जयंती विशेष: नानाजी के जीवन से सम्बंधित अनसुनी बाते

“हम अपने लिए नहीं, अपनों के लिए हैं, अपने वे हैं जो सदियों से पीड़ित एवं उपेक्षित हैं।” यह कथन है युगदृष्टा चिंतक नानाजी देशमुख का। वो किसी बात को केवल कहते ही नहीं थे वरन उसे कार्यरूप में परिवर्तित भी करते थे। आधुनिक युग के इस दधीचि का पूरा जीवन ही एक प्रेरक कथा है। विविध गुणों एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी नानाजी देशमुख का पूरा नाम चण्डीदास अमृतराव उपाध्याय नानाजी देशमुख था। इनका जन्म 11 अक्टूबर सन 1916 को बुधवार के दिन महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमृतराव देशमुख था तथा माता का नाम राजाबाई था। नानाजी के दो भाई एवं तीन बहने थीं।

नानाजी जब छोटे थे तभी इनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन गरीबी एवं अभाव में बीता। वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दैनिक शाखा में जाया करते थे। बाल्यकाल में सेवा संस्कार का अंकुर यहीं फूटा। जब वे 9वीं कक्षा में अध्ययनरत थे, उसी समय उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। डा. साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डा. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का परामर्श दिया तथा कुछ आर्थिक मदद की भी पेशकश की। पर स्वाभिमानी नाना को आर्थिक मदद लेना स्वीकार्य न था। वे किसी से भी किसी तरह की सहायता नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने डेढ़ साल तक मेहनत कर पैसा इकट्ठा किया और उसके बाद 1937 में पिलानी गये। पढ़ाई के साथ-साथ निरंतर संघ कार्य में लगे रहे। कई बार आर्थिक अभाव से मुश्किलें पैदा होती थीं परन्तु नानाजी कठोर श्रम करते ताकि उन्हें किसी से मदद न लेनी पड़े। सन् 1940 में उन्होंने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग का प्रथम वर्ष पूरा किया। उसी साल डाक्टर साहब का निधन हो गया। फिर बाबा साहब आप्टे के निर्देशन पर नानाजी आगरा में संघ का कार्य देखने लगे।

उसी साल पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एम. ए. की पढ़ाई करने के लिए आगरा आये। नानाजी से कहा गया कि अब दीनदयाल यहां का काम देखेंगे, तुम गोरखपुर जाकर संघ कार्य प्रारम्भ करो। न कोई प्रश्न, न कोई प्रतिवाद। बस नानाजी चल पड़े अपने नये लक्ष्य को पूरा करने नये सफर पर। नये लोग, अनजान जगह, इस स्थिति में कार्य खड़ा करना असंभव सा प्रतीत होता है। परन्तु नानाजी के लिए सब संभव था। उनकी कार्यशैली लोगों को प्रभावित किए बिना नहीं रहती थी। उन्हें चुनौतियों को पूरा करने में असीम आनंद आता था। लक्ष्य को पूरा किए बगैर उन्हें मानो चैन ही नहीं मिलता था। इस नई चुनौती को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकारा और सफल बनाया।

सन् 1940 में गोरखपुर में पहली शाखा प्रारम्भ हुई। उनके कार्य की प्रगति को देखते हुए उन्हें गोरखपुर विभाग को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने इस दायित्व को भी बखूबी निभाया। उनके अथक परिश्रम का ही परिणाम था कि 1944 तक गोरखपुर के देहातों में 250 शाखाएं लगने लगी थीं। निरंतर कर्मशील नानाजी ने अपनी मेहनत से संघकार्य को प्रगति की दिशा प्रदान की। 1944 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी गोरखपुर प्रवास पर आये। नानाजी के कार्यों को देखकर वे बहुत खुश हुए। उन्होंने गोण्डा से बलिया तक के सभी जिलों को नानाजी को सौंपकर उन्हें विभाग प्रचारक का कार्यभार सौंपा। कार्य की अधिकता और व्यापकता ने उन्हें कभी भी विचलित नहीं किया। जब भी कोई नया काम मिलता वे पूरे उत्साह से उसमें लग जाते।

नानाजी प्रयोगवादी थे। उनके प्रयोगवादी रचनात्मक कार्यों का ही एक उदाहरण है सरस्वती शिशु मंदिर। सरस्वती शिशु मंदिर आज भारत की सबसे बड़ी स्कूलों की श्रृंखला बन चुकी है। इसकी नींव नानाजी ने ही 1950 में गोरखपुर में रखी थी। इतना ही नहीं संस्कार भारती के संस्थापक सदस्यों में एक रहे हैं नानाजी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन करने का निर्णय लिया तो पंडित दीनदयाल को मार्गदर्शक, अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादक व नानाजी को प्रबन्ध निदेशक का दायित्व दिया गया। नानाजी ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए ‘राष्ट्रधर्म’ के साथ-साथ ‘पांचजन्य’ व ‘दैनिक स्वदेश’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाई।

1951 में उन्हें पंडित दीनदयाल के साथ भारतीय जनसंघ का कार्य करने को कहा गया। राजनीति में ‘संघर्ष नहीं समन्वय’, ‘सत्ता नहीं, अन्तिम व्यक्ति की सेवा’ आदि वाक्यों को नानाजी ने स्थापित करने की कोशिश की।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डा. राममनोहर लोहिया, पं. गोविन्द वल्लभ पंत, पुरुषोत्तमदास टंडन, लाल बहादुर शास्त्री, गुरुजी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय आदि महापुरुषों के साथ आपका घनिष्ठ संपर्क और सम्बन्ध था। इनके अलावा विनोबा भावे के साथ रहकर भूदान आंदोलन से भी नानाजी जुड़े थे।

डा. राममनोहर लोहिया को पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष 1962 में चुनाव लड़ाने के लिए नानाजी ने अथक प्रयत्न किया। इसमें वह सफल हुए और इसका परिणाम यह हुआ कि डा. लोहिया भले ही चुनाव हार गए पर वे जनसंघ के निकट आ गए। बाद में डा. लोहिया तथा पं. दीनदयाल उपाध्याय का भारत-पाक महासंघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण संयुक्त वक्तव्य भी प्रकाशित हुआ।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के संगठन को व्यापक और सुदृढ़ करने का कार्य जनसंघ के निर्माण के तुरन्त पश्चात नानाजी को सौंपा गया था। यह उन्हीं का परिश्रम था कि भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, प्रजा समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी इत्यादि की तुलना में एक नवीन संगठन होते हुए भी पांच सालों में विधानसभा में सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक दल के रूप में उभर कर सामने आई। सन् 1962 तक पहुंचते-पहुंचते तो जनसंघ प्रदेश की प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गई। नानाजी को उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बिहार का काम भी सौंपा गया था और भारतीय जनसंघ बिहार में भी अपना स्थान बनाने में सफल हुआ। 1967 में अनेक प्रांतों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा।

तब उत्तर प्रदेश तथा बिहार में संयुक्त सरकार बनाने का प्रयास किया जाए, ऐसा संघ के अनेक महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं का अभिमत था। अधिकांश लोगों की दृष्टि में नानाजी देशमुख ही उन साझा सरकारों के प्रणेता थे, परन्तु वास्तविकता यह है कि वह ऐसी साझा सरकारों के प्रयोग के पक्षधार नहीं थे। परन्तु जब सब लोगों की राय ऐसे प्रयोगों को करने के लिए बन गई तब यह नानाजी ही थे, जो चौधरी चरण सिंह जी और उनके सहयोगियों को कांग्रेस से विरक्त कर सके और उत्तर प्रदेश में पहली साझा सरकार बन सकी। इससे नानाजी की अनुशासन प्रियता और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता प्रदर्शित हुई।

11 फरवरी 1968 को पं. दीनदयाल के अकाल निधन के बाद नानाजी ने दीनदयाल स्मारक समिति का पंजीयन कराकर एक नए अध्याय की शुरुआत की। 20 अगस्त 1972 से विधिवत ‘एकात्म मानव दर्शन’ के सिद्धांत को व्यवहारिक धरातल पर उतारने हेतु ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ कार्यालय नई दिल्ली में नानाजी के नेतृत्व में कार्य करने लगा।

इसी दौरान जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति के नाम से कार्य प्रारम्भ किया, जिसका मुख्य केन्द्र पटना बनाया गया। इस समग्र क्रांति के आंदोलन का महामंत्री नानाजी को बनाया गया। नानाजी पूरे मनोयोग से समग्र क्रांति के कार्य में जयप्रकाश जी के सहयोगी बने।

राजनीति के दांवों में उनकी पटुता की प्रशंसा ऐसी थी कि उनके विरोधी उन्हें नाना देखमुख नहीं, नाना फड़णनवीस ही कहा करते थे। 1977 के आपातकाल में तृतीय डिक्टेटर के नाते शासन का गुप्तचर विभाग भी उनको समझ नहीं पाया था।

जब श्रीमती इन्दिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लोकसभा की सदस्यता से वंचित कर दिया तब श्रीमती गांधी ने लोकसभा से त्यागपत्र देने के स्थान पर देश में इमरजेंसी लागू कर दी। उन्होंने स्वयं को प्रधानमंत्री पद पर बनाये रखा और विरोधी दलों के सभी लोगों को जेल में ठूंस दिया। सन् 1977 के फरवरी माह में इन्दिरा गांधी ने लोकसभा के आम चुनाव की घोषणा कर दी। जेल से सभी नेताओं को छुट्टी दी किन्तु नानाजी को जेल में ही बन्दी बनाये रखा। नानाजी को छोड़ने के लिए कहा गया तो इन्दिरा गांधी ने कहा कि नानाजी तो चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, उनको छोड़ने की क्या जरूरत है। तब नानाजी को चुनाव लड़ने के लिए सभी नेताओं ने आग्रह किया लेकिन नानाजी ने कहा, मुझे चुनाव लड़ना नहीं है, इसलिए मैं जेल में पड़ा रहूंगा। तब रामनाथ गोयनका ने जयप्रकाश से कहा कि आपके कहे बिना नानाजी चुनाव लड़ने को तैयार नहीं होंगे। जयप्रकाश ने नानाजी के पास अपना संदेशवाहक भेजकर चुनाव लड़ने के लिए राजी किया। नानाजी जेल से छूटे।

छूटने के बाद उन्हें बलरामपुर से चुनाव लड़ने को कहा गया। वे पौने दो लाख से अधिक वोटों से जीते। मोरारजी देसाई की सरकार बनी और नानाजी से पूछे बिना उन्हें मोरारजी ने अपने कैबिनेट में उद्योग मंत्री बनाने की घोषणा कर दी। किन्तु नानाजी ने मंत्री पद स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि वे देहातों में समाज कार्य करेंगे। 60 वर्ष की आयु पूर्ण के साथ ही सक्रिय राजनीति से मुक्त होने के अपने विचार को उन्होंने खुद पर लागू भी किया। 1977 में बंगाल की खाड़ी की ओर से उठे समुद्री तूफान ने आंध्र प्रदेश एवं उड़ीसा के तटीय जिलों में भारी तबाही मचाई। कई गांवों का नामोनिशान नहीं रहा। नानाजी ने अपने साथियों के साथ अमनीगढ़ा तहसील में मुलापालम् गांव को दीनदयालपुरम् के रूप में पुन: बसाया तथा उड़ीसा के सुन्दरगढ़ जिले के लिए आंखों के चलित अस्पताल की व्यवस्था की।

1978 में उन्होंने गोण्डा बलरामपुर के पास जमीन लेकर जयप्रभा ग्राम नाम से ग्राम विकास, गो-संवर्धन, शिक्षा और कृषि तंत्र में सुधार हेतु काम करना प्रारम्भ किया। तत्काल ही पच्चीस हजार से भी अधिक बांस के नलकूपों का नया प्रयोग कर अलाभकर जोत को लाभकर बनाया व कर्ज से लदे भूखमरी का सामना कर रहे किसानों को खुशहाल बनाया।

अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में नानाजी ने यह अनुभव कर लिया था कि केवल राजनीति से समाज कल्याण नहीं हो सकता है। उनका विश्वास था कि आर्थिक आत्म निर्भरता व सामाजिक पुनर्रचना से ही सार्थक सामाजिक बदलाव संभव है। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यों को विस्तार देना प्रारंभ किया। संस्थान का काम देश के विभिन्न भागों में शुरू हुआ। गोण्डा, बीड, नागपुर, अहमदाबाद, सिंहभूम, दिल्ली और चित्रकूट में संस्थान कई वर्षों से काम कर रहा है। सन् 1991 में भगवानन्दजी महाराज के आग्रह पर नानाजी चित्राकूट आये। देश के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की और नाम रखा चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय। सन् 1991 से 1994 तक नानाजी ग्रामोदय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलाधिपति रहे। लेकिन सरकार की नीति से तंग आकर 1995 में कुलाधिपति पद से त्याग पत्र दिया और विश्वविद्यालय का काम सरकार के जिम्मे छोड़ दिया।

अपने जीवन के चुनौतीपूर्ण अनुभवों के साथ नानाजी ने ‘चित्रकूट प्रकल्प दीनदयाल शोध संस्थान’ के नाम से अलग कार्य प्रारम्भ किया। आज इसके विस्तार रूप में आरोग्यधाम, उद्यमिता विद्यापीठ, रामदर्शन, कृषि विज्ञान केन्द्र, जल प्रबन्धन, सुरेन्द्रपाल ग्रामोदय विद्यालय, गुरुकुल संकुल, नन्हीं दुनिया, शैक्षणिक अनुसंधान केन्द्र, दिशादर्शन केन्द्र, जन शिक्षण संस्थान, आजीवन स्वास्थ्य संवर्धन महाविद्यालय, गौ-विकास एवं अनुसंधान केन्द्र, रामनाथ आश्रमशाला, कृष्णादेवी वनवासी बालिका आवासीय विद्यालय, परमानंद आश्रम पद्धति विद्यालय, समाजशिल्पी दम्पति योजना एवं स्वावलम्बन अभियान जैसे अनेकों प्रकल्प चल रहे हैं।

महात्मा गांधी सम्मान, एकात्मता पुरस्कार, श्रेष्ठ नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण, वरिष्ठ नागरिक सम्मान, मानस हंस, जीवन गौरव, संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार आदि पुरस्कारों से नानाजी को सम्मानित किया गया है। उन्हें अजमेर, मेरठ, झांसी, पूना एवं चित्रकूट विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट की मानद उपाधि दी गयी। कर्मयोगी नानाजी महामहिम राष्ट्रपति द्वारा 1999 में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। नानाजी ने अमेरिका, इंग्लैंड, क्यूबा, जर्मनी, कनाडा, दक्षिण कोरिया, जापान, डेनमार्क, थाईलैण्ड, केन्या इत्यादि देशों में भारतीय जीवन मूल्यों की स्थापना हेतु प्रवास किये।

नानाजी मानते थे कि समाज के परस्परावलम्बन की भावना से ही ग्रामोदय संभव होगा। वे कहते थे नूतन संतान में सामाजिक दायित्व का बीजारोपण करना परिवार का नैसर्गिक कर्तव्य है।

नानाजी ने राष्ट्रीय प्रश्नों पर सच्ची राष्ट्रभक्ति से भरपूर अपने दृष्टिकोण को खुलकर रखने में कभी भी कोई अनावश्यक संकोच नहीं किया। चाहे संविधान के स्वरूप का प्रश्न हो या आर्थिक नवरचना का, धर्मांतरण का प्रश्न हो या श्रम-कानूनों का मुद्दा ही क्यों न हो। उन्होंने सभी विषयों पर बेबाक राय दी। नानाजी के आत्मीय रिश्ते न केवल विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रमुख लोगों से थे बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों से भी समान रूप से आत्मीयता स्थापित कर लेने का विशिष्ट गुण उनमें था। उद्योगपति, किसान, दलित या वनवासी, प्रत्येक समुदाय के लोगों से उनके आत्मीय संबंध थे। आर्थिक-सामाजिक नवरचना के विस्तृत पक्षों का उन्हें ज्ञान था तो साथ ही प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, साहित्य आदि की भी उनकी जानकारी अनूठी थी।

नानाजी का जीवन असंख्य लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। हम सबको ‘सर्व भूत हिते रता:’ का पाठ पढ़ाते हुए 27 फरवरी 2010 को उन्होंने इस लोक से विदा ली। अपने जीवन में ही उन्होंने तय कर दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शरीर को जलाया नहीं जाएगा बल्कि शोध के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली को सौंप दिया जाएगा। इस प्रकार जीवन भर तो उन्होंने समाज सेवा की ही जीवन त्यागने के बाद भी वो समाज सेवा में ही लीन हो गए।

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