राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जी को उनकी जन्म जयंती चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर शत शत नमन् – वंदन

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हमारे पूर्वजो का स्मरण, सदा प्रेरणा का अखंड स्त्रोत रहा है न केवल भारत, अतितु इस विश्व की समस्त मानवजाति के लिये हमारा यह सांस्कृतिक धन एक आकर्षक का विषय रहा है। हमारे ऐतिहासिक महापुरूष, ऋषि – मुनि, सम्राट, वीर, योद्धा, साधु-संत, राजनितिज्ञ, कलाकार सभी का समावेश इसमें है।
विश्वास है आप भी इसे पसंद करेंगे और हमारा हाथ बटावेंगे।

संघ निर्माता केशव बलिराम हेडगेवार जी का जन्म ‘‘वर्ष प्रतिपदा के दिन 1 अप्रैल 1889 को हुआ। ऐसे पवित्र दिवसपर एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम केशव रखा गया। हेडगेवार परिवार मूलतः आन्ध्र का था। इनकी एक शाखा नागपुर आ गई। इनके पिता बलिरामपन्त हेडगेवार, वेदविद्या के ज्ञाता, कर्मनिष्ठा और परोपकारी थे। बाल्यकाल में केशव के मुख से रामरक्षा स्तोत्र सुनकर पिताजी चकित हुए। उसका उच्चारण स्पष्ट था। उसकी वाणी शुद्ध थी। उनसे पूछा गया ‘‘बेटा यह सब तुझे किसने सिखाया ?’’ केशव ने कहा ‘‘मुझे सुन-सुनकर ही कण्ठस्थ हो गया।’’ तब से वे अपने पिता के लाडले पुत्र हो गए, पुत्र की बुद्धिमत्ता देखकर प्रसन्न हुए। वे उसे स्तोत्र, सुभाषित, भजन आदि सिखाने लगे। उसकी ग्रहणशक्ति तेज थी। माता रेवतीबाई भी उन्हें धार्मिक कहानियां सुनाती थी। उनके बडे़ भाई या चाचा उसे शिवाजी की कथाएं सुनाते थे। उन्हें सुनते हुए वह आनंदविभोर हो जाते।
एक बार उन्हें ज्ञात हुआ कि अपने देश पर पराये अंग्रेजों का राज है। उसे बड़ा दुख हुआ। एक दिन उन्होंने सीताबर्डी किलेपर अंग्रेजों का झंडा देखा तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने अपने मित्रों को जुटाया और योजना बनाई। ‘‘हम सुरंग खोदकर गुप्त मार्ग से एकाएक सीताबर्डी किले में पहुँचेंगे और अंग्रेजों का झण्डा उतारकर भगवा झंडा फहराएंगे।’’ पढ़ने लिखने की उम्र में भी वे राष्ट्र का चिन्तन किया करते थे। वझेजी के सुनसान मकान में सुरंग खोदना प्रारंभ हुआ। वझे गुरूजी जब वहा आये तब देखकर चकित हुए। उन्होंने पूछा, ‘‘यह सब क्या हो रहा है ?’’ केशव ने उन्हें सम्पूर्ण योजना सुनाई। तब वे खूब हंसे। उन्होंने बच्चों की सरहाना की परन्तु उन्हें असंभाव्यता का बोध कराया। 
ऐसा ही किस्सा उनके विद्यार्थी जीवन का है, जिसमें रानी विक्टोरिया के जन्म दिवस पर अंग्रेज लोग देशभर में बड़ा समारोह मना रहे थे। उस उपलक्ष में पाठशालाओं में मिठाईयाँ बांटी गई। सब बच्चे खुश हुए। वे मिठाई बांटनेवाले अंग्रेजों की तथा रानी विक्टोरिया की स्तुति करने लगे। तब केशव से रहा नहीं गया। उसने मिठाई को कूडेदान में फैकते हुए कहा, ‘‘अंग्रेज और उनकी रानी, सब हमारे शत्रु है। मिठाई खिलाकर वे गुलामी की जंजीरे अधिक कसना चाहते है। राष्ट्र के प्रति ऐसी देश भक्ति किसी अन्य बालक में न थी जहा सभी बालक मिठाई देख कर खुश होते है वही केशव उनके विपरित थे। वे अपने उम्र के सभी बालकों से अलग थे। 
सन् 1901 में सातवां एडवर्ड इंग्लैण्ड का राजा बना। अंग्रेजों ने उसके राज्यारोहण का उत्सव मनाया। हजारों लोग उसे देखने गये। मुहल्ले के सब बालक उसे देखने गये। परन्तु केशव नही गया। उसने कहा - ‘‘यह हमारे शत्रुओ का राजा है। उस के राज्यारोहण की खुशी हमें क्यों हो ? इस अवसर पर खुशियां मनाना लज्जा की बात है।’’ ऐसा विचार निरन्तर उनके मन रहता था। 
पर उन्हें एक बडे़ दुःख से गुजरा भी पड़ा सन् 1902 में नागपुर में प्लेग ने हाहाकार मचाया। मुहल्ले में तथा घर-घर में लोग मरने लगे। एक दिन तेज बुखार, दूसरे दिन जांघों में तथा बगल में गिल्टियां और तीसरे दिन महाप्रयाण। ऐसा यह विचित्र तथा भयानग रोग था। इसपर कोई भी दवा असर नही करती थी। जब किसी के बीमार होने की खबर पहुंचती, तो पिता बलिरामपंत वहां जाते और योग्य सहायता पहुचाते। उन दिनों एक ही दिन चार-छः बार स्मशन जाना पडता था। घर आनेपर हर बार वे ठंडे पानी से नहाते थे। इतना सब होने पर भी कभी उनकी अग्निपूजा में खण्ड नही हुई। थोडे़ ही दिनों में प्लेग ने उनके पिता पर आक्रमण किया उनकी पत्नी भी बीमार हो गई। दोनों ने एक ही दिन इस लोक से प्रस्थान किया। उस समय केशव की आयु 13 वर्ष थी। अब वे परिवार में केवल तीन ही लोग रह गए। ‘बडे़ भाई महादेव, मंझले सीताराम और केशव’ परिवार में बडे़ होने के कारण सम्पूर्ण जिम्मेदारी बडे़ भाई महादेव पर आ गई।
जैसा की आप ने इतिहासो में पड़ा होगा अंग्रेज़ बहुत कुटिल राज्यकर्ता थे। भारत पर अपना राज्य चिरकाल बनाये रखने के लिए उन्होंने मुख्यतः दो चाले चली। भारतीयों के मन से दास मनाने हेतु उन्होंने अंग्रेज़ ढंग के विद्यालय खोले। आपस में झगडे सदा चलाने हेतु उन्होने जाति, पंथ, भाषा, आदि के आधार पर भेद के बीज बोये। 
वन्देमातरम् ‘‘बंकिमचंद्र’’ का यह गीत देशभक्ति का मंत्र बन गया। हर सभा में वह गया जाने लगा। गांव-गांव और नगर-नगर में लोग वंदेमातरम् कहने लगे। देशभर में देशभक्ति की लहर दौड चली। केशव ने उस सम्पूर्ण गीत को कण्ठस्थ कर लिया। वन्देमातरम् की भावना से केशव का हृदय ओतप्रोत हो गया। उधर अंग्रेज भी वंदेमातरम् से बौखला गये। उन्होंने अन्यायपूर्ण नियमों से जनता को जकड़ना प्रारंभ किया। वंदेमारतम् गीत गाना तो दूर यो दो शब्द कहना भी अपराध हो गया।
उस समय, चैदह वर्ष की आयु का केशव नागपुर के नील सिटी हाइस्कूल में पढ़ता था। उसने इस दुष्टता का विरोध करने का निश्चय किया। मित्रों को जुटा कर उसने योजना बनाई। हर वर्ग के हर विद्यार्थी के पास बात चुपचाप पहुंच गई। सब ने निश्चय के साथ कहा ‘‘हाँ हम ऐसाही करेंगे। शालानिरीक्षक अधिकारी नित्य की जांच के लिये विद्यालय में आनेवाले थे। विद्यार्थियों ने उनके स्वागत की अनूठी योजना बनाई। उनके कक्ष में पदार्पण करते ही सब विद्यार्थी एक साथ गरज उठे ‘‘वंदेमातरम्!’’ शलानिरीक्षक अधिकारी जिस भी कक्षा में प्रवेश करते वहा वंदेमातरम् के जय घोष से पाठशाला की सारी दीवारें वंदेमातरम् से निनादित हुई। निरीक्षण कार्य ठप्प हो गया। अधिकारी क्रोध से तमतमा उठे। वे मुख्याध्यापक पर बरस पडे़ ‘‘यह कैसी बगावत हो रही है ? कौन है इसकी जड़ में ? सब को कड़ी सजा दो।’’ 
मुख्याध्यापक ने विद्यार्थियों को कड़ी डांट लगाई। शिक्षको ने लड़को को मारा, पीटा, डराया, धमकाया, पुचकारा, ललचाया और बारबार पूछा, ‘‘इसके पिछे कौन है बताओं।’’ किन्तु किसी ने भी केशव का नाम नही बताया। ‘वंदेमातरम्’ और ‘भारतमात की जय’ के नारे लगाते हुए विद्यार्थी अपने-अपने घर चले गये। कुछ दिनों के संघर्ष के बाद विद्यार्थी पूर्ववत् पाठशाला में जाने लगे। मुख्याध्यापक ने शर्त रखी जो माफी मांगेगा वो विद्यालय में बैठ सकता है। केशव ने माफी नहीं मांगी। उसने कहा, ‘‘जो शासन अपनी माँ को प्रणाम नहीं करने देता, वह अन्यायी है। उसे उखाड़ फैंकना चाहिये।’’ केशव को विद्यालय से निकाल दिया गया। जब बात घर पर पता लगी तो बडे़ भाई महादेवराव ने समझाते हुए कहा ‘‘यह सब बड़े आदमियों का काम है।’’ ‘’हमें इस झमेले में नही पड़ना चाहिये।‘‘ पर केशव के भाग्य में तो ईश्वर ने कुछ और ही होना लिखा था। 
केशव अपने चाचा के पास रामपायली चले गए। एक सज्जन उसे समझाने लगे ‘‘पढाई पूर्ण करो, बड़े और समझदार हो जाओ तब देशभक्ति करो।’’ केशव ने उनसे कहा, ‘‘आप पढे लिखे, बडे़ और समझदार है। आप देशभक्ति के कितने काम करते है?... और पढूंगा कहाँ ? अंगे्रजों के चलाये विद्यालयों मे ? वे तो गुलामी के कारखाने है। वहां पढना पाप है।’’ यह कहना भी स्वभाविक हि था क्यो कि वे जानते थे शिक्षा से हि भविष्य का निर्माण होता है। जो कि अंग्रेजों के कान्वेंट  स्कूलों में नही था। अंग्रेज़ तो भारत का वर्तमान भी नही रहने देना चाहते थे। वे अपने एक अमृत वचन में कहते है। शक्ति सेना या शस्त्र में नही होती बलकी जो समाज जितना शिक्षत होगा वो उतना ही शक्तिशली होगा।
केशव रामपायली से वापस नागपुर आ गये परन्तु वे घर नही गये। भाईसाहब के क्रोध की उन्हें कल्पना थी। वह डॉक्टर मुंजे के पास पहुंचे। केशव से उनका विशेष स्नेह था। उन्होंने परिचयपत्र देकर केशव को यवतमाल भेजा। वहा तपस्वी बाबासाहब परांजपे विद्यागृह चलाते थे। वहां के शिक्षकों ने केशव की पूरी सहायता की उन्होंने उसे पूना भेजा। उसने शालान्त परीक्षा उत्तम रीति से उत्तीर्ण की। 
केशव ने अपने मन में दो बातें ठान ली थी। एक तो उन्हें बंगाल जाना था। उस भूमि को वे निकट से देखना चाहते थे। वहां के तेजस्वी क्रान्तिकारी युवको के साथ वे काम करना चाहते थे।
दूसरी बात वे आगे पढ़ना चाहते थे। विशेषतः डॉक्टर बनने की उनकी इच्छा थी। इस व्यवसाय में जनसेवा, प्रतिष्ठा तथा अर्थप्राप्ति, तीनो का समन्वय था। उनका मन ऊंची उड़ाने भर रहा था परन्तु उनकी आर्थिक परिस्थिति ने उन्हे जमीन पर चलना भी कठिन कर दिया था। बडे़ भाईसाहब के पास न पैसा था और न सहानुभूति ही थी। उन्होने केशवराव को कुछ डांट-फटकार सुनाई और नौकरी करने का उपदेश दिया। वे डॉक्टर मुंजे के पास पहुंचे उन्होंने सब प्रकार का आश्वासन दिया। केशव नागपुर में एक पाठशाला में अध्ययन कार्य करने लगे। विद्यार्थियों के घर जाकर पढ़ाना भी उन्होंने प्रारंभ किया। अपनी अर्थप्राप्ति का कुछ अंश घर देकर, कुछ वे आगे की पढ़ाई के लिये जोड़ने लगे। डॉक्टर मुंजे ने कलकत्ता के उनके मित्रों को पत्र लिखे थे। उनके अनुकूल उत्तर आ गये। एक दिन डॉक्टर मुंजे से परिचयपत्र लेकर केशव कलकत्ता जाने के लिये गाड़ीपर सवार हुए। मन की आनन्दविभोर अवस्था में केशव कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता उनकी दृष्टि में केवल महानगरी नही थी। वह आत्मबलिदान की वेदी थी। वहां के युवक मातृभूमि को दास्यबंधनो से मुक्त करना चाहते थें। उस हेतु वे क्रान्ति के महाप्रयास करते थे। अन्होंने वंगभूमि की धूलि अपने भाल पर लगाई। क्योकि इस भूमि पर चैतन्य महाप्रभु घूमे, फिरे, झूमे, नाचे थे। वहां का हर बालक महिषासुरमर्दिनी काली माता का उपासक था। केशव का भोजन, निवास आदि की व्यवस्था उत्तम हो गई। इसके दो कारण थे। एक तो व ऐसे मामले में उदासीन रहते थे। दूसरा यह कि उनका व्यवहार इतना मिलनसार था कि वे हर किसी का हृदय शीघ्र जीत लेते थे। उल्म समय में केशवराव बांगला बोलना सीख गये। नलिनी किशोर गुह, अमूल्यरत्न घेष, प्रतुलचंद गांगुली, श्यामसुंदर आदि गण्मान्य बंगाली सज्जनों के घर वे जाने-आने लगे। वे उनके घर के सदस्य बन गये । वे पंजाबी वसतिगृह में जाते थे। वहां के युवकों के वे मित्र बनाते थे।
‘‘हम तो यहां पढ़ने आये है। हमें यहां के जनजीवन से क्या लेना देना, ऐसा उन्होंने कभी नहीं सोचा। रामकृष्ण आश्रम द्वारा चलायी गयी बाढ़पीड़ितों की सेवा में उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया। सुभाषचंद्र बोस के स्वदेशी प्रदर्शनियों में वे सेवक बनकर दर्शकों का मार्गदर्शन करते थे। केशव ने प्रतिज्ञाबद्ध होकर क्रांतिकारी दल में प्रवेश कियां वे अनुशीलन समिती के सदस्य बने।
गंगाजी में तैरना उनका प्रिय व्यायाम था। एक बार एक बंगाली युवक उनसे स्पर्धा करने लगा। परन्तु कुछ देर बा रवह थक गया और डूबने लगा। केशव ने उसे सहारा देकर किनारे लगाया। उन्होने उसे उसके घर पहुंचा दिया। केशव का परिचय पाकर घर के लोग चकित हुए। एक ‘मराठा’ भला इतना भद्र व्यवहार कर सकता है ?... इतनी उत्तम बंगाली बोल सकता है ? इसका उन्हे आश्चर्य लगा। उस युवक का नाम चक्रवर्ती था। वह केशव का परममित्र बना। केशव अनेक बार दक्षिणेश्वर, बेलूरमठ तथा शान्तिनिकेतन जाया करते थे। वे उनके प्रेरणास्थान थे।
अनेक कार्यो में व्यस्त रहने के बाद भी वे पढ़ाई में पीछे नही रहे। उन्हे अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता था। उनके पढ़ाई की पुस्तके नही थी। वे दूसरों से पुस्तके मांग लेते थे। रात के एकान्त में वे एकाग्र होकर पढ़ते थे और सुबह लौटा देते थे। हर परीक्षा में उन्हें उत्तम गुण प्राप्त होते थे। उन की अलोकिक बुद्धिमत्ता तथा अथक उद्योगशीलता देख उनके सहपाठी चकित होते थे। अन्तिम परीक्षा में भी उन्हें उत्कृष्ट यश प्राप्त हुआ। वे डॉक्टर बने उन्हें एल.एम.एण्ड.एस की उपाधि प्राप्त हुई। कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर मलिक उन्हें विशेष रूप से चाहते थे। ब्रह्मदेश के एक बडे़ अस्पताल में वे उन्हे अच्छी नौकरी दिलाना चाहते थे। परन्तु केशव ने उन्हे विनम्र शब्दों में मना कर दिया। जहाँ उस समय डॉक्टर कम ही हुआ करते थे। डॉक्टर को ईश्वर मान उसकी प्रसन्सा की जाती थी। ऐसे समय में केशव ने कहा - ‘‘महोदय, अपने देश की परिस्थिति सुधारने हेतु, मेरे जैसे हजारों युवकों को अपना सर्वस्व न्यौछावर करना होगा। नगरों में, ग्रामों में तथा वन्य प्रदेश में सैंकड़ों आवश्यक कार्य, कार्यकर्ताओं की बांट जोह रहे है। अतः मैंने नौकरी, विवाह, इत्यादी न करने का प्रण किया है। मैं आप से आशीर्वाद चाहता हूं।’’ अनेक शुभेच्छाओं के साथ प्राचार्य महोदय ने केशव को विदा किया।
केशव डॉक्टर बनकर नागपुर लौटे। परन्तु न तो उन्होंने कहीं नौकरी की और न ही दवाखाना खोला और अपने प्रिय देश कार्य में लगे रहते थे। डॉक्टरजी अनुशीलन समिति के सदस्य थे है। डॉक्टरजी ने प्रांतिक कांग्रेस के कार्यवाह के नाते कार्य किया। सन् 1921 में जब असहकार आन्दोलन छिड़ा तब उग्र भाषण दिये। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ा, उनपर मुकदमा चलाया, और जज के सामने उन्हों ने उससे भी तिव्र और तेजस्वी भाषण दिया यह देख कर उन्हें एक वर्ष की सश्रम कारावास की सजा दी। 
कारागार मं उनका व्यवहार बहुत धैर्यपूर्ण तथा संतुलित रहा। वे सदा प्रसन्नमुख रहते थे और दूसरों की सहायता तत्परता से करते थे। कारावास में शारीरिक विश्राम तो अवश्य प्राप्त हुआ, परन्तु उनका मन सदा चिंतनमग्न रहता था। वहां उन्होने फिर से एकबार अपने देश के इतिहास का निरीक्षण किया। ‘‘हमारा धर्म, परंपरा तथा संस्कृति श्रेष्ठ है। भारतीयों जैसे नितिमान गुणवान तथा पराक्रमी लोग दुनियाभर में नहीं है। हमारी संख्या बहुत बड़ी है। फिर हम मुठ्ठीभर विदेशी आक्रांताओं के गुलाम क्यों बने है ? इसके लिये न अंग्रेज़ जिम्मेदार है न कोई अन्य। हम हिन्दू ही हमारे देश की दुरवस्था के मूल कारण है। हम स्वार्थी, असंगठित तथा अनुशासनहीन बन गये । हमने सामाजिक भाव छोड़ दिया। शत्रुओं ने हमारे दुगुणों का लाभ उठाया। अतः हमें दुर्गुण दूर करने होगें। हमें स्वाभिमनी, स्वावलंबी तथा सुसंगठित बनना होगा। यह कार्य कौन करेगा ? हम करेंगे। मै करूंगा। अन्य सब कार्यों की अपेक्षा यह महत्वपूर्ण है। बाकी के सब कामों को छोड़, अब में इसी में जूट जाऊंगा।’’ दिनांक 12 जुलाई 1922 को वे कारावास से मुक्त हुए। 
उन्होंने अनेकों कार्यकर्ताओं के साथ विचार विनिमय किया। कार्य की महानता तो सब बखनते थे, परन्तु उसे प्रत्यक्ष करने के लिये किसी के पास न समय था, न धीरज, और न कौशल्य। कई लोग डॉक्टरजी से कहते ‘‘मेंढ़को को तोलना आसान है पर हिन्दू को जोडना कठिन’’ ‘‘हिन्दू संघठित तभी होता है जब पाँचवां कन्धे पर हौ’’ अतः डॉक्टर जी ने स्वयम् ही सच्चरित्र नवयुवको को जुटाना प्रारंभ किया। सन् 1925 को विजयादशमी के शुभमुहूर्त पर उन्होंने संघ की स्थापना की। प्रारंभ में सब सदस्य सप्ताह में एक दिन जुटते थे। चर्चा-भाषण आदि होते थे। फिर नागपुर के महाल विभाग में सरदार सालूबाई मोहिते के बाडे में संघ ने शाखा का रूप धारण किया। संघ निर्माता केशव बलिराम हेडगेवार जी ने यहीं पर संघ को शांखारूप् प्रदान किया। उन्होंने वहां के कंकड पत्थर बीनकर, खेलने योग्य मैदान बनायां यही पर वे युवकों के साथ खेले। यही पर उन्होने सब के साथ सैनिक समता की। शाखा समाप्ति पर वे यही पर गोल बांध कर बैठते थे और स्वयंसेवक उनकी बातें, सुधबुध खोकर सुनते थे। उद्ध्वस्त मकान को राष्ट्रदेवता की उपासना का पवित्र मंदिन बनाना ही डॉक्टरजी के जीवन का सार है। मोहते के बाड़े जैसी ही भारतवर्ष की स्थिति थी। सारा देश खण्डहर हो चुका था। चोर- डाकुओं न उस पर कब्जा कर लिया था। देश के इस चित्र को बदलना ही डॉक्टरजी का जीवनकार्य था। प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए, हिन्दू राष्ट्र को उन्होंने जागृत किया उन्होंने शून्य से नई सृष्टि का निर्माण किया। निर्धारित समय पर युवकगण मोहिते के बाडे में आने लगे। साफ सुथरा मैदान उन्हें आमंत्रण दे रहा था, ‘‘आओ मित्रों, जी भरकर खेलो। खेल खेल में बन्धुता उत्पन्न करों और अन्तःकरण में देशभक्ति की भावना को भर लो।’’
सब लोग खूब खेले, कूदे। बड़ा आनंद रहा। अन्त में प्रार्थना हुई। फिर सब डाॅक्टरजी के आसपास बैठ गये। हंसी मजाक, पूछताछ, आदि होने के पश्चात् सभी अपने-अपने घर चले गये। इस छोटी सी परन्तु महत्वपूर्ण सुरूवात में संघ की कार्यपद्धति का सार आ गया है। ‘ढिढोरा मत पीटो। मूक सेवाभाव से किया हुआ काम, शाब्दिक प्रचार की अपेक्षा अधिक प्रभाव करता है।’’ वैसा ही हुआ। दूसरे दिन से अधिकांष स्वयंसेवक समय से पूर्ण आकर मैदार साफ कर पानी छिड़कने लगे। फिर शाखा प्रारंभ होती और भगवा ध्वज शान से फहरता। यह सब कैसे हुआ ? किसी का न माननेवाले युवक, डॉक्टर जी के निस्सीम भक्त कैसे बने ? डॉक्टर जी की वाणी में इतना प्रभाव कहां से आया ? यह उनके तपस्यामय पूर्ण जीवन का फल था। 
जब भी डॉक्टर जी गांव जाते, वहां शाखा प्रारंभ करते। अनेक बुद्धिमान स्वयंसेवकों को डॉक्टरजी ने पढ़ाई के बहाने अन्य प्रान्तो में भेजा। लाहौर, दिल्ली, लखनऊ, पटना, कलकत्ता, मद्रास, पूना, बम्बई अहमदाबाद, जयपुर आदि स्थानों पर शाखाएँ चलने लगी। वह शाखाएँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से जानी गई। वहाँ न अंग्रेज़ो को गालीयां दी जाती थी और न ही किसी अन्य धर्म या समुदाय को। वहां कहा जता था - ‘‘अपनी मातृभूमि पर प्रेम करो। जाति - पांति आदि का भेद मन में न लाते हुए भारतजननी के पुत्रों पर करो। वीर बनों। दुनिया के दूसरे देशों की ओर मत ताको। त्यागपूर्वक अविरत परिश्रम करते हुए हिन्दूओं को सुसंगठित करों। इस एक ही औषधि से देश के सब रोगों का निवारण होगा।’’
सब आयु, स्तर तथा जाति के लोग संघ में जाने लगे। डॉक्टरजी उपदेश बहुत कम देते थे। उनका व्यवहार ही बहुत बड़ा उपदेश था। कई स्वयंसेवक जाति पाति भुल कार एक साथ कार्य करते व एक दूसरे के परिवारीक कार्यक्रम जैसे - शादी, गमी वाले अन्य कार्यक्रमों में निमत्रण देने लगे व परिवारों में परिचय कराने लगे। 
डॉक्टरजी हर छोटे-बडे़ स्वयंसेवक के साथ निजी संबंध रखते थे। कोई बीमार, निर्धन या दुखी हो तो वे भाई या काका बन जाते थे। एक बार डॉक्टरजी अडेगांव गये थे। वहां उनके मित्र के घर व्रतबंध समारोह था। वहां देरी हुई। दूसरे दिन रविवार था। रविवार की सुबह एकत्रिकरण में होनेवाली सैनिक सकता में उपस्थित रहना था। सब स्वयंसेवकों के लिए अनिवार्य था। रात्रि का समय था उस समय बसे भी इतनी नही थी। कुछ समय बाद कोई वाहन मिल जाये। अतः डाॅक्टरजी वहां से पैदल चल पडे। ऐसा उन्होंने कभी नही सोचा। ‘‘मैं संघ निर्माता - मैं सर्वश्रेष्ठ अधिकारी - कुछ सहूलियतें तो मुझे मिलनी चाहिये... एक दिन न गये तो क्या होगा। डाॅक्टरजी अपने कार्य का पूर्णरूप से पालन करते थे। सयम पालन, अनुशासन, परिश्रमशीलता में वे कभी ढिल नही देते थे। संघ स्थान पर वे जैसे कठौर, शिक्षक के भाति नैत्रत्व करते वही प्रार्थना के बाद विनम्र स्थाव उनमंप सहज दिखाई देता था। डाॅक्टरजी कभी चिढ़ते नही थे। वे बच्चों के साथ हिलमिल जाते थे। वे स्वयं हास्यविनोद का आनंद लेते थे और दूसरो को लुटाते थे। संघ ही मेरा जीवनकार्य है, मुझे इन्ही आँखों से सुसंगठित भारत देखना है।, ऐसा सोचकर अपनी सरी शक्ति, बुद्धि उन्होंने संघकार्य में लागा दी।
सन् 1930 में देशभर में अंग्रेजो के दुष्ट कानून तोडने का आन्दोलन चला। उन्होने यवतमाल जिले में सत्याग्रह किया। उन्हें नौ मास का सश्रम कारावास की सजा मिली। कारागार में वे संघ का ही कार्य करते थे। वहाँ पर उन्होंने अनेकों को संघकार्य का महत्व समझाया। अनेको को उन्होंने प्रतिज्ञा देकर स्वयंसेवक बनाया। बाबू पद्मराज जैन तथा महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी उन्हें आर्थिक सहायता देने लगे। तब डॉक्टरजी जी ने उन्हें नम्रतापूर्वक कहा, ‘‘मुझे धन नही, मनुष्य चाहिये।’’
संघशिक्षा वर्गों में अपने खर्च से सैंकड़ों की संख्या में स्वयंसेवक जुटाने लगे। इन्हीं बातों में संघकार्य के यश का रहस्य छिपा है। ‘संघ के कार्यक्रम तथा उसकी प्रगति देख’ बड़े-बड़े लोग प्रभावित हुए। सन् 1934 में दिसम्बर मास में वर्धा में जमनलाल बजाज के बगीचे में संघ का शिविर लगा था। महात्मा गांधी उसे देखने गये। वहाँ की व्यवस्था, अनुशासन, परिश्रमशीलता, स्वयम् अपने खर्च से आना और रहना, भेदभावविहीन वातावरण आदि देखकर महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुए। वे जिससे भी अपने सहपाठी को बारे में पूछते तो उन्हे एक ही जवाब मिलता हम एक दूसरे की जाति नही जानते हम हिन्दू है। उन्होंने संघ की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
अविरत परिश्रमों के कारण डाॅक्टरजी बहुत बीमार हो गये। वे इलाज के लिए नासिक तथा राजगीर गये। वहां भी वे संघकार्य करते रहे। वे पैदल, साइकल से, मोटर से तथा रेलगाड़ी से संघकार्य का देशभर में संचार करते रहे। सन् 1940 में प्रतिवर्षानुसार नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग लगा था। परन्तु डॉक्टरजी उसमें उपस्थित न हो सके। स्वयंसेवको से मिलने के लिये वे छटपटा रहे थे। अन्त में डॉक्टरों ने उन्हे इजाजत दी। 1 जून 1940 को प्रातः कुर्सीपर बैठे-बैठे डॉक्टरजी ने सब स्वयंसेवकों को निहारा। उनका शरीर बुखार से ग्लानि और दुर्बलता से संत्रस्त था। परन्तु मन उछल रहा था। उन्होने कहा - ‘‘प्रिय स्वयंसेवक बन्धुओं, यह परम भाग्य का समय है। याची देही, याची डोरा (अर्थात:- आज में सम्पूर्ण भारत का लघुरूप देख रहा हूं।.....) क्षमा करें में न आपसे मिल सका और न आप की सेवा कर सका। आज सोचा, कमसे कम आप को देखूं तथा हो सके तो चार शब्द कहूं.... आप में और मुझ में इतना खिचाव, लगाव क्यों है ? अनके भेद होते हुए भी हमारे मन क्यों जुडे़ है ? यह संघ का जादू है। संघ व्यक्ति निर्माण, भाईचारा निर्माण करता है। सगे भाई झगड़ते है। परन्तु हम कभी नही झगड़ेंगे।.......... जिस कार्य को हमने यहां सीखा है, यह कभी न भूले। प्रतिज्ञा कीजिये कि जबतक शरीर में प्राण है, मै संघ को नही भूलूंगा।......... प्रतिरात्रि स्वयं से पूछिये- आज मैंने दिनभर में कौन-सा और कितना संघकार्य किया.....। ‘‘मैं कभी स्वयंसेवक था ऐसा कहने की बारी कभी न आने दीजिये।........ सम्पूर्ण देशभर के हिन्दू भाइयों को हमें संगठित करना है।...... जब भारत संघमय बनेगा तब दुनिया का कोई देश उसे टेढ़ी नजर से नहीं देख पायेगा। तब सब समस्याएँ समाप्त होंगी। डॉक्टरजी का य छोटा भाषण अमिट प्रभावशाली था।
डॉक्टरजी का स्वास्थ दिन प्रति-दिन अधिकाधिक बिगड़ने लगा। नागपुर के अग्रगण्य डॉक्टरों ने बहुत प्रयास किये। स्वयंसेवक -गण रातदिन उनकी सेवा में जुटे रहे। परन्तु ईश्वर की इच्छा प्रतिकूल थी। उन्हे मेयो-अस्पताल में ले जाया गया। फिर वहा से नागपुर नगर संघचालक घटाटेजी के बंगले पर लाया गया। डॉक्टरों ने लम्बर पंक्चर का निर्णय लिया। किन्तु डॉक्टर केशव बलीराम हेडगेवार अपने रक्त को भी पानी बना चूके थे। डॉक्टरो ने जब लम्बर पंक्चर किया तो उसमें खुन नही था। लम्बर पंक्चर से कुछ भी नही हुआ। मध्यरात्रि में वे बेहोश हो गये सुबह उनका बुखार 106° (अंश) तक चढ गया। सब आश जाती रही डॉक्टर केशव बलीराम हेडगेवार सब कुछ जान गये। उन्होने संघकार्य का भार माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य (श्री गुरूजी) पर सौंपा। डॉक्टरजी ने सैंकडो निष्ठावान् त्यागी एवम् कार्यकुशल कार्यकर्ता जुटाये थे उनमे वे, उग्रगण्य थे। शुक्रवार दिनांक 21 जून 1940 की प्रभात में 9 बजकर 27 मिनट पर उनकी प्राण्ज्योति महाज्योति में विलीन हुई।
डॉक्टर केशव बलीराम हेडगेवार ने महान कार्य किया। उसने हेडगेवार कुल का नाम देशवासियों में पहुँचाया। संघ कार्यरूप में वे अजर तथा अमर है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का तारणहार तथा विश्व का मार्गदर्शक है।

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