गीता -: सदैव प्रासंगिक

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रत्येक श्लोक में ज्ञान का अनूठा प्रकाश है। मानव जीवन की इस उत्कृष्टतम आचार संहिता की विशिष्टता यह है कि अमन का यह संदेश युद्ध की भूमि से दिया गया है। किंकर्तव्यविमूढ़ मनुष्य को आत्मकल्याण का पथ सुझाकर भटकाव से बचाने वाले इस शास्त्र में किसी पंथ विशेष की नहीं, अपितु विश्व मानव के हित के लिए बुद्धि, कर्म, ज्ञान, योग व आत्मतत्व की तथ्यपूर्ण चर्चा मिलती है। श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के छठे खंड “भीष्म पर्व” का वह हिस्सा है, जो वार्तालाप मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण व मोहग्रस्त अर्जुन के मध्य हुआ था। इसीलिए इस दिन को मोक्षदा एकादशी तथा गीता जयंती के रूप में भी जाना जाता है। गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी है। इसकी शिक्षाएं किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए उपयोगी हैं। उपादेयता की दृष्टि से इन सर्वकालिक सूत्रों पर गहराई से विचार करने से प्रतीत होता है कि मानो ये उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने आज की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ही दिए हैं।

ज्ञान,भक्ति व कर्म की अनूठी त्रिवेणी
गीता साधारण कर्मवाद को कर्मयोग में परिवर्तित करने के लिए तीन साधनों पर बल देती है-1. फल की आकांक्षा का त्याग, 2. कर्त्तापन के अहंकार से मुक्ति, 3. ईश्वरार्पण। इन सूत्रों में वेदों एवं उपनिषदों का सार झलकता है। 18 अध्यायों के 700 श्लोकों में प्रवाहित इस अद्भुत ज्ञान गंगा का कोई सानी नहीं है; देश दुनिया के आध्यात्मिक मनीषी इस विषय पर एकमत हैं। इसमें परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले अनेक विश्वासों को तर्कपूर्ण मनोवैज्ञानिक ढंग से एक जगह गूंथकर मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया गया है। ज्ञान, भक्ति व कर्म की इस अनूठी त्रिवेणी को जितनी बार पढ़ा जाता है, इसके ज्ञान के नित नये रहस्य खुलते जाते हैं।  गीता कहती है-“योग: कर्मसु कौशलम्।” यानी कार्य के संग अनासक्त भाव ही निष्काम कर्म है। हमारे प्रत्येक कर्म के पीछे निहित उद्देश्य ही कर्मफल के रूप में हमारे सामने आता है और हमें उसको भोगना ही पड़ता है। गीता के इन सूत्रों पर पूरी निष्ठा से अमल करने से लक्ष्यसिद्धि सहज ही की सकती है। काबिलेगौर हो कि भारत की गुलामी के दौरान जब देशवासी विदेशी आक्रमणकारियों व अंग्रेजों के अत्याचारों से आक्रांत हो कराह रहे थे, 1857 की क्रान्ति विफल विफल चुकी थी। सम्पूर्ण भारत छोटे-छोटे वर्गो, टुकड़ों में बिखरा हुआ था। आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। उन्हीं दिनों भगवान कृष्ण का गीता का संदेश महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक व विनोबा भावे जैसे अनेक मनीषियों के अन्त:करण में प्रस्फुटित हुआ और वे भारत की स्वतन्त्रता के लिए कठोर साधनात्मक पुरुषार्थ में जुट गये।

स्वस्थ व सुदीर्घ जीवन का आहारशास्त्र  
कम ही लोग जानते होंगे कि निष्काम कर्म की प्रेरणा देने वाली मानवीय जीवन की यह सर्वोत्तम आचार संहिता स्वस्थ व सुदीर्घ जीवन की सर्वोत्कृष्ट आहार संहिता भी है। श्रीमद्भगवद्गीता में योगिराज श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि आहार शुद्ध होने पर ही अंत:करण शुद्ध होता है और शुद्ध अंत:करण में ही ईश्वर में स्मृति सुदृढ़ होती है तथा स्मृति सुदृढ़ होने से ही हृदय की अविद्या जनित सभी गांठे खुलती हैं। स्वस्थ शरीर और सुखी जीवन के लिए संतुलित आहार कितना आवश्क होता है; भगवद्गीता के छठे अध्याय के 17 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण इस तथ्य को आदर्श रूप में अर्जुन के सामने रखते  हैं। कृष्ण कहते हैं- ‘युक्ताहारविहारस्य युक्ताचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।’ अर्थात जिसका आहार और विहार संतुलित हो , जिसका आचरण अच्छा हो, जिसका शयन, जागरण व ध्यान नियम नियमित हो, उसके जीवन के सभी दु:ख स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।   

विदेशी विद्वानों की नजर में “गीता”
जानना दिलचस्प होगा कि भारतीय मनीषियों के अलावा अनेकों विदेशी विद्वानों ने गीता के महत्त्व को समझा और अपने जीवन में इसके सिद्धांतों को लागू किया। यह महान गीता का ही असर था कि ईसाई धर्म मानने वाले केनेडा के प्रधानमन्त्री मिस्टर पीअर टुडो गीता पढ़कर भारत आये। उन्होंने कहा कि जीवन की शाम हो जाए और देह को दफनाया जाए उससे पहले अज्ञानता को दफनाना जरूरी है और वे प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफा देकर गाय और गीता-उपनिषद लेकर एकांतवासी हो गये थे। इसी तरह सुप्रसिद्ध अमरीकी संत महात्मा थोरो का कहना था कि प्राचीन भारत की सभी स्मरणीय वस्तुओं में श्रीमद् भगवदगीता से श्रेष्ठ कोई भी दूसरी वस्तु नहीं है। गीता में वर्णित ज्ञान ऐसा उत्तम व सर्वकालिक है कि जिसकी उपयोगिता कभी भी कम नहीं हो सकती। इस तरह श्री एफ एच होलेम (इंग्लॅण्ड) का कहना है कि वे ईसाई होते हुए भी गीता के प्रति इतनी श्रृद्धा व आदर इसीलिए रखते हैं क्योंकि जिन गूढ़ प्रश्नों का समाधान पाश्चात्य लोग अभी तक नहीं खोज पाये हैं, उनका गीता में सदियों पहले शुद्ध और सरल तरीके से समाधान दिया गया है। इसीलिए गीता भारत का ऐसा अमूल्य व दिव्य खजाना है, जिसे विश्व के समस्त धन से भी नहीं खरीदा जा सकता। 

मानवीय प्रबंधन का वैश्विक ग्रन्थ  
श्रीमद्भगवद्गीता को मानवीय प्रबंधन के अद्भुत ग्रन्थ की वैश्विक मान्यता हासिल है। गीता के अनुसार किसी कार्य में समग्र रूप से निमग्न हो जाना ही योग है; मन, क्रम, विचार, भाव के साथ कार्य करते हुए भी उस कार्य के परिणाम से सदा मुक्त रहना; क्योंकि आसक्ति ही कर्म का बंधन बनती है। ऐसे ही तमाम अनमोल सूत्रों के कारण वर्तमान की घोर स्पर्धापूर्ण परिस्थितियों में गीता मानवीय प्रबंधन की कारगर कुंजी साबित हुई है। गीता में प्रतिपादित प्रबंधन सूत्रों का अनुसरण कर कोई भी व्यक्ति सहज ही अपनी उन्नति और विकास कर सकता है। यही कारण है कि आईआईएम से लेकर दूसरे मैनेजमेंट स्कूलों तक सभी में गीता को प्रबंधन की किताब के रूप में स्वीकार किया गया है।  

शैक्षिक पाठ्यक्रम में गीता
गीता सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान नहीं बल्कि समग्र जीवन दर्शन है जो समूची विश्व वसुधा को “सर्वे भवन्तु सुखिन:” का पाठ पढ़ाता है। इसलिए इसके पाठ्यक्रम में शामिल होने से नई पीढ़ी को न सिर्फ जीवन मूल्यों की शिक्षा मिलेगी वरन उनके व्यक्तित्व का भी संतुलित विकास होगा। यही वजह है कि देश के सभी विश्वविद्यालयों में योग के साथ यूजीसी की ओर से तैयार पाठ्यक्रम में गीता को सम्मिलित किया गया है। बताते चलें कि मूल्यपरक उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित करने वाले उत्तराखण्ड के देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति व जाने माने आध्यात्मिक चिंतक डॉ. प्रणव पण्ड्या तो स्वयं गीता की कक्षाएं लेते हैं। जानना दिलचस्प होगा कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा व गुजरात आदि कुछ राज्यों ने भी गीता के सूत्रों के बहुआयामी लाभों को समझकर अपने राज्य के शैक्षिक पाठ्यक्रम में गीता के साथ ही रामायण के प्रबंधन सूत्रों को शामिल कर सराहनीय कार्य किया है। गौरतलब हो कि जनवरी 2012 में जब मध्यप्रदेश के स्कूलों में गीता-सार पढ़ाए जाने के शासन के निर्णय के विरुद्ध कैथोलिक बिशप कौंसिल द्वारा मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी तो तथ्यों का अवलोकन करने के बाद कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि गीता मूलतः भारतीय दर्शन की पुस्तक है न कि भारत के हिन्दू धर्म की। इस दृष्टि से गीता के व्यावहारिक जीवन में उपयोगी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इससे जुड़े जो पाठ स्कूल की नैतिक शिक्षा की पुस्तकों में शामिल किये गये हैं, उन्हें धार्मिक या साम्प्रदायिक नजरिए से देखना गलत है।  गीता के दिव्य सूत्रों के नतीजों से उत्साहित होकर भारत ही नहीं अमेरिका, जर्मनी व नीदरलैंड जैसे कई विकसित देशों ने अपने देश के शैक्षिक पाठ्यक्रम में गीता को शामिल कर रखा है, जहां गीता का प्रशासकीय प्रबंधन के ज्ञान भंडार के रूप में अध्ययन-मनन किया जा रहा है। अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित सैटान हॉल विश्वविद्यालय में तो हरेक छात्र को गीता का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ना अनिवार्य है।  गौरतलब हो कि देश में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने सालों पहले ही “गीता” को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित करने की मांग की थी। श्रीमद्भगवदगीता उनकी प्रिय पुस्तक और उनकी प्रेरणा का मूलस्रोत थी।  

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