पुर्तगाल में एक कहावत आज भी है की “जिसने गोवा देख लिया उसे लिस्बन (पुर्तगाल की वर्तमान राजधानी) देखने की नहीं जरुरत है “
भारत को यूं तो 1947 में ही आज़ादी मिल गई थी लेकिन इसके 14 साल बाद भी गोवा पर पुर्तग़ाली अपना शासन जमाये बैठे थे। 19 दिसम्बर, 1961 को भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन विजय अभियान’ शुरू कर गोवा, दमन और दीव को पुर्तग़ालियों के शासन से मुक्त कराया था।
इस युद्ध में जहाँ 30 पुर्तग़ाली मारे गए और भारत ने चार हजार, 668 पुर्तग़ालियों को बंदी भी बनाया। वहीं अनेक भारतीय जवान तथा नागरिक भी वीरगति को प्राप्त हुए।उन्ही में से एक थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक राजाभाऊ महाकाल
राजाभाऊ का जन्म भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन म.प्र. में महाकाल मंदिर के पुजारी परिवार में 26 जनवरी, 1923 को हुआ था. उज्जैन में प्रचारक रहे श्री दिगम्बर राव तिजारे के संपर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने और उन्हीं की प्रेरणा से 1942 में प्रचारक जीवन स्वीकार किया. सर्वप्रथम उन्हें सोनकच्छ तहसील में भेजा गया. वे संघर्षप्रिय तो थे ही; पर समस्याओं में से मार्ग निकालने की सूझबूझ भी रखते थे वर्ष 1955 में गोवा की मुक्ति के लिए आंदोलन प्रारम्भ होने पर देश भर से स्वयंसेवक इसके लिए गोवा गये. उज्जैन के जत्थे का नेतृत्व राजाभाऊ ने किया. 14 अगस्त की रात में लगभग 400 सत्याग्रही सीमा पर पहुंच गये. योजनानुसार 15 अगस्त को प्रातः दिल्ली के लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण प्रारम्भ होते ही सीमा से सत्याग्रहियों का कूच होने लगा. सबसे पहले श्री बसंतराव ओक और उनके पीछे चार-चार की संख्या में सत्याग्रही सीमा पार करने लगे. लगभग दो कि.मी चलने पर सामने सीमा चौकी आ गयी. यह देखकर सत्याग्रहियों का उत्साह दुगना हो गया. बंदूकधारी पुर्तगाली सैनिकों ने चेतावनी दी; पर सत्याग्रही नहीं रुकेे. राजाभाऊ तिरंगा झंडा लेकर जत्थे में सबसे आगे थे. सबसे पहले बसंतराव ओक के पैर में गोली लगी. फिर पंजाब के हरनाम सिंह के सीने पर गोली लगी और वे गिर पड़े. इस पर भी राजाभाऊ बढ़ते रहे. अतः सैनिकों ने उनके सिर पर गोली मारी. इससे राजाभाऊ की आंख और सिर से रक्त के फव्वारे छूटने लगे और वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े. साथ के स्वयंसेवकों ने तिरंगे को संभाला और उन्हें वहां से हटाकर तत्काल चिकित्सालय में भर्ती कराया. उन्हें जब भी होश आता, वे पूछते कि सत्याग्रह कैसा चल रहा है; अन्य साथी कैसे हैं; गोवा स्वतन्त्र हुआ या नहीं.
चिकित्सकों के प्रयास के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका. राजाभाऊ तथा अन्य बलिदानियों के शव पुणे लाये गये. वहीं उनका अंतिम संस्कार होना था. प्रशासन ने धारा 144 लगा दी; पर जनता सब प्रतिबन्धों को तोड़कर सड़कों पर उमड़ पड़ी. राजाभाऊ के मित्र शिवप्रसाद कोठारी ने उन्हें मुखाग्नि दी. उनकी अस्थियां जब उज्जैन आयीं, तो नगरवासियों ने हाथी पर उनका चित्र तथा बग्घी में अस्थिकलश रखकर भव्य शोभायात्रा निकाली. बंदूकों की गड़गड़ाहट के बाद उन अस्थियों को पवित्र क्षिप्रा नदी में विसर्जित कर दिया गया.
संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा