मारवाड़ केसरी दुर्गादास राठोड की पुण्यतिथि पर पढ़िए महान देशभक्त की कहानी

यह बात उस समय की है जब पूरे देश में इस्लामी आक्रांता औरंगजेब हिंदुओं पर वज्रपात कर रहा था। दिल्ली के निरंकुश शासक के इशारों पर सृजन और निर्माण की इस भारत भूमि पर केवल रक्तपात और विध्वंस का घिनौना खेल खेला जा रहा था।
ऐसे विकट समय की आहट से कुछ वर्ष पूर्व जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह जी राठौर के मंत्रिमंडल में करणोत के ठाकुर श्री आसकरण सिंह जी राठौर व उनकी पत्नी नेत कँवर जी के घर जोधाणा से 45 किलोमीटर दूर सालवा कलाँ गाँव में 13 अगस्त 1638 को एक धीर-गंभीर बालक का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया दुर्गादास। अपने पिता की भाँति बालक दुर्गादास भी अपनी मातृभूमि मारवाड़ के लिए बड़े होकर एक समर्पित योद्धा बने और जोधपुर राज्य की सेना में भर्ती होकर समय के साथ बड़े अधिकारी बने। 1678 में महाराजा जसवंत सिंह जी की मृत्यु के बाद औरंगजेब मारवाड़ को हड़पना चाहता था और इसलिए उसने 36 लाख रुपये लेकर स्व. महाराजा जसवंत सिंह जी के भतीजे और अपने विश्वस्त इन्द्र सिंह को जोधपुर का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
वीर दुर्गादास व अन्य सभी राठौर राजपूत सरदार इस बात से बहुत निराश हुए क्योंकि स्व. महाराज जसवंत सिंह जी की मृत्यु के समय उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थीं और उन दोनों ने कुछ समय पश्चात एक-एक बालक को जन्म दिया था जिसमें से एक की जन्म के समय ही मृत्यु हो गई जबकि दूसरा बालक जीवित रहा जिसका नाम था अजीत सिंह राठौर। न्यायसंगत यह था कि बालक अजीत सिंह को उत्तराधिकारी घोषित किया जाता जबकि औरंगजेब ने गलत नियत से इन्द्र सिंह को उत्तराधिकारी घोषित किया। जोधपुर राज्य के न्यायप्रिय राजपूत सरदारों ने योजना बनाई और कुछ चुनिंदा सरदार दुर्गादास जी के नेतृत्व में बालक अजीत सिंह को लेकर दिल्ली गए और इस अन्याय के बारे में औरंगजेब से बात की।
औरंगजेब ने शिशु अजीत सिंह को मारवाड़ का उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए एक शर्त रखी और वह यह थी की जोधपुर राजमाता अपने बालक अजीतसिंह के साथ इस्लाम स्वीकार कर ले। जब दुर्गादास और अन्य राजपूत सरदारों ने यह बात सुनी तो उनके रक्त में ज्वार आ गया परंतु वह समय चतुराई दिखाने का था। वे चुपचाप छल से औरंगजेब के चंगुल से निकल कर दिल्ली से जोधपुर के लिए रवाना हो गए। मुगल सेना को जब इसका भान हुआ तो वो दुर्गादास और राजपरिवार की महिलाओं तथा बालक अजीत सिंह का पीछा करने लगी। पूरे रास्ते में छोटी-मोटी लड़ाइयाँ हुई और जोधपुर की ओर से रणछोड़ सिंह जी राठौर अपने 70 वीर योद्धाओं के साथ दिल्ली से जोधपुर तक की इन लड़ाइयों में वीरगति को प्राप्त हुए। अंत में बालक अजीत सिंह के साथ वीर दुर्गादास राठौर जोधपुर पहुँचे और उसके बाद अगले लगभग 30 वर्षों तक मारवाड़ के रक्षक बनकर उन्होंने मुगलों के साथ छापेमार युद्ध किया, उत्कृष्ट कूटनीति व राजनीति का परिचय दिया और मारवाड़ को मुस्लिमों के हाथ जाने से बचाये रखा। वीर दुर्गादास के बारे में इतिहासकार कर्नल जेस टॉड लिखते हैं कि ‘उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ निश्चय को पीछे हटा सकी, बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमें राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी’
वर्षों तक अपनी सूझबूझ व चतुराई से कभी युद्ध तो कभी संवाद से मुगल आक्रांता औरंगजेब से जोधपुर राज्य को बचाकर रखते हुए उन्होंने महाराजा अजीत सिंह जी को उनका राज्य व मान-समान पुन: दिलवाया। अंततोगत्वा वही हुआ जो हमेशा से होता आया है। महाराजा बन चुके अजीत सिंह ने बहकावे मे आ कर अपने सबसे अनन्य और चिंता करने वाले विश्वासपात्र रक्षक पर अविश्वास किया और उस ज्ञानी-पराक्रमी व्यक्ति ने उसी दिन मारवाड़ का त्याग कर दिया। वे मेवाड़ से होते हुए उज्जैन चले आए। घोड़े पर ही अपना जीवन व्यतीत करने लगे। भगवान महाकाल और क्षिप्रा मैया को अपना जीवन समर्पित वह योद्धा एक सन्यासी की तरह अपने जीवन के अंतिम क्षण तक उज्जैन में रहा और वहीं अंतिम साँस ली। भक्ति, शौर्य, सूझबूझ और चतुराई के साथ अपने राज्य की रक्षा करना और जिस माटी में जन्म लिया उसका ऋ ण उतारना भला कोई वीर दुर्गादास जी राठौर से सीखे

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