
प्रतिदिन की तरह आज भी मैं कोरोना महामारी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने मंदसौर विभाग में चल रहे सेवा कार्यों के चित्र संग्रह का कार्य कर रहा था! तभी अचानक एक चित्र पर मेरी दृष्टि रुक सी गई ध्यान से देखा तो एक स्वयंसेवक तीन बच्चों से घिरे एक आदमी को जूते पहना रहा था दिखने में यह चित्र बहुत ही साधारण सा प्रतीत हो रहा था परंतु अगले ही क्षण यह चित्र तब असाधारण बन गया जब मेरी दृष्टि जूते पहना रहे स्वयंसेवक के नंगे पैरों पर पड़ी! अब चित्र के विषय में विस्तृत जानकारी लेने के लिए मन व्याकुल सा होता जा रहा था, फलस्वरूप मुझे चित्र भेजने वाले आशुतोष जी को फोन लगाया और चित्र के विषय में उन्होंने विस्तृत रूप से बताना शुरू किया तो मानो आंखों में पानी ठहर सा गया.. उन्होंने बताया कि मधुकर बस्ती के स्वयंसेवक डॉ विजय जी राठौड़ अपनी बस्ती में भोजन पैकेट बांटने के लिए घूम रहे थे तभी उनकी दृष्टि एक खाली पड़े मैदान में बहुत सी टूटी फूटी झोपड़ी जहां कुछ नाथ एवं महावत परिवारों ने अपना डेरा डाला हुआ था जिनके अधिकांश बच्चे निर्वस्त्र एवं नंगे पैर इधर-उधर घूम रहे थे! बहुत से बड़े बूढ़ों के पास भी सही से ना तो कपड़े थे और ना ही पाँव में कुछ चप्पल जूते थे! डॉक्टर विजय जी उस समय तो वहां से पैकेट बाँट कर आ गए परंतु छोटे-छोटे बच्चों एवं परिवार परिवारों का चित्र मन को विचलित कर रहा था कि इतनी तपती धूप में जहां बाहर निकलना भी आसान नहीं है वहां वह बच्चे व बड़े बिना कपड़ों के कैसे रह रहे होंगे! व्याकुलता इतनी बढ़ गई कि रात्रि में भी वह दृश्य आंखों के सामने आ रहा था! क्या करें स्वयंसेवक जो ठहरे किसी पीड़ित को देखकर वह कैसे शांत रह सकता है जब तक कि उस समस्या का समाधान ना निकाल ले! प्रातः सर्वप्रथम उन्होंने अपनी टोली से अपनी व्याकुलता के विषय में चर्चा की और यह तय हुआ कि अपनी मधुकर बस्ती के घरों से कपड़े व जूते चप्पल एकत्रित कर बस्ती में बाटेंगे अगले दिन बस्ती व नगर के सभी स्वयंसेवक एकत्रित होकर उस स्थान पर पहुंचे! डॉ विजय जी के चेहरे पर एक अलग ही प्रकार की संतुष्टि देखने को मिल रही थी मानो उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो रही थी टोली ने बच्चों व बड़ों को आवश्यकतानुसार कपड़े व जूते चप्पल बाँटना प्रारंभ किया! बच्चों व परिवारों का उत्साह देखने को ही बन रहा था, तभी एक टूटी फूटी झोपड़ी के सामने हम जाकर रुके उस परिवार के बच्चों को कपड़े व जूते चप्पल पहनाने के उपरांत उस परिवार के एक बंधु ने उठकर कहा भाई जी मेरे पांव को भी पहनने को कुछ मिल जाता तो ठीक रहता जरा देखिए ना कुछ मिल जाए तो इतना कहते ही हमने अपनी झूले में ढूंढना शुरू किया परंतु उन बंधुओं के लिए उपयुक्त कुछ भी नहीं था यह देखकर विजय जी ने कहा ऐसे कैसे संभव है? सही से देखिए ना कुछ तो मिलेगा मैं देखता हूं एक बार पुनः यह प्रयास में वह विफल हुए! यह सब देखकर वह बंधु भी निराश होकर पुनः अपने स्थान पर बैठने लगा तभी एक आवाज आई भाई रुको… यह पहनकर देखना तो हमने पलट कर देखा तो डॉ विजय जी अपने पैर से एक जूता निकालकर उस बंधु को दे रहे थे और उन्होंने बिना सोचे समझे अपने दोनों जूते उस बंधु के पाव में पहना दिए! यह दृश्य इतना मार्मिक था कि हम सभी वही स्थिर से हो गए! जितनी खुशी उस बंधु को जूते पहनकर नहीं हो रही थी उससे कहीं अधिक खुशी विजय जी को उसे जूते पहनाकर हो रही थी! धन्य है स्वयंसेवक एवं उसका सेवाभावी ह्रदय इसके बाद विजय जी ने पूरे दिन सेवा कार्य नंगे पैरों से ही किया! उस बंधु को जूते पहनने के उपरांत जो प्रसन्नता रूपी शीतलता मिली वही विजय जी के पांव को भी शीतलता प्रदान कर रही थी यह सब देख कर मन में सोचा कि पता नहीं किस रज से बनते हैं कर्मवीर….!