जिन्होंने भगवा ध्वज को कभी झुकने नही दिया ऐसा हमारा अनुसूचित जाति समाज

\"क्यों

गीता में भगवान श्री कृष्ण का उपदेश है कि दूसरे की नजर में अपना धर्म भले ही छोटा क्यों ना हो लेकिन दूसरे के धर्म से फिर भी वह श्रेष्ठ ही है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए। मेहतरों ने भी यही किया, काल के गाल में अपने स्वाभिमान को समाप्त करना तो स्वीकार कर लिया किंतु धर्म से कोई समझौता नहीं किया। इसलिए ही कहना होगा कि धन्य है, हमारा यहां अनुसूचित समाज जातिगत रूप से मेहतर, वाल्मीकि और इस जैसी छोटी, पिछड़ी वर्तमान जातियां जो विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करती रही किंतु \’स्वधर्म से विचलित नहीं हुई।\’

वस्तुतः जिन्हें आज हम मेहतर जाति मानकर अछूत करार देते हुए उनके हाथ कछुआ भोजन तो दूर पानी पीना भी पसंद नहीं करते, उनका पूरा इतिहास साहस, त्याग और बलिदान से भरा पड़ा है। मुगल काल का संघर्ष का इतिहास पढ़ते वक्त इस बात के अनेकों उदाहरण मिलते हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद स्पष्ट होता है कि कैसे मेहतर शब्द प्रचलन में आया। प्रख्यात साहित्यकार अमृतलाल नागर ने अनेक वर्षों के शोध के बाद पाया कि जिन्हें \”मेहत्तर\” आदि कहा गया है ब्राह्मण और क्षत्रिय है। इसका एक प्रमाण स्टैनले राइस ने अपनी पुस्तक \”हिंदू कस्टम्स एंड देअर ओरिजिन्स\” के जरिए दिया है वह लिखते हैं कि भारत में अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्रायः वह बहादुर जातियां भी, जो मुगलों से युद्ध में हार गई थी तथा उन्हें अपमानित करने के लिए मुसलमानों ने अपने मनमाने काम उनसे।

ऐसा ही एक प्रमाण गाजीपुर के देवदत्त शर्मा की पुस्तक \”पतित प्रभाकर\” जिसका प्रकाशन सन 1925 में हुआ था में मेहतर जाति के इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डाल कर दिया गया है। इस छोटी सी पुस्तक में \”मेहतर\”, \”हलालखोर\”, \”चूहड़\” आदि नामों से जाने गए लोगों की किस में दी गई है, जो कुछ इस प्रकार है (पृष्ठ 22-23) नाम जाति- भंगी-वैस, वैसवार,बीर गुजर(बग्गुजर),भदौरिया,बिसेन,सोब,बुन्देलिया, चन्देल, चौहान,नादों, यदुवंशी,कच्छवाहा,किनवार-ठाकुर,बैस,भोजपुरी राउत,गाजीपुरी राउत,गेहलौता,मेहतर,भंगी,हलाल,खरिया, दिनपुरी राउत,टांक,गेहलोत, चंदेल। देखा जाए तो इन जातियों के लिए सभी भेद है, वै सभी क्षत्रिय जाति के ही भेद या किस्मे है। इस बात को और प्रमाणिकता के साथ ट्राइब एंड कास्ट ऑफ बनारस, छापा सन 1872 ईसवी पुस्तक में भी स्पष्ट किया गया है। इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट होता है कि हमारे-आपके पूर्वजों ने जिन \’मेहतर\’ जाति को अस्पृश्य करार दिया, वह हमारे ही बहादुर पूर्वजों की संताने हैं। उन्होंने मुगल काल के दौरान इस्लाम कबूल नहीं किया पर धर्म के रक्षार्थ मैला ढोने की शर्त को मान लिया। फिर इस्लामिक कट्टरवादियों और आतंकियों से अपनी बहू-बेटियों की रक्षा करने के उद्देश्य से सूअर पालना शुरू कर दिया जिससे कि उनके घरों और बस्तियों से भी मुस्लिमों को दूर रखा जा सके।

इसे दो संस्कृतियों के तुलनात्मक अध्ययन से भी समझ सकते हैं। हिंदुओं की उन्नत सिंधु घाटी सभ्यता में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय मिलता है, जबकि मुगल बादशाह के किसी भी महल में चले जाओ, आपको शौचालय नहीं मिलेगा। अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकारों ने शाहजहां जिसे मुगल बादशाह को वास्तु कला का मर्मज्ञ ज्ञाता बताया है। लेकिन सच यह है कि अरब के रेगिस्तान से आए दिल्ली के सुल्तान और मुगलों को शौचालय निर्माण तक का ज्ञान नहीं था। दिल्ली सल्तनत से लेकर मुग़ल बादशाह तक के समय तक सभी धातु एवं मिट्टी के पात्रों में शौच करते थे, जिसे ब्राह्मणों,क्षत्रियों और उनके परिजनों से फिकवाया जाता था, जिन्हें मुगलों द्वारा युद्ध के दौरान बंदी बना लिया गया था, इन लोगों से जब इस्लाम, मौत या मैला उठाने में से किसी एक को चुनने के लिए संभवता कहा गया होगा तो उन्होंने मैला ढोना तो स्वीकार कर लिया था, किंतु इस्लाम को नहीं अपनाया।

यहां मेहतर या भंगी शब्द का मूल अर्थ भी हमें जान लेना। वास्तव में जिन ब्राह्मण और क्षत्रियों ने मैला ढोने की प्रथा को स्वीकार करने के उपरांत अपने जनेऊ को तोड़ दिया, अर्थात उपनयन संस्कार को भंग कर दिया, वह भंगी और मेहतर कहलाए। ऐसे में भले ही तत्कालीन हिंदू समाज की ब्राह्मण-क्षत्रिय जातियों ने इनसे रोटी-बेटी का सीधा संबंध समाप्त कर दिया था किंतु कहीं ना कहीं इनके उपकारों को भी स्वीकार किया था, इसका प्रमाण यह है कि हिंदू समाज ने इनके उपकारों के कारण इनके मैला ढोने की प्रथा को भी महत्तर अर्थात महान और बड़ा करार दिया, जो अपभ्रंश रूप में \’मेहतर\’ हो गया। भारत में 1000 ईस्वी में केवल 1 फ़ीसदी अछूत जाति थी, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्या 14 फ़ीसदी हो गई। इसके बारे में यह सोचनिय अवश्य है कि 150-200 वर्ष के मुगल शासन में अछूत कहीं जाने वाली जातियों की संख्या में 13 फीसदी की बढ़ोतरी कैसे हो गई वस्तु है? इसका उत्तर भी इतिहास दे देता है।

वामपंथी इतिहासकारों की मानें तो भारत में सूफियों के प्रभाव में हिंदुओं ने इस्लाम स्वीकार किया लेकिन अन्य जमीनी साक्ष्य कुछ और ही बताते हैं। गुरु तेग बहादुर एवं उनके शिष्यों के बलिदान तथा इस प्रकार के अनेक साक्ष्य आज इतिहास मे भरे पड़े हैं। जिस पर ज्यादातर वामपंथी इतिहासकार मोहन है या फिर इस विषय को हल्के से बताते हैं। गुरु तेग बहादुर के 600 शिष्यों को इस्लाम ना स्वीकार करने के कारण आम जनता के समक्ष आड़े से चिड़वा दिया गया, फिर गुरु को खौलते तेल में डाला गया और आखिर में उनका सिर कलम करवा दिया गया था। भारत में इस्लाम का विकास इस तरह से हुआ।

डॉ सुब्रमण्यम स्वामी लिखते हैं,\” अनुसूचित जाति उन्हें बहादुर ब्राह्मण और क्षत्रियों के वंशज है, जिन्होंने जाति से बाहर होना स्वीकार किया, लेकिन मुगलों के जबरन धर्म परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। आज के हिंदू समाज को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, उन्हें कोटिशः प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि उन लोगों ने हिंदू के भगवा ध्वज को कभी झुकने नहीं दिया, भले ही स्वयं अपमान व दमन झेला।\” इसके इधर यह भी गौर करने लायक है कि सबसे अधिक इन अनुसूचित जातियों के लोग देश में कहां मौजूद है? चहुओर नजर दौड़ाने पर ध्यान आता है कि यह लोग उत्तर प्रदेश, बिहार,बंगाल,मध्य भारत में है, जहां मुगलों के शासन का सीधा हस्तक्षेप था और जहां अत्यधिक धर्मांतरण हुआ। आज सबसे अधिक मुस्लिम आबादी भी इन्हीं प्रदेशों में है जो यह स्पष्ट करती है कि इन क्षेत्रों में इस्लाम का संघर्ष सर्वाधिक चला है, जिसमें परिणाम स्वरुप सनातन उपासना पद्धति के लोग तीन जगह बट गए, एक अपने मूल धर्म में उच्चवर्णीय बने रहे, दूसरे विवश होकर धर्मांतरित हो गए और तीसरे वे लोग हैं जिन्हें आज की भाषा में अनुसूचित जाति वर्ग में नाम से जाना जाता है।

वस्तुतः इस सत्य को जानने के बाद, अब जरूरत इस बात की है कि सभी स्वयम को हिंदू कहने वाले लोग अनुसूचित जाति बंधुओं को आगे बढ़कर गले लगाएं। जहां शिक्षा से लेकर तमाम प्रकार की योग्यताएं मौजूद है, वह जाती आधार पीछे रखते हुए सभी परस्पर रोटी बेटी का संबंध रखने की दिशा में आगे आए। आज भी तमाम पढ़े-लिखे और उच्च वर्ण के हिंदू जातिवादी बने हुए हैं, लेकिन वह नहीं जानते कि यदि आज वह बचे हुए हैं तो अपने ऐसे ही भाइयों के कारण जिन्होंने नीच कर्म करना तो स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम को नहीं अपनाया।

– रोहन गिरि

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