प्रकांड विद्वान् एवं भारतीय संविधान के विश्वकर्माओं में से एक भारत रत्न डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर जी के विचार भारत की सामाजिक विरासत का अंग हैं । बाबा साहेब के विचार भी उन्हीं की तरह समाज सुधारक हैं जिसने सदैव वंचितों के जीवन को उन्नत किया है । उन्होंने प्रत्येक धर्म की जीवन शैलियों और विचारों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया था । हिन्दू धर्म में कुछ शताब्दियों के लिए आई कुरीतियों के विरुद्ध मुखरता के साथ-साथ उन्होंने इस्लाम के कट्टरवादी नजरिए और ईसाई, बौद्ध एवं सिख पंथ की भी तुलनात्मक विवेचना की थी । लेकिन दुर्भाग्य से भारत के वामपंथियों ने उन्हें चयनित विचारों का ही प्रदर्शन करके नए-नए विमर्श खड़े कर दिए और अनुसूचित वर्ग को बाबा साहेब के विचारों से अलग कर दिया । बाबा साहेब का सम्पूर्ण जीवन अलग-अलग भागों में बंटा हुआ है । जिसमें उनकी दृष्टि सामयिक विषयों के आधार पर बदली भी है । यदि उनके जीवन के जन्म से मध्य काल तक की यात्रा को देखें तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उनसे बड़ा हिन्दुओं का हितैषी कोई नहीं था । यदि तत्कालीन शक्तियों द्वारा उनके विचारों का मंथन किया गया होता तो भारत आज कई तरह की समस्याओं से मुक्त होता । उन्होंने सदैव अनुसूचित वर्ग के संवर्धन के लिए निष्पक्ष होकर अपने विचार प्रकट किए जो आज समाज सुधार के क्षेत्र में भगवतगीता के रूप में देखे जाते हैं ।
बाबा साहेब इस तथ्य से परिचित हो चुके थे कि सभी मत-सप्रदायों में ऊँच-नीच और छुआछूत की जड़ें मौजूद हैं । बाबा साहेब ने अपनी पैनी दृष्टि से ईसाई पंथ और ईसाई मतान्तरण पर भी लेखन किया था । उनका मानना था कि भारत का ईसाई समाज अनुसूचित वर्गों के प्रलोभन या विवशता के आधार पर हुए मतान्तरण से ही बना है अर्थात यहाँ के ईसाई समाज में सर्वाधिक जनसँख्या उन्हीं की है जो पूर्व में हिन्दू अनुसूचित वर्ग की पृष्ठभूमि रखते थे । अतः उनका भी समय के साथ संवर्धन होना आवश्यक है । बाबा साहेब ने ईसाई बने अनुसूचित वर्ग के बंधुओं से सहानुभूति रखी थी क्योंकि कहीं ना कहीं वह यह जान गए थे कि मतान्तरण के बाद उनकी स्थिति और दयनीय हो चुकी है और भविष्य में उन्हें कई विषम परिस्थितियों से सामना करना पड़ेगा ।
बाबा साहेब ने ईसाई और हिन्दू धर्म का तुलनात्मक अध्ययन किया था और इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि से ईसाई पंथ कभी भी हिन्दू धर्म को परस्त नहीं कर सकता । वह लिखते हैं – “हिंदू धर्म तथा ईसाई धर्म के बीच शास्त्रार्थ के लिए कोई समान आधार नहीं होगा और जहां कोई समान आधार होगा भी, वहां हिंदू, सदैव ईसाई को मात दे सकता है। हिंदुओं तथा ईसाइयों के बीच शास्त्रार्थ के लिए कोई समान आधार नहीं हो सकता, उसका कारण यह है कि धर्म-विज्ञान और तत्व-ज्ञान के संबंधों के प्रति दोनों का दृष्टिकोण नितांत भिन्न है।“
बाबा साहेब बताते हैं कि जिस चमत्कारों के बल पर ईसाई धर्म अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के प्रयास करता है उसका अध्यात्मिक और वैज्ञानिक दर्शन पहले से ही हिन्दू धर्म में मौजूद हैं । अतः हिन्दू धर्म का धर्म-विज्ञान सरलता से ईसाई मत को मात दे सकता है । बाबा साहेब इस विषय को समझाते हुए लिखा है – “इस संबंध में यह नितांत प्रत्यक्ष है कि हिंदू धर्म-विज्ञान ईसाई धर्म-विज्ञान को मात दे सकता है। जिस प्रकार ईसाई धर्म तत्व-ज्ञान के अभाव के कारण ब्राह्मण और शिक्षित हिंदू वर्ग को आकर्षित नहीं कर पाता, ठीक उसी प्रकार हिंदू धर्म-विज्ञान में चमत्कारों की इतनी रेलपेल है कि तुलना में उसके आगे ईसाई धर्म-विज्ञान फीका पड़ जाता है। लगता है कि रोमन कैथोलिक पादरी फादर ग्रेगरी ने इस कठिनाई को अनुभव किया था।“
बाबा साहेब के अनुसार ईसाई पंथ का सिद्धांत समाज विज्ञान की दृष्टि से एक विनाश है । ईसाई उपदेश और उसका पाप पर आधारित सिद्धांत व्यक्ति को गुमराह करता है । वह व्यक्ति को मार्ग से भटका देता है और इसी का शिकार भारत का कथित अस्पृश्य समाज भी हुआ । भारत के अनुसूचित वर्ग को ईसाई मिशनरियों ने उनकी स्थिति का कारण अनुसूचित समाज के पाप बताए जबकि मूल कारण अनुचित सामाजिक और धार्मिक वातावरण होना चाहिए था । इसी सिद्धांत से गुमराह करते हुए ईसाई मिशनरियों ने अनुसूचित वर्ग का मतान्तरण करने में सफलता प्राप्त की । बाबा साहेब ने ईसाई पंथ के इस सिद्धांत पर लिखा है – “ईसाई धर्म सिखाता है कि व्यक्ति का पतन उसके मूल पाप के कारण होता है और किसी व्यक्ति को ईसाई क्यों बनना चाहिए, उसका कारण यह है कि ईसाई धर्म में पापों की क्षमा का वचन दिया गया है। इस सिद्धांत का धर्मविज्ञान-समस्त तथा सुसमाचार-सम्मत जो भी आधार रहा हो, पर इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि समाज-विज्ञान की दृष्टि से यह एक ऐसा सिद्धांत है, जिससे विनाश ही विनाश है। यह ईसाई उपदेश समाज-विज्ञान के लिए एक सीधी चुनौती है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि व्यक्ति के पतन का कारण उसकी प्रतिकूल परिस्थितियां हैं, न कि उसके पाप। यह निर्विवाद है कि समाज-विज्ञान का दृष्टिकोण सही दृष्टिकोण है और ईसाई सिद्धांत व्यक्ति को केवल गुमराह करता है। वह उसे गलत रास्ते पर भटका देता है। ठीक ऐसा ही अस्पृश्य ईसाई के साथ हुआ है। बजाए इसके कि उसे सिखाया जाता है कि उसके पतन का कारण गलत सामाजिक तथा धार्मिक वातावरण है और अपने सुधार के लिए उसे उस वातावरण पर प्रहार करना ही होगा, उसे जताया जाता है कि उसके पतन का कारण उसका पाप है।“
बाबा साहेब ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे अनुसूचित वर्ग के मतान्तरण से रुष्ट होते हुए लिखते हैं कि सेवाकार्य और शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाली ईसाई मिशनरियों ने सराहनीय कार्य तो किया है लेकिन अनुसूचित वर्ग की जीवन शैली का उत्थान करने में वह अक्षम रहे । जो स्थिति अनुसूचित वर्ग की पहले से ही थी वह ईसाई पंथ अपनाने के बाद भी रही । अर्थात वह ईसाई धर्म में भी ‘अस्पृश्य’ ही समझे जाते रहे । इस का अर्थ यह निकलता है कि ईसाई पंथ में मतांतरण करना अनुसूचित समाज के लिए व्यर्थ रहा । आंबेडकर जी इस स्थिति के लिए ईसाई मिशनरियों से प्रश्न पूछते हैं तथा साइमन कमीशन को दक्षिण भारत के ईसाई पंथ में मतान्तरित अनुसूचित वर्ग द्वारा दी गई एक ज्ञापन का भी हवाला देते हैं, जिसके अनुसार उनके साथ मतान्तरित हुआ उच्च वर्ग ईसाई बनने के बाद भी भेदभाव का व्यवहार करता है । आंबेडकर जी लिखते हैं – “ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा और चिकित्सा-सहायता के क्षेत्र में जो कार्य किया है, जहां तक वह अति उल्लेखनीय और प्रशंसनीय है, वहां अब भी एक प्रश्न है, जिसका उत्तर दिया जाना है, धर्मान्तरित की मानसिकता को बदलने की दिशा में ईसाई धर्म ने क्या हासिल किया है? क्या धर्मान्तरित अस्पृश्य का दर्जा बढ़ाकर ‘स्पृश्य’ का हो गया है? क्या धर्मान्तरित स्पृश्यों तथा अस्पृश्यों ने जात-पांत को तज दिया है? क्या उन्होंने अपने पुराने गैर-ईसाई देवी-देवताओं को पूजना छोड़ दिया है और क्या उन्होंने अपने पुराने गैर-ईसाई अंधविश्वासों को छोड़ दिया है? ये दूरगामी प्रभाव वाले प्रश्न हैं। उनका उत्तर दिया ही जाना चाहिए और इन प्रश्नों के जो उत्तर ईसाई धर्म दे सकता है, उन्हीं पर ईसाई-धर्म को भारत में टिकना अथवा गिरना होगा।“
एक अन्य स्थान पर बाबा साहेब लिखते हैं – “क्या ईसाई धर्म धर्म-परिवर्तन करने वाले को उस कष्ट और घृणित व्यवहार से बचा सकता है, जो अस्पृश्य के रूप में जन्में हर व्यक्ति का दुर्भाग्य रहा है? क्या कोई अस्पृश्य ईसाई बन जाने के बाद किसी सार्वजनकि कुंए से पानी ले सकता है? क्या उसके बच्चों को किसी पब्लिक स्कूल में दाखिला मिल सकता है?….मुझे पूर्ण विश्वास है कि इनमें से हर प्रश्न का उत्तर ‘ना’ में होगा। या यूं कहिए कि धर्म-परिवर्तन से धर्मान्तरित अस्पृश्य के सामाजिक दर्जे में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।“
आम्बेडकर जी ईसाई पंथ को भी जातिवाद से ग्रस्त पाते हैं । वे यह भी लिखते हैं कि ईसाई धर्म में भी मतान्तरित हुए नव-ईसाईयों के साथ रोटी और बेटी का व्यवहार नहीं होता । अर्थात ईसाईयों में भी विवाह और भोजन उंच-नीच और जाति देखकर होता था । वह लिखते हैं – “तथ्य यह है कि ईसाई धर्म को ग्रहण करने वालों के मन से जातिवाद की भावना को दूर करने में ईसाई धर्म विफल रहा है। स्पृश्यों तथा अस्पृश्यों के बीच विभेद को किसी कोने में रखा जा सकता है। चर्च का स्कूल सभी के लिए खुला हो सकता है। फिर भी इस बात को चुनौती नहीं दी जा सकती कि जातिवाद ईसाइयों के जीवन पर भी उतना ही छाया हुआ है, जितना कि हिंदुओं के जीवन पर।….उनमें आपस में रोटी व बेटी का व्यवहार नहीं चलता। हिंदुओं की भांति वे भी जातिवाद से ग्रस्त हैं।“
आम्बेडकर जी ईसाई पंथ में मतान्तरित हुए अनुसूचित वर्ग की दयनीय स्थिति का दोष ईसाई मिशनरियों को देते हुए यह बताने का प्रयास करते हैं कि ईसाई मिशनरियां का उद्देश्य मात्र इस वर्ग को ईसाई बनाना ही है , मिशनरियां इस वर्ग के उद्धार के विषय में विचार और दृष्टि नहीं रखती है । मिशनरियां यदि सामाजिक सेवाकार्य करना चाहती है तो उनका कर्तव्य अनुसूचित वर्गों का उद्धार करना होना चाहिए , लेकिन वह इस विषय में निष्क्रिय हैं । वह लिखते हैं – “ईसाई मिशनरियों ने कभी भी यह नहीं सोचा है कि यह उनका कर्तव्य है कि वे कार्य करें और धर्म-परिवर्तन के बाद भी अस्पृश्य के प्रति जो अन्याय होता हे, उसे दूर कराएं। निश्चय ही यह अति खेद का विषय है कि सामाजिक उद्धार के मामले में मिशन अति निष्क्रिय हैं। लेकिन इससे भी कहीं अधिक पीड़ाजनक ईसाई धर्म अंगीकर करने वाले अस्पृश्य की निष्क्रियता है। वह सर्वाधिक खेद का विषय है। वह उन्हीं असुविधाओं को भोगता रहता है, जिन्हें वह धर्म-परिवर्तन से पहले भोग रहा था।“
आंबेडकर जी ने ईसाई समाज का सूक्ष्मता से अध्ययन किया और उसके ढाँचे पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ईसाई समाज का शिक्षित वर्ग ईसाई समाज के उद्धार और विशेषकर अनुसूचित वर्गों के कल्याण का विचार नहीं रखा एवं ना ही किसी भी प्रकार की पिछड़ों के प्रति सहानुभूति रखता है । बाबा साहेब के अनुसार ईसाई पंथ के अस्पृश्यों का कोई भी हितैषी ईसाई समाज में नहीं हैं । अतः ईसाई समाज अस्पृश्यों के उद्धार के लिए किसी भी प्रकार का आन्दोलन करने में भीरुता प्रकट करता है । ईसाई समाज अस्पृश्यों और पिछड़ों के लिए संगठित नहीं हो सकता । बाबा साहेब ने लिखा है – “पढ़े-लिखे ईसाइयों के मन में संप्रदाय के हित-साधन और उसके लिए संघर्ष करने की कोई इच्छा है ही नहीं। मेरे विचार में उसका कारण यह है कि ईसाई संप्रदाय के भीतर शिक्षित वर्ग और अशिक्षित वर्ग के बीच कोई नातेदारी नहीं है। ईसाई संप्रदाय एक मिलाजुला खिचड़ी संप्रदाय हैं कहीं-कहीं वह स्पृश्यों और अस्पृश्यों के रूप में बंटा हुआ है। सर्वत्रा वह उच्च वर्ग और निम्न वर्गों में बंटा हुआ है। शिक्षित वर्ग अधिकांशतः स्पृश्य अथवा उच्च वर्ग से आया है। यह शिक्षित वर्ग ईसाइयों के निम्न अथवा अस्पृश्य वर्ग से कटा हुआ है और वह निम्न वर्ग के अभावों, पीड़ाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं से सहानुभूति नहीं रखता है। वह उनके हितों की उपेक्षा करता है। अतः अस्पृश्य ईसाइयों का कोई रहनुमा नहीं है। इसी कारण वे अपने प्रति हुए अन्यायों को दूर करने के लिए संगठित नहीं हो सकते।“
इसी तथ्य को बाबा साहेब एक अन्य स्थान पर प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं – “भारतीय ईसाई एक विश्रंखल सम्प्रदाय है। विश्रंखल शब्द विघटित से बेहतर शब्द है। उनमें बस केवल एक ही समानता है और वह है एक समान प्रेरणा स्रोत। इस एक समानता को छोड़कर अन्य सभी बातें उन्हें अलग-थलग रखती हैं। अन्य सभी भारतीयों की भांति ही ईसाई नस्ल, भाषा और जाति के कारण विभाजित हैं। उनके धर्म में उन्हें एकजुट करने की इतनी शक्ति नहीं है कि वह भाषा, जाति, नस्ल के अंतर को इतना पाट सकें कि वे विभेद मात्रा रह जाए। इसके विपरीत उन्हें जोड़ने वाली एकमात्रा शक्ति यानी उनका धर्म सांप्रदायिक भेदभावों के ग्रस्त एवं त्रास्त है। नतीजा यह है कि भारत के ईसाई इतने विश्रंखल हैं कि उनका कोई समान लक्ष्य, समान मानस और समान प्रयास हो ही नहीं सकता।“
आज वर्तमान समय में देखें तो ईसाई समाज में मतान्तरित हुए अनुसूचित वर्ग की स्थिति वैसी ही है जैसी आंबेडकर जी ने कई वर्ष पूर्व प्रस्तुत की थी । आज भी ईसाई समाज में जाति के आधार भेद होता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है । भारत में दलित क्रिश्चियन, ब्राह्मण क्रिश्चियन, क्षत्रिय क्रिश्चियन के रूप में ईसाई समाज जातियों में बंटा हुआ है तो ऑर्थोडॉक्स , केथोलिक आदि चर्चों के श्रेष्ठातावाद के कारण हीनताबोध से भी ग्रस्त है । शायद यही कारण था कि आंबेडकर जी ने ईसाई पंथ में मतांतरित होना अनुचित समझा ।
आज छुआछूत, अस्पृश्यता आदि सामजिक कुरीतियों पर जड़ से प्रहार हो रहा है । जो परिस्थितियां आंबेडकर जी ने सहन की थी आज उनमें बहुत सुधार हो चूका है । समय के साथ हिन्दू धर्म में आई सामाजिक कुरीति को हिन्दू समाज ने समय के साथ ही बहिष्कृत करके उससे लगभग समाधान पा लिया है । आज सामाजिक समरसता के माध्यम से अनुसूचित वर्ग के संवर्धन के कार्य भी तीव्र रूप से चल रहे हैं । इस सम्पूर्ण सामाजिक क्रांति में आम्बेडकर जी के विचारों का एवं हिन्दू समाज की विशाल सोच का बहुमुक्य योगदान है । जो अस्पृश्यता हिन्दू समाज का कलंक थी, आज हिन्दू समाज उसका परित्याग कर चूका है और इस कुरीति के विरुद्ध युद्ध में निर्णायक विजय से कुछ कदम ही दूर हैं । लेकिन दुर्भाग्य है कि समय के साथ इस्लाम और ईसाई पंथ अपने ढांचे में बदलाव नहीं ला पाया और आज भी जातिवाद, ऊँच-नीच, हीनता और श्रेष्ठता के भेदभाव में उलझा हुआ है , और शायद इसीलिए इन पंथों से मोहभंग होने के कारण लोग इनका परित्याग करके हिन्दू धर्म में घर वापसी कर रहे हैं । अंतत आज के परिदृश्य को देखते हुए यह कहना उचित होगा कि यदि आज श्रद्धेय आंबेडकर जी होते तो अन्य पंथों में हो रही भेदभाव की विपदा एवं हिन्दू धर्म की छुआछूत और भेदभाव समाप्त करने की सामाजिक क्रांति को तुलनात्मक दृष्टि से देखते हुए उसी धर्म को पुनः अपना लेते एवं उसका प्रसार करते जिसमें उनका जन्म हुआ था, और वह धर्म था कालजयी सनातन हिन्दू धर्म।
- लेखक: अथर्व पवार
- स्रोत –
- • दलितों का ईसाईकरण, आंबेडकर वांग्मय खंड 10
- • धर्म परिवर्तन करने वालों की स्थिति, आंबेडकर वांग्मय खंड 10