दत्तोपंत ठेंगड़ी जी

दुनिया के सबसे बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक स्वयंसेवक, जिसने ऐसे-ऐसे संगठनों की स्थापना की कि आज वे अपने क्षेत्र में दुनिया के सबसे बड़े संगठन हैं। उन्होंने मजदूरों का ऐसा संगठन स्थापित किया कि संयुक्त राष्ट्र तक को किसी निर्णय पर उसकी राय लेनी पड़ती है। किसानों का ऐसा देशभक्त संगठन तैयार किया कि देश किसानों के मुद्दे पर उसी संगठन की बात को सच मानता है और स्वदेशी का ऐसा संगठन जिसकी पहल ने भारत से चीन के बाजार को लगभग उखाड़ फेंका। और ऐसे राजनैतिक संगठन की स्थापना में भूमिका निभाई कि आज वह भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा राजनैतिक संगठन है। ऐसे न जाने कितने ही संगठनों के संस्थापक अथवा संस्थापक सदस्य का नाम है – दत्तोपंत बापूराव ठेंगड़ी।

  • दत्तात्रेय का दत्तोपंत (पूत अनोखो जायो)
    जानकीबाई अपने घर के पूजाघर में बैठी थी, सामने अपने इष्ट भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति थी, जानकीबाई ने भाव विह्वल होकर कहा- हे भगवान् संतानें पैदा होती हैं और अकालमृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं, यह सम्पन्नता नीरस लगती है। आगे भगवान से कहा कि ‘‘यदि मेरी सन्तान जीवित रही तो मैं इसे आप ही के कार्य के लिए समर्पित कर दूंगी।‘‘ भगवान् दत्तात्रेय ने माँ की बात सुन ली, दत्तोपंत जी को केवल दीर्घायु ही नहीं दी, बल्कि उनको जीवनपर्यंत नरसेवा, नारायणसेवा यानी अपने ही कार्य में लगाये रखा।
    कई बार लगता है कि भगवान तो पहले से ही चाहते थे कि दत्तोपंत मेरा काम करें, लेकिन वे भविष्य में घर छोड़कर सभी दुखों को झेलकर देश की सेवा करने वाले हैं, उसके लिए माँ की स्वीकार्यता का आशीर्वाद उनके साथ रहे। और बाद में हुआ भी यही, जब दत्तोपंतजी ने घर त्यागकर संघ के प्रचारक के रूप में अपना जीवन जीने का संकल्प लिया, तब पिताजी की नाराजगी को माँ ने ही समाप्त किया।
  • इतिहास का अद्वितीय मिलन
    10 नवम्बर 1920 दीवाली का दिन था, जगह थी वर्धा जिले का आरवी, बापूराव ठेंगड़ी और जानकीबाई के घर बेटे का जन्म हुआ। भगवान दत्तात्रेय का आशीर्वाद मानकर दत्तोपंत नाम रखा गया। दत्तोपंत अध्ययन में इतने कुशाग्र थे कि एक बार जो पढ़ लेते वह हमेशा के लिए कन्ठस्थ हो जाता। अपने स्कूल की किताब तो पढ़ते ही, साथ ही आरवी की लोकमान्य तिलक लाइब्रेरी की सभी पुस्तकें मैट्रिक पास होने तक वे पढ़ चुके थे। पढ़ाई करते समय ही वे संघ के स्वयंसेवक बने, जब स्कूल के बाद वे कॉलेज के लिए नागपुर गये तो इसे सौभाग्य कहिये अथवा दुनिया बदलने वाला महान संयोग कि दत्तोपंतजी के रहने की व्यवस्था संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी के घर में हुई।
    संघ के स्वयंसेवक दत्तोपंतजी थे ही, लेकिन जब उन्होंने श्रीगुरूजी का श्रम, तत्वज्ञान और भारत तथा विश्व के बारे में उनकी दूरदर्शिता देखी तो गुरूजी से प्रभावित होते गये। और इसी कारण उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन संघ का प्रचारक निकलकर देशसेवा करने के लिए समर्पित करने का मन बनाया।
  • राष्ट्र को समर्पित दत्तोपंत
    प्रचारक निकलने का मन बनाकर दत्तोपंत अपने घर आये, माता-पिता को बात बताई। पिताजी गुस्सा हो गये। इतना बुद्धिमान लड़का, जिसने पूरी लाइब्रेरी पढ़ ली हो, जिसके व्यवहार की सब प्रशंसा करते हों, जिसको वे वकालत करते हुए देखना चाहते थे, उस बेटे के इस निर्णय पर वे बहुत क्रोधित हुए और स्पष्ट कह दिया कि मैं इसे प्रचारक निकलने की अनुमति नही दूंगा।
    जानकीबाई ने अपनी मन्नत की बात बताई कि दत्त भगवान ही ऐसा चाहते हैं और गुरूजी जैसे विद्वान् व्यक्ति भी इसकी प्रतिभा को जानते होंगे तभी प्रचारक बनाकर केरल भेज रहे होंगे, लेकिन पिताजी नहीं माने। उसके बाद श्रीगुरुजी ने कृष्णराव मोह्ररील जी को पिताजी को मनाने भेजा, उनके समझाने पर 22 मार्च 1942 को दत्तोपंतजी को प्रचारक बनाकर केरल भेजा गया।
  • अनथक-अविरत श्रम
    1942 से 1944 तक दत्तोपंतजी के केरल में फिर सन् 1948 तक बंगाल में प्रचारक रहने के बाद उन्हें नागपुर बुला लिया गया। जहां उन्होंने एबीवीपी यानि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की स्थापना में सहयोग दिया, जो आज विश्व का सबसे बड़ा विद्यार्थी संगठन है और फिर 1951 से 1953 तक मध्यप्रदेश और 1956-57 में दक्षिणांचल के जनसंघ के संगठन मंत्री रहे। आज वही जनसंघ, भारतीय जनता पार्टी के रूप में विश्व का सबसे बड़ा राजनैतिक संगठन है।
    और यह सब करते समय उनके मन में एक राष्ट्रव्यापी देशभक्त मजदूर संगठन की आवश्यकता महसूस हुई। उस समय देश में मजदूरों के नाम पर चलने वाले राष्ट्रीय संगठन राजनैतिक दलों से जुड़े हुए थे, इसलिए वे मजदूरों के हित की नहीं पार्टी के हित की बात सोचते थे, ऐसा ही विचार श्रीगुरूजी के मन में भी चल रहा था, इसी कारण मजदूर क्षेत्र के अनुभव के लिए उन्होंने कांग्रेस और साम्यवादियों से प्रेरित मजदूर संगठनों में काम किया, उनके अच्छे बुरे अनुभव लिए और फिर मजदूर संघ बनाने का उनका विचार और बलवान हो गया। क्योंकि मजदूरों का संगठन के नाम पर उपयोग किया जा रहा था, इसी के चलते 23 जुलाई 1955 के दिन दत्तोपंत ठेंगड़ीजी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना राष्ट्र के औद्योगिकीकरण, उद्योगों के श्रमिकीकरण और श्रमिकों के राष्ट्रीयकरण की तीन सूत्रीय मांग पर अपने उद्धेश्य को स्पष्ट किया। कम्यूनिस्टों के नारे ‘‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ‘‘ के स्थान पर भारतीय मजदूर संघ ने नारा दिया कि ‘‘मजदूरो दुनिया को एक करो‘‘। कम्युनिस्टों के लाल सलाम के स्थान पर वन्देमातरम् और भारत माता की जय के नारे स्थापित किये, जिनकी महत्ता से मजदूर क्षेत्र पूर्णतः अपरिचित था और मई दिवस के स्थान पर आद्य शिल्पी भगवान विश्वकर्मा की जयंती को राष्ट्रीय श्रम दिवस घोषित किया।
    1955 में साम्यवाद जब भारत में चरम पर था और मजदूरों के बीच उनकी गहरी पैठ थी ऐसे अत्यंत विपरीत समय में दत्तोपंतजी ने मजदूर संघ की शून्य से शुरुआत की और अपनी सतत साधना के दम पर 2016 में दो करोड़ से अधिक सदस्यता के साथ यह संगठन भारत ही नहीं अपितु चीन के सरकारी संगठन को पीछे छोड़कर विश्व का सबसे बडा स्वतंत्र, स्वायत्त मजदूर संगठन बन गया है।
    इसके बाद दत्तोपंतजी ने 4 मार्च 1979 को भारतीय किसान संघ और 22 नवम्बर 1991 को स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की। सामाजिक समरसता मंच, सर्वपंथ समादर मंच, पर्यावरण मंच, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, सहकार भारती, प्रज्ञा भारती व अखिल भारतीय ग्राहक मंच जैसे संगठन जो आज अपने-अपने कार्यक्षेत्र में विश्व के सबसे बड़े संगठन हैं, उनकी स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • फकीर – संसद सदस्य से आपात्काल तक
    1964 से 1976 तक दत्तोपंतजी राज्यसभा के सदस्य रहे, लेकिन यह सांसदी उनसे उनकी फकीरी नहीं छीन पायी। उनका दिल्ली स्थित सरकारी आवास देश भर के कार्यकर्ताओं का घर था, सब वहीं रुकते, दत्तोपंत जी बाहर प्रवास से आते और कार्यकर्ताओं को विश्राम करते देखते तो एक चटाई लेकर कोने में सो जाते थे, और जब 1975 में देश में इमर्जेंसी लगी और संघ के कार्यकर्ताओं को पकड़कर जेल में डाला जाने लगा तो दत्तोपंतजी भूमिगत हो गये। पुलिस ने लाखों जतन किये पर दत्तोपंतजी को ढूंढ नहीं पायी, और जब इमरजेंसी हटाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा समिति का गठन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में किया गया तो नानाजी देशमुख और रवीन्द्र वर्मा को इसकी जिम्मेदारी मिली, लेकिन दोनों गिरफ्तार कर लिए गए। दत्तोपंतजी को समिति सचिव घोषित किया गया और उन्होंने कश्मीर से कन्याकुमारी तक जो अलख जगाई उसने आपात्काल विरोधी वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
    डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा भी है कि इमरजेंसी के वास्तविक नायक दत्तोपंत ठेंगड़ी और माधवराव मुले थे, और इस एक कार्य के कारण ही वे महापुरुषों की श्रंखला में शामिल करने योग्य बन जाते हैं।
  • उपसंहार
    इसके बाद दत्तोपंतजी ने केंद्र में मंत्रीपद लेने से मना कर दिया और श्रमिकों-मजदूरों के मध्य काम करने लगे। 2003 में जब भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण देने का ऐलान किया तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि जब तक डॉ. हेडगेवार और श्रीगुरूजी को भारतरत्न नहीं दिया जाता, वे कोई पुरस्कार स्वीकार नही करेंगे। जीवन में 35 से अधिक देशों की यात्रा, सौ से अधिक विविध भाषाओ में पुस्तकें, भाष्य और सम्पादकीय, मराठी, हिंदी, मलयाली, बंगाली, गुजराती, कन्नड़ और अंग्रेजी पर गहरी पकड़।
    जीवन के अंतिम समय तक सक्रिय दत्तोपंतजी ने 2004 में बाबासाहेब अम्बेडकर पर पुस्तक लिखी और उसके निवेदन में कहा कि संघ द्वारा सौंपा गया मेरा कार्य अब पूर्ण हुआ और 14 अक्तूबर 2004 को पुणे में पूर्णलोक को प्रस्थान कर गये, किन्तु आज भी देशभक्तों की प्रेरणा बनकर जीवित हैं दत्तोपंत ठेंगड़ी।

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