आखिर 10-11 जनवरी, 1966 के बीच की उस रात वास्तव में क्या हुआ होगा? तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद में एक कमरे के भीतर बेचैन देखे गए श्री लाल बहादुर शास्त्री की इस अवस्था की वजह क्या थी? वो क्या था, जिसने सुबह होने से पहले ही देश की राजनीति के दैदीप्यमान सितारे को अस्त कर दिया? शास्त्री जी कमजोर तो नहीं थे। उन्हें कमजोर आंकने वाले पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री अयूब खान भी 1965 के युद्ध में शास्त्री के दृढ़ निर्णयों का लोहा मानने पर मजबूर हो गए थे। खुद को दुनिया का चौधरी मानने वाला अमेरिका भी स्तब्ध था कि शास्त्री जी ने उसकी धमकी की परवाह किये बगैर पाकिस्तान को धूल चटा दी थी। अमेरिका ने कहा था कि यदि भारत ने पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाया तो वह भारत के लिए गेहूं की आपूर्ति बंद कर देगा। शास्त्री जी झुके नहीं। उन्होंने देशवासियों से सप्ताह में एक समय के व्रत की अपील की। इसे जनता का भारी समर्थन मिला। अमेरिका को मुंह की खाना पड़ी।
जब यह सब हो चुका था, तो फिर भला देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री को किस कारण से उस रात की बेचैनी का अपनी अंतिम सांस तक सामना करना पड़ा? कुलदीप नैयर ने कहा था कि ताशकंद समझौते को लेकर शास्त्री को आलोचना का सामना करना पड़ रहा था। उनकी सर्वाधिक निंदा इस बात के लिए की जा रही थी कि उन्होंने पाकिस्तान को हाजीपीर और विथवाल वापस कर दिए थे। यदि शास्त्री जी के तनाव की वजह यह थी तो फिर आश्चर्य है। क्योंकि यह तो उस समय के भारत की बात है, जो इससे पहले पूरा का पूरा तिब्बत चीन को सौंप चुका था। जिसने कश्मीर में कबायलियों के हमले के समय भारतीय सेना के पांव में बेड़ियां पहनाकर कश्मीर का एक बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के पास जाने दे दिया था। वह भारत, जिसमें शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने से पहले यह भी हुआ कि कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर इसे देश के लिए हमेशा की चुभन बना दिया गया। वही भारत, जहां वर्ष 1962 के युद्ध में हमारी नौसेना और वायुसेना को चीन के हमले का जवाब देने से रोक दिया गया था। परिणाम यह हुआ कि अरुणाचल प्रदेश की बेशकीमती जमीन अक्साई चीन के नाम से सारे देश को आज भी लज्जा का अहसास करवा रही है।
शास्त्री जी के कार्यकाल से पूर्व रणनीतिक और सामरिक रूप से ऐसे घटनाक्रमों के बाद क्या सचमुच हाजीपीर और विथवाल की वापसी इतना बड़ा मुद्दा बन सकता था कि उसके तनाव में किसी प्रधानमंत्री की ताशकंद समझौते के बारह घंटे के भीतर ही संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो जाए? यह पता लगाना बहुत आवश्यक है कि वह कौन सी शक्तियां या सोच थी, जिसने शास्त्री जी से पहले वाली प्रलयंकारी भूलों को भुला दिया। साथ ही यह तफ्तीश भी अनिवार्य है कि किन ताकतों या विचारधारा ने शास्त्री जी को इस समझौते के लिए मानसिक रूप से इतना तोड़ दिया कि अंततः उन्होंने खुद ही दम तोड़ दिया? यदि यह सामान्य मृत्यु है तो।
सवाल अनंत हैं और संदेह भी। देश के प्रधानमंत्री की मृत्यु हुई। किंतु उनके शव का पोस्टमार्टम करना जरूरी नहीं समझा गया। शास्त्री जी की जीवन संगिनी ललिता देवी आजन्म पति की मृत्यु के कारणों की जांच की मांग करती रहीं। ललिता देवी ने कहा था कि शास्त्री जी का शव नीला पड़ चुका था। शरीर पर फफोले थे। ऐसा तब होता है, जब मामला विष के सेवन का हो। लेकिन उनकी बात को क्यों अनसुना किया गया, यह समझ से परे है। फिर जब भारी दबाव में मामले की जांच शुरू हुई तो शास्त्री जी के निजी डॉक्टर आरएन सिंह तथा निजी सहायक रामनाथ की अलग-अलग हादसों में अकाल मौत हो गयी। यानी एक मृत्यु वाला मामला जांच शुरू होते ही तीन रहस्यमयी मृत्युओं वाले मामले में बदल गया। इसके साथ ही जांच कमजोर हुई और शास्त्री जी की मृत्यु के कारणों पर पड़ा पर्दा फिर कभी भी नहीं हट सका। यहां यह याद दिला दें कि जिस रात शास्त्री जी की मृत्यु हुई, उनका भोजन उनके खानसामे की बजाय जान मोहम्मद ने बनाया था। वही जान मोहम्मद, जिसे इस घटना के बाद राष्ट्रपति भवन में खानसामे की नौकरी दे दी गयी थी।
क्या शास्त्री जी किसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए संकट बन गए थे? वह प्रधानमंत्री पद पर आये तो पूरा माहौल ही बदल गया। प्रधानमंत्री के रूप में सच्चे भारतीय का दर्शन हुआ। यह अनपेक्षित या प्रायोजित नहीं था। देश ने देखा था कि इन्हीं शास्त्री जी ने रेल मंत्री रहते हुए एक रेल हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेकर मंत्री पद छोड़ दिया था। इस छवि को प्रधानमंत्री पद की चमक-दमक भी प्रभावित नहीं कर सकी।
कल्पना कीजिए उस व्यक्ति की सादगी की, जिसने प्रधानमंत्री होने के बाद भी कर्ज लेकर कार खरीदी। जिसने पहले अपने पूरे परिवार को एक दिन भूखा रखा, फिर सारे देश से राष्ट्र के हित में एक दिन का व्रत रखने का आह्वान किया। जिसके पास निजी संपत्ति के नाम पर लगभग कुछ भी नहीं था। शास्त्री जी प्रधानमंत्री के रूप में सच्चे भारतीय बनकर भारतीयों के हृदय में बस गए थे। उनकी मृत्यु पर उमड़ा अभूतपूर्व देशव्यापी शोक इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि शास्त्री जी ने अपनी सादगी और सज्जनता के दर्पण में एक प्रधानमंत्री के रूप में देश की जनता की अपेक्षाओं के प्रतिबिंब को साकार रूप प्रदान कर दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री पद से जुड़े कई आडम्बर और मिथक केवल एक साल और 216 दिन में तोड़ दिए थे। शास्त्री जी मन, वचन और कर्म से राजनीति और लोकनीति के बीच अद्भुत तदात्यमय स्थापित कर गए, उसे समझना किसी धार्मिक शास्त्र के अध्ययन जैसी विशिष्ट अनुभूति ही प्रदान करता है।
–रत्नाकर त्रिपाठी