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शत शत नमन माधव चरण में
अंतिम प्रार्थना संत जन सुने सभी
विस्मरण ना हो मेरा, आपको प्रभो कभी
अधिक और क्या कहूं, विदित सभी श्री चरणों को
गुरु गोलवलकर के अंतिम पत्र के पत्र में उनके जीवन का निष्कर्ष प्रकट होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार जी की दूरदृष्टि थी जिन्होंने गुरुजी की प्रतिभा को पहचान लिया।
संघ में आने से पूर्व ही माधव सदाशिव गोलवलकर गुरुजी के नाम से लोगों के बीच ख्याति प्राप्त कर चुके थे।
स्वामी रामतीर्थ के जीवन चरित्र में एक स्थान पर उल्लेख है कि सामूहिकता में गति कम और एकांतिक में अबाध होती है। स्वभाव से सन्यासी गुरुजी जब हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में प्राध्यापक थे तभी संघ के संपर्क में आ चुके थे। विवाह न करने का विचार वे माता-पिता को पूर्व में ही प्रकट कर चुके थे। संत वामनराव वाडेगाँवकर के सानिध्य में पंचदशी और अद्वैत सिद्धि का अध्ययन किया था। प्रज्ञायक्षु सांवलाराम से बांसुरी, सितार, एवं वीणा वादन सीखा था। स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। वह रामकृष्ण आश्रम से जुड़े, वही दीक्षा हुई सन 1937 में विवेकानंद जी के गुरु भाई अखंडानंद जी उनके गुरु थे।
उन्होंने गुरुजी के अंदर चल रहे विचार द्वंद को भली-भांति समझा और कहा – तुम्हें हिमालय की किसी गिरी कंदरा में नहीं बैठना है, तुम्हें जनसामान्य समाज में कार्य करना है। एक महान कार्य जिसका संकल्प तुम्हारे मन में जग रहा है तुम्हारी बाट जोड़ रहा है। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
34 वर्ष की आयु में गुरु जी ने संघ का दायित्व ग्रहण किया उस दौरान आपने कहा – \”यह दायित्व तो विक्रमादित्य का सिंहासन है और मैं गडरिया बालक।\” उनकी निश्चलता युक्त माधुर्य के साथ सिद्धांत निष्ठा का परिचय देता है।
देश में जब आजादी के लिए क्रांतिकारी अपना बलिदान दे रहे थे तब आपने चेतावनी देते हुए कहा – \”देश की अखंडता के साथ सौदेबाजी न की जाए।\” लेकिन देश बट गया। लाखों लोगों के रक्त से भारत मां का आंचल भीग गया।
सन्यासी मन वाले गुरु जी के समक्ष सेवा का व्रत इतना स्पष्ट था कि वह अहंकार को इसके बीच में नहीं आने देते किंतु स्वाभिमान से कभी समझौता भी नहीं करते। तभी तो उन्होंने सरदार पटेल के कहने से कश्मीर नरेश हरि सिंह से वार्ता कर विलय हेतु राजी कर लिया था।
संघ पर प्रतिबंध लग जाने के बाद हटा लिया गया। डॉक्टर हेडगेवार की समाधि तोड़ दी गई। देशव्यापी हिंसा के बाद शांति हुई तब उन्होंने कहा अगर दांतो के बीच आ जाती है तो दांतो को तोड़ा नहीं जाता।
1962 में चीनी हमले के वह अपने भाषणों में चेतावनी दे चुके थे। विचार और आचरण में एकरूपता रखने वाले गुरुजी प्रसिद्धि से सदैव दूर रहे। दूसरों को कष्ट ना हो इसके लिए उन्होंने अपने श्राद्ध पूर्व ही कर लिया था जैसा कि संन्यास लेने पर सन्यासी लोग कर लेते हैं।