भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकार

लोकेंद्र शर्मा उज्जैन

पूरे विश्व में औपनिवेशिक अधिकारिता और साम्राज्यवाद को चलाने वाले अमेरिका ब्रिटेन डच और पुर्तगाली चर्च की मानसिकता से प्रेरित पूरे विश्व को एक झंडे के नीचे लाने की कोशिश करती समुद्री डाकुओं की सेनाओं द्वारा तीसरी दुनिया के सारे देश अर्थात अफ्रीका-भारत दक्षिण पूर्व एशिया जैसे प्राकृतिक संसाधनों और संस्कृति और सभ्यता से परिपूर्ण क्षेत्रों को लूटने लाखों स्थानीय निवासियों की हिंसा करने और उनका धर्म परिवर्तन करने के पश्चात प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध आपस में लड़ा पूरे विश्व के संसाधनों को तहस-नहस कर दिया इसके पश्चात एक नाटकीय रूप से 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से एक ऐसा प्रपंच तैयार किया गया ताकि तीसरी दुनिया के देशों को मानव अधिकार के नाम से और शोषित किया जा सके 10 दिसंबर 1948 को यही कार्य प्रारंभ हुआ ताकि आज सारे संसार में मानवाधिकार (human rights) को लेकर बतंगड़ खड़ा किया जाता है और इसकी होड़ में उपरोक्त कुछ देश शायद जानबूझकर या अपप्रचार के शिकार बनकर अपनी स्वार्थ-पूर्ति में दादागिरी का दृश्य उपस्थित करते हैं। खोखले दावों की प्रतीति भी उन्हें नहीं होती। प्राणिमात्र के ‘स्वत्व’ की भारतीय विचारधारा के संदर्भ में इसे समझना आवश्यक है।

मानवाधिकारों के पश्चिमी विचारों के मूल में एक मनोग्रंथि है। वहाँ सभी अधिकारों की चर्चा करते हैं। कानून की आवश्यकता के बारे में उनकी साधारण मान्यता है कि मानवाधिकार और समूह अर्थात समाज के अधिकारों में कोई विरोध है, इसलिए कानून के मूल में ऎसी धारणा पर यूरोपीय समाजवाद या साम्यवादी विचार दर्शन खड़ा है। पर हिंदु विधि एवं दर्शन का मूलभूत विश्वास है कि व्यक्ति और समाज ( जिसका वह एक घटक है) के अधिकारों में कोई अंतर्निहित प्रतिकूलता नहीं है। दोनों परस्परावलंबी हैं। सामाजिक विकास का मूलाधार उसके घटकों का विकास है, और मानव जीवन के गुणों के विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता अनिवार्य है। पर दूसरी ओर मनुष्य की सार्थकता समाज में है।

इससे भी बढ़कर हिंदु जीवन एवं दर्शन का विश्वास है कि मानव-मूल्यों के अनुरूप प्राणिमात्र के स्वत्व की रक्षा होनी चाहिए। यही नहीं, सभी प्राणियों व मानव का प्रकृति के साथ सामंजस्य होना चाहिए। यह पर्यावरण के संरक्षण का मूल मंत्र है।

प्राचीन भारतीय विधि में ‘स्वत्व’ शब्द का प्रयोग होता है। साधारणतया इसे ‘अधिकार’ का समानार्थी मानते हैं। पर इस शब्द का जोड़ शायद संसार की किसी भाषा में नहीं है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसका अर्थ होता है, ‘जो तुमको देय या तुम्हारा प्राप्य है’ अर्थात वही तुम्हारा ‘स्वत्व’ है। यह तुम्हारा अधिकार नहीं, पर स्वत्व होने के नाते सभी को वह तुमको देना होगा। स्वत्व उन सबके कर्तव्य से, जो तुम्हारे संबंध में आएँ, जुड़ा दायित्व है। यह अधिकारों को दूसरी ओर से देखने का उपक्रम है; एक अनूठी भारतीय कल्पना।

प्राचीन विधि में मुक्त वायु, जल, धरती और आकाश प्राणिमात्र के ‘स्वत्व’ कहे गए हैं। यह प्रत्येक प्राणी को दिया जाता है, क्योंकि उसने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है। इसको ‘ना’ नहीं करेंगे। यह स्वत्व प्राणों से जुड़ा है; जीवन में व्याप्त है। उसे अलग नहीं किया जा सकता। पिंड जहाँ बना है वहाँ उसका स्वत्व है। यह किसी के द्वारा प्रदत्त नहीं, और इसलिए किसी के द्वारा छीना भी नहीं जा सकता । अधिकार राजसत्ता तथा अंतरराष्ट्रीय समझौते के द्वारा प्रतिबंधित किए जा सकते हैं; पर ‘स्वत्व’ न तो प्राधिकार (Privilege) है, न नैसर्गिक अधिकार, क्योंकि वह अहरणीय है।

‘मुक्त वायु’ दैहिक स्वतंत्रता की कल्पना है। मेरे बचपन में मेरी माँ गाय को दुहने के समय के अतिरिक्त बाँधकर रखना गर्हित समझती थीं। उसे बाड़े में, जिसके किनारे गोशाला का छप्परयुक्त कमरा था, छोड़ देते थे। केवल अपराधी को ही निरूद्घ किया जा सकता था। पालतू चिड़ियों और पशुओं को पिंजरे या कठघरे में बंद रखना नीच कर्म माना गया।

इन अधिकारों की मान्यता मानव मूल्यों को चरितार्थ करने के लिए मनुष्य के लंबे संघर्ष के बाद हुई है। मानव अधिकार का विचार अनेक विधिक प्रणालियों में पाया जा सकता है। प्राचीन भारतीय विधिक प्रणाली, जो विश्व की सबसे प्राचीन विधिक प्रणाली है, इन अधिकारों की संकल्पना नहीं थी, केवल कर्तव्यों को ही अधिकथित किया गया था। यहाँ के विधि शास्त्रियों की मान्यता थी कि यदि सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करने तो सभी के अधिकार संरक्षित रहेंगे। प्राचीन भारत के धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों की विशाल संख्या में लोगों के कर्तव्यों का ही उल्लेख है। धर्म एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ बहुत विस्तृत है किन्तु उसका एक अर्थ कर्तव्य भी है। इस प्रकार सारे धर्मशास्त्र धर्मसंहिताएँ हैं, अर्थात कर्तव्य संहिताएँ हैं। इसलिए मनुस्मृति को मनु की संहिता भी कहा गया है। मनुस्मृति के अध्यायों के शीर्षकों को देखने से ही ज्ञात हो जाएगा कि वे राजा को सम्मिलित करते हए समाज के विभिन वर्गों एवं व्यक्तियों के कर्तव्यों का उल्लेख करते हैं।

इस प्रकार प्राचीन भारतीय विधिनिर्माताओं ने केवल कर्तव्यों की ही बात सोची और अधिकार के बारे में उन्होंने कदाचित ही कुछ कहा। उन्होंने कर्तव्य पालन को स्वयं के विकास के लिए अनिवार्य बनाकर, कर्तव्य की कठोरता को समाप्त कर दिया।
इसीलिए भारतीय धर्म ग्रंथ कहते हैं। जब राजा, प्रजा, पुत्र, पिता, मित्र, सैन्य, सभी अपने कर्तव्यों का उचित प्रकार से पालन करें तो स्वाभाविक है, सभी के अधिकार तो स्वयं ही संरक्षित हो जाएंगे यही है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानव अधिकार
अवधारणा और आज पूरे विश्व के लिए भारत के प्राचीन ग्रंथ मानव अधिकार संरक्षण के सबसे मूल्यवान ग्रंथ हैं। आइए भारत के नेतृत्व में पूरे विश्व को मानव अधिकार प्रदान करें भारत माता की जय

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