देश को आजाद हुए 73 वर्ष हो चुके हैं किंतु आजादी का श्रेय कांग्रेस पार्टी के चंद नेताओं के नाम ही आता है जबकि वास्तविकता उससे उल्टी है। जिसे हमारे शिक्षाविद इतिहासकारों और राजनेताओं ने छुपाया है। देश से ब्रिटिश शासन उन क्रांतिकारियों के शौर्यपूर्ण क्रांतिकारी कार्य और आजाद हिंद सेना के बढ़ते कदम जिसका नेतृत्व रासबिहारी बोस ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सौंपा था उसको जाता है। किंतु देश को इन क्रांति वीरों की गाथा को गुमनाम करने और विरासत में अपने छद्म नामों की वाहवाही लूटने का काम कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं ने किया किंतु सच्चाई देर आए दुरुस्त आए आखिर सामने आती ही है। कथित रूप से आजाद कहा जाने वाला हमारा देश वास्तव में आज भी ब्रिटिश शासन के अधीन गुलाम है जिसके दस्तावेज देश के नागरिकों से छिपाए गए। सत्ता का हस्तांतरण यानी ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर 14 अगस्त 1947 जिस पर पंडित जवाहरलाल नेहरू और माउंटबेटन के हस्ताक्षर हुए यह सिद्ध करता है कि भारत 99 वर्ष के लिए गुलाम रहते हुए प्रशासन की बागडोर मात्र भारतीय चापलूस राजनेताओं के हाथों सौंपी गई है। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को पूर्व में ही इसका आभास सा हो गया था। उन्होंने अपने आलेख में लिखा था कि भारतवर्ष के इतिहास में हमारे प्रयत्नों का उल्लेख करना ही पड़ेगा किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतवर्ष की राजनैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक किसी प्रकार की परिस्थिति इस समय क्रांतिकारी आंदोलन के पक्ष में नहीं है। इसका कारण यही है कि भारतवासियों में शिक्षा का अभाव है वह साधारण से साधारण सामाजिक उन्नति करने में भी असमर्थ है। फिर राजनीतिक क्रांति की बात कौन कहे? राजनैतिक क्रांति के लिए सर्वप्रथम क्रांतिकारी संगठन ऐसा होना चाहिए की अनेक विघ्न तथा बाधाओं के उपस्थित होने पर भी संगठन में किसी प्रकार की त्रुटि ना आए सब कार्य यथावत चलते रहे। कार्यकर्ता इतने योग्य तथा पर्याप्त संख्या में होने चाहिए कि एक की अनुपस्थिति में दूसरे स्थान की पूर्ति के लिए सदा उपस्थित रहे। भारत वर्ष में कई बार कितने ही षड़यंत्रो का भांडा फूट गया और सब किया कराया काम चौपट हो गया। जब क्रांतिकारी दलों की यह अवस्था है तो फिर क्रांति के लिए उद्योग कौन करें? देशवासी इतने शिक्षित है कि वह वर्तमान सरकार की नीति को समझ कर अपने हानि लाभ को जानने में असमर्थ हो सके। वह यह भी पूर्णतया समझते हैं कि वर्तमान सरकार को हटाना आवश्यक है या नहीं साथ ही साथ उनमें इतनी बुद्धि भी होनी चाहिए कि किस रीती में सरकार को हटाया जा सकता है। क्रांतिकारी दल क्या है? इन सभी बातों को जनता की अधिक संख्या समझ सके क्रांतिकारियों के साथ जनता की पूर्ण सहानुभूति हो तब कहीं क्रांतिकारी दल को देश में पैर रखने का स्थान मिल सकता है यह तो क्रांतिकारी दल भी दल की स्थापना की प्रारंभिक बातें हैं रह गई क्रांति से वह तो बहुत दूर की बात है।
पंडित राम प्रसाद बिस्मिल अपनी अंतिम विजय पर फांसी के पूर्व लिखते हैं परमात्मा ने मेरी पुकार सुन ली और मेरी इच्छा पूरी होती दिखाई देती है। मैं तो अपना कार्य कर चुका मैंने मुसलमानों में से एक नवयुवक निकालकर भारतवासियों को दिखला दिया जो सब परीक्षाओं में पूर्णतया उत्तीर्ण हुआ। अब किसी को यह कहने का साहस ना होना चाहिए कि मुसलमानों पर विश्वास ना करना चाहिए। पहला तजुर्बा था जो पूरी तौर से कामयाब हुआ उन देशवासियों से यही प्रार्थना है कि यदि वह हम लोगों के फांसी पर चढ़ने से जरा भी दुखी हुए हो तो उन्हें यही शिक्षा लेनी चाहिए कि हिंदू मुसलमान तथा सब राजनीतिक दल एक साथ होकर कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि माने जो कांग्रेस तय करें उसे सब पूरी तौर से माने और उस पर अमल करें। ऐसा करने के बाद वह दिन बहुत दूर ना होगा जबकि अंग्रेज सरकार को भारतवासियों की मांग के सामने सिर झुकाना पड़े और यदि ऐसा करेंगे तब तो स्वराज्य कुछ दूर नहीं क्योंकि फिर तो भारतवासियों को काम करने का पूरा मौका मिल जाएगा।
हिंदू मुस्लिम एकता की हम लोगों की यादगार तथा अंतिम इच्छा है चाहे वह कितनी कठिनता से क्यों ना प्राप्त हो जो मैं कह रहा हूं वही अशफाक उल्ला खां का भी मत है क्योंकि अपील के समय हम दोनों लखनऊ जेल में फांसी की कोठरियों में आमने सामने कई दिन तक रहे थे आपस में हर तरह की बातें हुई थी। गिरफ्तारी के बाद से हम लोगों की सजा पढ़ने तक अशफाक उल्ला खान की बड़ी उत्कृष्ट इच्छा यह थी कि वह एक बार मुझसे मिल लेते जो परमात्मा ने पूरी कर दी। गिरफ्तारी की मुहिम में मात्र चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों की गिरफ्तारी से बचे थे बाकी 28 लोगों को आरोपी बता कर मुकदमा चलाया गया। 19 दिसंबर 1926 को पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में प्रातः 6:00 बजे फांसी दी गई। उनके साथी अशफाक उल्ला खां, रोशन राजेंद्र लहरी को भी फांसी दी गई। कई लोगों को काले पानी की सजा दी गई और कुछ को कुछ समय का कारावास की सजा प्राप्त हुई थी।
19 दिसंबर 1926 की सुबह बिस्मिल ने पूजा प्रार्थना से निवृत्त होने के बाद अपनी मां को पत्र लिखा पत्र में देशवासियों के लिए संदेश था – \”यदि किसी के मन में उमंग और अरमान जागे तो वे गांवों में जाकर किसानों की दशा सुधारे मजदूरी और श्रमिकों की उन्नति के प्रयत्न करें। मेरी अंतिम आरजू है कि किसी की घृणा तथा उपेक्षा की नजर से ना देखा जाए।\”
फांसी पर जाते वक्त बिस्मिल यह पंक्तियां गा रहे थे
\”मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे
बाकी ना मैं रहूं ना मेरी आरजू रहे
जब तक भी तन में जान, रगों में लहू रहे
तेरा हो जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।\”
– श्री राजेंद्र जी श्रीवास्तव