भारतीय स्वाधीनता के प्रेरणापुंज एवं प्रिय नेता थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस

भारत के प्रथम प्रधान नेताजी सुभाषचंद्र बोस

देश की स्वतंत्रता के आंदोलन को जो व्यक्तित्व सबसे अधिक प्रभावित करता है, वह नेताजी सुभाषचंद्र बोस हैं । नेताजी का व्यक्तित्व ओर कृतित्व आज भी सबको अपनी और आकर्षित करता है । लोग सुभाषचंद्र बोस को भारतीय स्वतंत्रता के एक कुशल राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में ही जानते है, लेकिन वह एक सर्वांग पुरुष थे । वह महान सेनापति, वीर सैनिक , विश्व प्रसिद्ध राजनेता, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी थे। उनके हृदय में अहिंसा थी तो दूसरी ओर देशहित में जरूरत पड़ने पर हिंसा का मार्ग चुन लेने में संकोच न था। श्रीमद्भगवत गीता में लिखा है “अहिंसा पर्मोधर्म:, धर्म हिंसा तथैव च”। यह दोनों ही बातें उनके व्यक्तित्व में दिखाई देती हैं। उनके विचार जो उन्होंने समय-समय पर अपने भाषण या पत्रों के माध्यम से व्यक्त किए, उससे पता चलता है कि वह एक युगदृष्टा थे । स्वतंत्रता के पश्चात भारत कैसा होगा इसकी उनको स्पष्ट कल्पना थी। नेताजी की दृष्टि में , राज्य प्रणाली, सशक्त केन्द्रीय शासन, भारत की राष्ट्रीय सेना, सभी के लिए राजनीतिक शिक्षा, अखण्ड भारत, राष्ट्र विरोधियों का दमन, वैज्ञानिक सोच, कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा व्यवस्था, वित्त प्रबंधन, वैदेशिक नीति जैसे अनेक विषयोँ की स्पष्ट कल्पना थी । सुभाषचंद्र बोस भारतीयों के प्रेरणा पुंज और प्रिय नेता थे इसलिए उन्हे सभी नेताजी कहकर बुलाते थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का सपना भारत को जैसा बनाने का था , वैसा भारत बनाने में हम तभी सफल हो सकेंगे जब उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व को आज की पीढ़ी को बता सकें ।
गोपाल प्रसाद व्यास ने सही कहा है –
“वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे,
ये धूमिल अभी कहानी है।
हमने तो उसकी नयी कथा,
आज़ाद फ़ौज से जानी है।।”
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में हुआ था । पिता कटक के प्रसिद्ध वकील थे और अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर की उपाधि से सम्मानित किया था। उन्होंने अंग्रेजों के दमनचक्र के विरोध में ‘रायबहादुर’ की उपाधि लौटा दी थी । इसका सुभाष के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा ओर उनके मन में अंग्रेज़ों के प्रति कटुता उत्पन्न हो गई, उन्होंने अंग्रेजों को भारत से खदेड़कर भारत को स्वतंत्र कराने का संकल्प ले लिया।
सुभाष ने मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 1916 में दर्शनशास्त्र में बीए करते समय किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हुआ तो सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व सम्भाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज से उन्होंने 1919 में बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस करें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में उन्हें यह परीक्षा पास करनी थी। 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड जाकर 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त कर सुभाष बाबू ने आईसीएस पास की। इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि “मेरे मन और आत्मा में तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों का गहरा प्रभाव है, ऐसे में आईसीएस बनकर अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पाऊंगा ?” इसके उत्तर में जब उन्हें अपनी माँ प्रभावती का यह पत्र मिला कि “परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे पर उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।” तब उन्हें अपना मार्ग स्पष्ट हो गया और जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास की डिग्री के साथ भारत लौट आये। इस बात पर उनके पिताजी ने भी उनका मनोबल बढ़ाते हुए कहा- “जब तुमने देशसेवा का व्रत ले ही लिया है, तो कभी इस पथ से विचलित मत होना।”
20 जुलाई 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र के बीच पहली मुलाकात हुई। गाँधी जी ने उन्हें कोलकाता जाकर चितरंजन दास के साथ काम करने की सलाह दी। उन दिनों गाँधी जी ने अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन चला रखा था। दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे , सुभाषचंद्रजी उनके सहयोगी हो गए। विधानसभा में अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिये कोलकाता महापालिका का चुनाव दासबाबू ने स्वराज पार्टी से लड़कर जीता और महापौर बने। उन्होंने सुभाषचंद्र को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषचन्द्र ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता में सभी मार्गो के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये। इससे सुभाषचंद्र देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये।
1925 में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी को फाँसी होने के बाद सुभाषचन्द्र फूट-फूट कर रोये एवं उनके शव को माँगकर उनका अन्तिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार को लगा सुभाषचन्द्र ज्वलंत क्रान्तिकारियों से सम्बन्ध ही नहीं रखते है बल्कि उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी को आधार मानकर अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषचन्द्र को गिरफ़्तार किया और अनिश्चित काल के लिये माण्डले जेल भेज दिया। माण्डले जेल में रहते समय सुभाषचंद्र की तबीयत बहुत खराब हो गयी। परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी कि जेल अधिकारियों को यह लगने लगा कि वह कारावास में न मर जाएं। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाषचन्द्र की जेल में मृत्यु हो इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया।
1927 में साइमन कमीशन के विरोध में कोलकाता में सुभाषचन्द्र ने आन्दोलन का नेतृत्व किया। सुभाषचंद्रजी पूर्ण स्वराज चाहते थे परंतु गाँधीजी पूर्ण स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे। 1928 के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में कोलकाता में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक वर्ष का समय दिया जाए। अगर एक वर्ष में अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। जब 1930 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ तो यह तय किया गया कि 26 जनवरी स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायेगा । 26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाषचंद्र ने एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व किया जिसमें पुलिस ने लाठी चार्ज कर उन्हें घायल कर जेल भेज दिया। गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता कर सुभाषचंद्र सहित सभी कैदियों को रिहा करवा दिया।
1932 में सुभाषचन्द्र को फिर से कारावास हुआ। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबीयत खराब होने पर चिकित्सकों की सलाह पर सुभाषचंद्र को इलाज के लिये यूरोप भेजा गया। यूरोप में उन्होंने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य निरंतर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले ओर उनसे भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता का वचन लिया । 1934 में सुभाषचंद्र को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने का समाचार मिला। समाचार सुनते ही वह हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और पुनः यूरोप भेज दिया। परिस्थितियां अनुकूल होने पर वह स्वदेश लौट आए ओर पुनः कांग्रेस के कार्य में सक्रिय हो गए।
कांग्रेस में कार्य करते समय सुभाषचन्द्र बोस को कई प्रकार के द्वंद्वों से गुजरना पड़ा। सन 1938 कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाषचन्द्र बोस को चुना गया । इस अधिवेशन में सुभाषचन्द्र का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी रहा। किसी भी भारतीय राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। द्वितीय विश्वयुद्ध को अवसर मानकर सुभाषचंद्र स्वतन्त्रता संग्राम तीव्र कर अंग्रेजों की इस कठिनाई का फायदा उठाना चाहते थे परन्तु गाँधीजी इससे सहमत नहीं थे। गाँधीजी ने सुभाषचंद्र को अध्यक्ष चुना तो था परंतु उन्हे सुभाषचंद्र की कार्यपद्धति समझ नहीं आई। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषचन्द्र को ही अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे। 1939 का कांग्रेस वार्षिक अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं हुए ओर उनके साथियों ने भी सुभाषचंद्र को कोई सहयोग नहीं किया। अधिवेशन के बाद सुभाषचन्द्र ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गाँधीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाषचन्द्र ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। 3 मई 1939 को सुभाषचन्द्र ने कांग्रेस में रहते हुए ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ नाम से नई पार्टी की स्थापना की। सितम्बर 1939 में ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने पर उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे अपनी मुक्ति के लिये आंदोलन तेज कर देना चहिए। 8 सितम्बर 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिये सुभाषचंद्र को विशेष आमन्त्रित कर काँग्रेस कार्य समिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर काँग्रेस यह काम नहीं करती हैं, तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा। अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था, सुभाषचंद्र जी की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। इसके माध्यम से उन्होंने यह सन्देश दिया था कि “जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे और हम स्वराज्य लेकर ही दम लेंगे।” इस दौरान सुभाषचंद्र विभिन्न दलों के प्रमुख नेता डॉक्टर अम्बेडकर, बैरिस्टर सावरकर आदि से मिले थे । डॉक्टर हेडगेवार उनके पुराने परिचित थे। उनका अनुशासनबद्ध संगठन – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ , सुभाषचंद्र को ज्ञात था । डॉक्टर जी से मिलने वह नागपुर गए परन्तु डॉक्टर जी उस समय मृत्युशय्या पर थे । कुछ समय पश्चात अंग्रेज सरकार ने सुभाषचंद्र सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषचंद्र जेल में निष्क्रिय नहीं रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाषचंद्र युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबन्द कर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया। नजरबन्दी से निकलने और सीमापार जाने के लिये सुभाष बाबू ने एक गुप्त योजना बनाई । उन्होंने अपनी दाढ़ी-मूछें बढ़ा लीं, पठान जैसे कपड़े सिलवाए। उन्होंने छद्मनाम के भेंटपत्र भी छपवा लिए – ‘ मोहम्मद जियाउद्दीन , प्रवासी प्रतिनिधि , जबलपुर नाम रखकर एक रात अंग्रेजों को चकमा देकर निकल गए। ‘ 17 जनवरी 1941 की मध्यरात्रि में 38/2 एलगिन रोड पर एक मोटरकार आई जिसमें वह सवार हो गए। गाड़ी पहले धनबाद और वहाँ से गोमो स्टेशन पर पहुँची। वहाँ से वे कालका मेल में सवार होकर पहले दिल्ली फिर पेशावर और वहाँ से भगतराम तलवार के साथ काबुल चले गए। मार्ग में अनेक संकटों का मुकाबला करते हुए भारत की सीमा के बाहर पहुँचकर उन्होंने मातृभूमि को प्रणाम किया और धूलि मस्तक पर लगाते हुए कहा – ‘ वन्दे मातरम् ‘ । भगतराम के मन में सुभाष बाबू को देखकर विचार आया – ” पैदल , खच्चर या सामान ढोने वाले ट्रक पर बैठकर ये मस्ती में चल रहे हैं । कहीं भी बैठते – सोते हैं , जो रुखी-सूखी मिलती है, मजे से खाते हैं, कभी कोई शिकायत नहीं करते। यह तो साक्षात कर्मयोगी महापुरुष हैं।”


काबूल पहुंच कर सुभाषचंद्र बोस ने सोवियत रूस के दूतावास से संपर्क करना प्रारंभ किया पर सफलता न मिलने पर इटली के दूतावास के माध्यम से वह इटली, मास्को होते हुए जर्मनी पहुंचे। जर्मनी में वह एडोल्फ हिटलर से मिले और वहां की जेलों में बंद भारतीय सैनिकों को मुक्त कराकर ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन किया। नेताजी ने ‘आजाद हिन्द रेडियो बर्लिन’ प्रारंभ कर उस पर अपने संदेश प्रसारित किए। लोगों पर उनके भाषणों का जादू छाने लगा, जिससे नेताजी के विचारों से लोग प्रभावित होने लगे और उनकी ‘आजाद हिन्द फौज’ को सहायता मिलने लगी। नेताजी ने हर भारतीय के अंदर “भारत स्वतंत्र होगा” इसका विश्वास जागृत किया। इसी बीच उन्हें जापान से रासबिहारी बोस का पत्र प्राप्त हुआ जिसमें उन्हे सूचना मिली कि रासबिहारी जी ने जापान में भी ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन किया है। अधिक आयु होने के कारण वह चाहते थे कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस आगे उसका नेतृत्व करें। नेताजी इसके लिए तुरंत तैयार हो गए क्योकि जापान से भारत नजदीक था, जिससे भारत में अंग्रेजों की गतिविधि पर आसानी से नजर रखी जा सकती थी लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जर्मनी से निकलना आसान नहीं था। नेताजी हिटलर की सहायता से पनडुब्बी में सवार होकर, एक कठिन मार्ग से जिसमें अनेक खतरे थे, कुछ भी हो सकता था उसकी परवाह किए बगैर 90 दिन की जल यात्रा कर जापान पहुंचे।
नेताजी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सर्वोच्च सेनापति के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए “दिल्ली चलो!” का नारा दिया । नेताजी द्वारा दिया गया “जय हिंद” का जयघोष भारत का राष्ट्रीय जयघोष और जन जन का नारा बन गया था ।
21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना थी। पहली बार भारत के बाहर रहकर स्वतंत्रता आंदोलन चलाकर इतने देशो का समर्थन प्राप्त करना यह नेताजी की वैदेशिक नीति एवं उनके व्यक्तित्व का ही प्रभाव था। उनकी सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित 11 देशो ने मान्यता दी थी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप नेताजी की अस्थाई सरकार को दे दिए। नेताजी उन द्वीपों में गए और उनका नया नामकरण “शहीद” एवं “स्वराज” के रूप में किया।
जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना से बर्मा सहित इंफाल और कोहिमा में एक साथ मोर्चा लिया जिसमें कुछ हद तक सफलता मिली। 1944 में आज़ाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया ओर कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया किन्तु कोहिमा का युद्ध, भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।
12 सितंबर 1944 को रंगून के जुबली हॉल में शहीद यतीन्द्रदास के स्मृति दिवस पर नेताजी ने अत्यंत मार्मिक भाषण देते हुए कहा- ‘अब हमारी आजादी निश्चित है, परंतु आजादी बलिदान मांगती है। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा।” यही देश के नौजवानों में प्राण फूंकने वाला वाक्य था, जो भारत ही नहीं विश्व के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। हिरोशिमा ओर नागासाकी पर परमाणु हमलों के कारण जापान ने आत्म समर्पण कर दिया जिससे नेताजी का अपने जीवनकाल में ही भारत को स्वतंत्र कराने का स्वप्न अधूरा रहा गया।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के महाप्रयाण के पश्चात उनके प्रयास रंग लाए। अंग्रेजों ने अनुभव किया, समय अनुकूल नहीं है। आजाद हिन्द फौज पर चलाए गए मुकदमों ने विप्लवकारी स्मृतियां को पुनर्जीवित कर दिया था। नौसैनिक विद्रोह की चिंगारियां उड़कर सुदूरवर्ती छावनियों तक पहुंच रही थीं। उनके समर्थन में वायु सैनिकों ने भी हड़ताल की। पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी सरकार का सहयोग नहीं कर रहे थे। इसके बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने यह कहते हुए कि “अब अधिक दिनों तक भारत में राज्य करना संभव नहीं इसलिए जल्द से जल्द भारत को स्वतंत्र कर देना चाहिए ।” और भारत छोड़ने की घोषणा कर दी । इसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज भारत को छोड़ कर चले गए।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के द्वारा स्वतंत्रता के प्रयास और उनके योगदान को देश कभी नहीं भूल सकता, आज भी जन-जन के हृदय में नेताजी बसे हैं। जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका शहीद दिवस धूमधाम से मनाया जाता है। वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का यह मानना है कि सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु 1945 में हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त होने से नहीं हुई वह उसके पश्चात रूस में नज़रबन्द थे। यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से सम्बंधित दस्तावेज अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं किये ? उनकी मृत्यु से संबंधित दस्तावेज सार्वजनिक करना सरकार का कार्य है और यह यथा संभव शीघ्र ही करना भी चाहिए ।
किसी ने सही कहा हैं “व्यक्ति मर सकता है लेकिन उसके विचार नहीं, विचार उसकी मौत के बाद भी ज़िंदा रहते हैं और हज़ारों लोगों को प्रभावित करते हैं।” लेकिन यह सत्य है कि मां भारती के सपूत नेताजी सुभाषचंद्र बोस राष्ट्रप्रेम की ज्योति जलाकर अमर हो गए।
परमवीर निर्भीक निडर,
पूजा जिनकी होती घर घर,
भारत मां के सच्चे सपूत,
हैं सुभाष चन्द्र बोस अमर ।

निखिलेश महेश्वरी
“प्रज्ञादिप” हर्षवर्धन भोपाल

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