राष्ट्रीय चेतना का उद्घोष : अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण – अंतिम

नरेन्द्र सहगल

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मंदिर निर्माण का शुभारंभ राष्ट्रीय आस्था की विजय

अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण के शुभारंभ का ऐतिहासिक कार्यक्रम भारत की सनातन संस्कृति पर आधारित परम वैभवशाली राष्ट्र के पुनर्जागरण की गगनभेदी रणभेरी था. भारत के सभी प्रमुख संतों-महात्माओं की उपस्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शास्त्रीय विधि के अनुसार पूजन किया. मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को समर्पित इस कार्यक्रम में सभी प्रकार की मर्यादाओं का ध्यान रखा गया. प्रधानमंत्री सहित मंच पर विराजमान सभी महापुरूषों ने अयोध्या आंदोलन के नायक स्वर्गीय अशोक सिंघल जी सहित उन सभी राम भक्तों को स्मरण किया, जिन्होंने गत पांच शताब्दियों में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में अपने प्राणों की आहुतियां दीं. इस आयोजन ने भारत सहित पूरे विश्व को राममय कर दिया.

कार्यक्रम के प्रारंभ में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आज हम सब संकल्प पूर्ति के आनंद का अनुभव कर रहे हैं. आज राष्ट्र के वैभवशाली स्वरूप की आधारशिला रखी गई है. हमें अपने मन मंदिर में भी अयोध्या धाम को बसाना चाहिए. सभी प्रकार के भेदभावों को हटाकर श्रीराम के संदेश पर चलने का संकल्प लेना है.

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण का प्रारंभ करते हुए कहा “राम काज किए बिना मोहे कहां विश्राम.” उन्होंने इसी एक वाक्य से ही गत 492 वर्षों के संघर्ष की याद ताजा कर दी. प्रधानमंत्री के अनुसार जिस तरह लाखों बलिदानों के पश्चात 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस का शुभावसर आया, ठीक उसी प्रकार 5 अगस्त का दिन भी भारत के इतिहास में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति दिवस के रूप में ऐतिहासिक दिन कहलाएगा.

भाषण में इस सत्य को उजागर किया कि श्रीराम भारत की आत्मा हैं. उनके जन्मस्थान पर बन रहा भव्य मंदिर भी भारतवासियों की आस्था, एकात्मता एवं संकल्प का प्रतीक होगा. मंदिर निर्माण का यह स्वर्णिम अवसर समस्त भारतवासियों को एकजुट होकर अपनी सनातन संस्कृति के आधार पर आगे बढ़ने का संदेश देता है. सभी भारतवासियों को अपने आदि राष्ट्रनायक का स्मरण करते हुए भारत माता के पुत्र जैसा व्यवहार करना चाहिए.

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श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का मुद्दा अनेक वर्षों तक इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खण्डपीठ में लटकता रहा. अंत में 30 सितंबर सन् 2010 को ऐतिहासिक फैसला आ ही गया. फैसले में तीनों जजों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया कि वर्तमान में जहां रामलला विराजमान हैं, वहीं श्रीराम की जन्मभूमि हैं. माननीय न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि विवादित ढांचा किसी बड़े भग्नावशेष पर खड़ा था. यह 12वीं शताब्दी के राम मंदिर को तोड़ कर बनाया गया था. तीनों जजों ने विवादित ढोंचे को मस्जिद नहीं माना. ऐतिहासिक तथ्यों और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के चित्रण के आधार पर किए गए फैसले के बाद भी समस्त श्रीराम जन्मभूमि को तीन भागों में बांट दिया गया. विवाद और भी उलझ गया. हिन्दू पक्षकारों का मत था कि जब न्यायालय ने विवादित परिसर को श्रीराम जन्मस्थान मान लिया तो इसे तीन भागों में बांट कर तीन पक्षकारों को क्यों दे दिया. इस तरह से तो यह पांच सदियों से चला आ रहा विवाद एक स्थाई विवाद बन जाएगा.

दूसरी ओर मुसलमान पक्षकारों का मत था कि न्यायालय का फैसला तथ्यों एवं सबूतों पर आधारित ना होकर केवल आस्था पर लिया गया निर्णय था. सभी पक्षकार सर्वोच्च न्यायालय में जा पहुंचे. लगभग नौ वर्षों तक यह मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के गलियारों में चक्कर खाता रहा. अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सर्वसम्मति से समूचे परिसर को श्रीराम की जन्मभूमि मानकर सारा विवादित परिसर हिन्दुओं को सौंप दिया.

न्यायालय के अंतिम फैसले पर भी पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गईं, वे भी खारिज कर दी गईं. सरकार ने मंदिर निर्माण ट्रस्ट की घोषणा कर दी और इस ट्रस्ट ने 5 अगस्त 2020 को श्रीराम मंदिर निर्माणके शुभारंभ का कार्यक्रम तय कर दिया. सारे देश में प्रसन्नता की लहर चल पड़ी. क्योंकि यह चिरप्रतीक्षित घड़ी 490 वर्षों के पश्चात आई है. इन 5 सदियों में रक्तरंजित संघर्षों में साढ़े चार लाख हिन्दुओं ने अपना बलिदान दिया.

श्रीराम मंदिर निर्माण के शुभारंभ का यह अवसर ऐतिहासिक ही नहीं, अपितु स्वर्णिम भी था. भारत सहित संसार के अधिकांश देशों में बसे हिन्दुओं ने दीपमाला करके प्रसन्नता व्यक्त की. यह राष्ट्रीय आस्था की विजय है.

देश के सौभाग्य से स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात एक ऐसा समय आया था, जब विदेशी दासता के प्रतीकों को सरकारी योजना से समाप्त करने की परम्परा की शुरुआत हुई थी. देश से अंग्रेजों के जाने के पश्चात दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास और बंगलौर जैसे बड़े-बड़े शहरों में लगे अंग्रेज अधिकारियों के बुत हटा दिए गए थे. लार्ड इरविन, डलहौजी और कर्जन इत्यादि के बुत हटाकर उनके स्थान पर महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, शिवाजी, राणा प्रताप इत्यादि राष्ट्रीय विभूतियों की प्रतिमाएं लगाई गईं थीं. सारे देश में किसी भी ईसाई मतावलम्बी ने इसका विरोध नहीं किया.

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जब महात्मा गांधी के आशीर्वाद और पंडित नेहरू के सहयोग से सरदार पटेल ने महमूद गजनवी द्वारा तोड़े गए सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया तो किसी भी मुस्लिम संगठन ने विरोध नहीं किया. मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वयं अपने हाथों से मंदिर के शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा की. सोमनाथ मंदिर के निर्माण के समय अधिकांश मुसलमानों ने अपना सहयोग दिया था. आगरा के एक मुस्लिम विद्वान ने एक समाचार पत्र में लिखा था – ‘‘सोमनाथ भगवान के मंदिर का फिर से बनाया जाना हम मुसलमानों के लिए गौरव की बात है. हम उन्हीं हिन्दू पूर्वजों की संतानें हैं, जिन्होंने इस मंदिर की रक्षा के लिए बलिदान दिए थे. महमूद गजनवी ने हमारे ही पूर्वजों की लाशों पर इस मंदिर को बर्बाद किया था. आज हमारा सदियों पुराना स्वाभिमान फिर जागृत हो गया है’’.

इसी प्रकार सुदूर दक्षिण में कन्याकुमारी नामक स्थान पर सागर की उत्ताल लहरों के बीच एक चट्टान पर बने क्रास (ईसाई चिन्ह) को हटाकर जब वहां पर स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमा लगाई गई तो किसी भी ईसाई अथवा राजनीतिक दल ने इसका विरोध नहीं किया. वहां पर लगे हुए क्रास का अर्थ था ‘सामने वाला देश ईसाईयों का गुलाम है’. सर्वविदित है कि इस स्थान पर मूर्ति स्थापना का पवित्र कार्य राष्ट्रपति वी.वी गिरी ने किया था. सम्भवतया उस समय वोट की ओछी राजनीति प्रारम्भ नहीं हुई थी. यह भी एक सच्चाई है कि सोमनाथ मंदिर के निर्माण और कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति स्थापना के समय तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रभक्त संस्थाओं की इन योजनाओं का आदर करते हुए इनमें पूर्ण सहयोग दिया था.

आज के संदर्भ में यह सोचना भी महत्वपूर्ण है कि विश्वगुरु भारत के उच्चतम जीवन मूल्यों और गौरवशाली सांस्कृतिक धरोहर से कोसों दूर लार्ड मैकाले की शिक्षा से संस्कारित हमारे कई वर्तमान राजनीतिक नेता श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रखर स्वर को अनसुना करके राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं, इसकी कल्पना तक से मन विचलित हो उठता है. ऐसे सब मंदिर विराधी तत्वों से हमारा निवेदन है कि राष्ट्र के स्वाभिमान से जुड़े हुए इस विषय पर गंभीरता से विचार करें क्यों कि राष्ट्रनायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तो सभी भारतवासियों के आद्यमहापुरुष और आराध्य हैं.

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