्रतिशत धन केवल आधुनिक चिकित पद्धति में नष्ट कर रहा है। नष्ट क्यों? क्योंकि, जैसा हमने पहले कहा, तथाकथित आधुनिक चिकित्सा पद्धति में लम्बे समय से 97 प्रतिशत धन खपाकर भी भारत को स्वस्थ नहीं रखा जा सका। हम रोगों की वैश्विक राजधानी बन गये हैं।

जब तक निरोगी परिवार, निरोगी समाज और निरोगी राज्य की कल्पना में मन, वाणी, और कर्म से आयुर्वेद को प्राथमिकता नहीं दी जायेगी, तब तक स्थिति बदलने के आसार नहीं हैं। दुर्भाग्य है कि भारत के नागरिक और नीति-निर्माता दोनों ही आयुर्वेद के साधारण किंतु अत्यंत प्रभावशाली सिद्धांत को समझने में पूर्णतया असफल रहे। असल में हमने आयुर्वेद को इतना उपेक्षित किया कि आज वैद्यों के पास ना तो पर्याप्त औषधियां उपलब्ध हैं और ना ही पर्याप्त सुविधायें उन्हें प्रदान की गई हैं। एलोपैथी के प्रति देश के अंधे मोह के पक्ष में ना तो अभी कोई प्रमाण है और ना ही कोई इस तरह का अनुभव उपलब्ध है जिससे यह विश्वास किया जा सके कि भारत में आने वाले समय में स्वास्थ्य सेवायें केवल आधिनुक चिकित्सा पद्धति की मदद से बेहतर की जा सकेंगी।

कोरोना महामारी के इस अभियान में और इस समय में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान जहां एविडेंस बेस्ड चिकित्सा की बात करती है विगत वर्ष में हाइड्रोक्सी क्लोरो की उनका कितना खपत की गई पूरे विश्व को यह ज्ञात है और बाद में इसी हाइड्रोक्सी क्लोरो कि उनको विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा चिकित्सा के प्रोटोकॉल से बाहर किया गया इस वर्ष रेमेडी sudhir इंजेक्शन के नाम पर जो लूटमार हुई दलाली हुई और हम जनता को नोचा गया था छोटा गया लूटा गया यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है उसी रेमेडी Civil को अभी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उन्हें अपने प्रोटोकॉल से हटाया है इसी प्रकार से प्लाजमा थेरेपी भी एक सफल प्रयोग सिद्ध हुआ जहां एक और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के इस प्रकार के प्रयोग जो मानवता के लिए खतरा भी बने और आर्थिक रूप से जहां लोगों की कमी थोड़ी वहीं दूसरी ओर आयुर्वेद के सिद्धांत और चिकित्सा के द्वारा की गई चिकित्सकों के द्वारा एक भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार का कोई साइड इफेक्ट अथवा नुकसान नहीं हुआ 10 वर्ष जहां अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान सरिता विहार भारत सरकार चौधरी ब्रह्म प्रकाश चारक आयुर्वेद संस्थान नई दिल्ली सरकार जोधपुर आयुर्वेद विश्वविद्यालय राजस्थान राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान जयपुर भारत सरकार तथा पंडित खुशीलाल आयुर्वेद महाविद्यालय भोपाल मध्य प्रदेश शासन के द्वारा निर्देशित की गई सारी शोध कार्य आयुर्वेद के थे उनके परिणाम होती सकारात्मक और उत्साहवर्धक थे इसके बावजूद भी वर्तमान काल में चल रही 2nd में किसी भी प्रकार से शासन ने आयुर्वेद चिकित्सा और आयुर्वेद औषधियों का उपयोग करना मुनासिब नहीं समझा विडंबना यह भी है कि वर्तमान में समस्त स्वास्थ्य सेवाओं के अंतर्गत आयुर्वेद के चिकित्सक कार्यरत हैं यदि हम Ujjain को ही लें तो माधवनगर Hospital charak Hospital PTS Hospital OPD OPD को आयुर्वेद के चिकित्सकों के द्वारा ही की जा रही है इसके बावजूद भी इतना भी उचित नहीं समझा चिकित्सकों के द्वारा आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था दी जा रही है तो क्यों ना साथ में आयुर्वेद की ऐसी औषधि है उनको दिया जाना चाहिए चाहे वह कोई भी हो अथवा सुदर्शन घनवटी हो arun को arogya आए हो या कोई और अन्य सदस्य हूं साथ ही का नया एक सामने आया है उसमें भी जो रोगी स्टेट के द्वारा उपचारित किए जाते हैं उनमें मधुमेह के बढ़ने के कारण से ब्लैक सॉन्ग सा रोग होता है तो क्यों ना शासन इस पर विचार करें कि जितने भी मरीज को aruna के द्वारा उपचार किए जा रहे हैं उन सभी को आयुर्वेदिक जो मधुमेह नाशक औषधि हैं उनका प्रयोग किया जाता यह निश्चित रूप से मानवता के लिए भी और आमजन के लिए भी कल्याणकारी होता और उनके स्वास्थ्य का भी वर्णन करता परंतु विडंबना है इस प्रकार का कोई भी प्रस्ताव इस प्रकार का कोई भी विषय शासन ने इस पर निर्णय लेना उचित नहीं समझा।
अज्ञान के अन्धकार से बाहर ज्ञान के उजाले में आइये। इससे पहले कि भारत के नागरिकों का स्वास्थ्य विध्वंश हो जाये, चेत जाइये। आयुर्वेद के बिना निरोगी राज्य या समाज की कल्पना सिर्फ़ और सिर्फ़ आत्म-छलावा है। सबसे पहले स्वस्थ व्यक्ति को स्वस्थ रखने के लिये आयुर्वेद में पर्याप्त निवेश को प्राथमिकता दीजिये, उसके बाद बीमारों की बीमारी दूर करने हेतु आयुर्वेद को प्राथमिकता देते हुये अन्य चिकित्सा पद्धतियों की मदद लीजिये। निरोगी राज्य या समाज की कल्पना साकार करने हेतु निवेश और क्रियान्वयन का केवल यही मूल-मंत्र है।

वैद्य रामतीर्थ शर्मा
केंद्रीय सचिव
विश्व आयुर्वेद परिषद
(यह परिषद का मूल विचार हैं और ‘सार्वभौमिक कल्याण के सिद्धांत’ से प्रेरित हैं।

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