स्वामी विवेकानंद जी की पुण्यतिथि पर शत शत नमन……

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स्वामी विवेकानंद के विषय में रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे \”आकाश में जो सात तारे (सप्त ऋषि) नजर आते हैं उनके पास एक तारा अलग से अपनी आभा लिए दिखाई देता है यह वही है।\”
15 जनवरी 1882 के दिन जब नरेंद्र और रामकृष्ण देव की आपस में भेंट हुई। तब रामकृष्ण देव ने विवेकानंद (नरेंद्र) से कहा- \”ओह नरेन तू आ गया मैं तेरा कितने दिनों से इंतजार कर रहा था\” उस समय विवेकानंद को आश्चर्य हुआ कि रामकृष्ण देव हैं। उस दौरान उन्हें ऐसा लगा कि यह गुरु-शिष्य का आपसी मिलन है। तब रामकृष्ण से स्वामी विवेकानंद ने पूछा \”क्या आपने ईश्वर को देखा है?\”
यह प्रश्न सुनकर रामकृष्ण परमहंस ने सहज ही उत्तर दिया। \”हां मैंने ईश्वर को देखा है और तुम्हें भी दिखा सकता हूं।\” विवेकानंद के मन में जो शंका पैदा हो रही थी, उसका यहां समाधान मिल गया।
रामकृष्ण देव ने दूसरी भेंट में तो विवेकानंद को ईश्वर की अनुभूति भी करवा दी। जिसके लिए वह लंबे समय से लालायित थे। रामकृष्ण देव ने विवेकानंद के शरीर से अपना दाया पैर स्पर्श कराया। उस स्पर्श की अनुभूति से उनको ऐसा लगा कि वे स्वयं शून्य में विलीन हो रहे हैं और समस्त ब्रह्मांड स्वयं के अस्तित्व के साथ तीव्रता से घूमता हुआ, सभी वस्तुओं को अपनी चपेट में लेने वाले शुन्य में उभर रहा है। इस अनहोनी चेतना को विवेकानंद सहन नहीं कर सके, वह चीखते हुए कहने लगे। यह मेरे साथ क्या हो रहा है। मुझ पर माता-पिता और परिवार की जिम्मेदारी है। तब रामकृष्ण देव ने अपना पैर विवेकानंद के शरीर से हटा लिया। उस समय उन्हें लगा कि कुछ विलक्षण ही हुआ और उन्होंने इस बात को माना कि ईश्वर दर्शन (साक्षात्कार) संभव है।
इतने पर भी विवेकानंद संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने एक दिन रामकृष्ण देव की परीक्षा ले ली। रामकृष्ण देव अपने कमरे से बाहर थे, तब विवेकानंद ने ₹1 रूपये का सिक्का, उनके बिस्तर के नीचे छिपा दिया। बाद में जब रामकृष्ण देव वापस लौटे, तो सहज भाव से बिस्तर पर बैठ गए। तुरंत ही वह उछल पड़े, मानो उन्हें किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो। उन्होंने शीघ्रता से अपने बिस्तर की चादर को हटाया और वहां से एक रुपए के सिक्के को पाकर आश्चर्यचकित हो गए। रामकृष्ण देव ने विचलित भाव से पूछा- किसने यहां सिक्का रख दिया है ? विवेकानंद जो कि अपने गुरु की पीड़ा देख रहे थे ने तुरंत अपनी गलती को स्वीकार किया और कहा मैंने ही आपकी धन की विरक्ति भावना को परखने के लिए ऐसा किया था इसके बाद तो गुरु-शिष्य का प्रेम और बढ़ गया।
विवेकानंद कहा करते थे किसी को जब तक ठोक-बजाकर, मन-बुद्धि से स्वीकार न करें तब तक उसे स्वीकार न करो। यही कारण था कि उन्होंने ईश्वर की अनुभूति और गुरु का धन के प्रति वैराग्य भाव की परीक्षा तक लेनी पड़ी। तब जाकर उन्होंने रामकृष्ण देव को अपना गुरु स्वीकार किया। अपने पिता की अचानक मृत्यु के कारण विवेकानंद के परिवार में आर्थिक संकट पैदा हो गया। तब उन्होंने अपने गुरु रामकृष्ण देव से अपने परिवार के भरण-पोषण की बात बताई और रामकृष्ण देव से कहा कि वह उनकी ओर से मां काली से कुछ भी मांग ले, ताकि परिवार की निर्धनता से मुक्ति मिल सके। लेकिन रामकृष्ण देव ने उनसे कहा कि वे स्वयं मां काली के पास जाकर अपनी मांग (प्रार्थना) कर सकते हैं। विवेकानंद तीन बार मां काली के मंदिर में गए। वहां उन्हें मां के साक्षात दर्शन भी हो गए। हर बार मां काली के सामने अपने परिवार के दुख को भी कम करने की प्रार्थना का प्रयास किया लेकिन अपने परिवार के आर्थिक कष्ट की बात को भूल वह मातेश्वरी से तीनों बार – \”मुझे ज्ञान ,भक्ति दो, वैराग्य दो\” की ही प्रार्थना करते जबकि मां के सामने आने से पूर्व वह दृढ़संकल्पित थे कि वह अपने आर्थिक संकट की मांग करेंगे। किंतु ऐसा न कर सके। क्योंकि वह तो दूसरे कार्य के निमित्त इस धरती पर आए थे। भला सांसारिक समस्या उनके आगे तुच्छ थी। मां की कृपा से और रामकृष्ण देव के सहयोग से परिवार का आर्थिक संकट भी बाद में निपट गया।
स्वामी विवेकानंद में ईश्वर के प्रति व्याकुलता थी जिसके कारण ईश्वर का साक्षात्कार उन्हें हुआ। उन्हें अपने इस संसार में आने के प्रयोजन का भान भी राम कृष्ण के द्वारा स्पष्ट हो गया ? और फिर उनके बताए मार्ग का उन्हें आत्म बोध हुआ। जिसके लिए वह सतत प्रयास करके संपूर्ण संसार में वैदिक सनातन धर्म और हिंदू मत की ध्वजा को फहराने में सफल भी रहे। आपने कहा था- \”कि हमें कुछ समय के लिए सभी देवी-देवताओं को भुलाकर एकमात्र राष्ट्र देव यानी भारत माता की आराधना करनी चाहिए।\”

– श्री राजेंद्र जी श्रीवास्तव

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