नहीं है आपका ख़ून शामिल यहां की मिट्टी में
एक तरफ कहते हैं कि ‘सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में’, वहीं दूसरी तरफ देश के सैनिकों का बलिदान हो, तब सोशल मीडिया पर हाहा (हँसी) के रिएक्शन देते हैं!
ये कैसा ख़ून है, जो किसी की असमय मृत्यु पर अट्टाहस करता है? पुलवामा/उरी हमले में जवानों का बलिदान हो, या फिर नक्सली हमलों में पुलिसकर्मी वीरगति को प्राप्त हुए हों, पूर्व रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर जी या पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी के निधन का समाचार हो, ये लोग प्रसन्न होते हैं, उत्सव मनाते हैं। यह कोई पहली बार नहीं है, जब समुदाय विशेष के लोगों द्वारा ही अपनी ही सेना या पुलिसकर्मियों के निधन पर खुशी मनाई जा रही हो। असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता राष्ट्रीय चैनलों की डिबेट में देश के प्रधानमंत्री को ‘आपके प्रधानमंत्री’ कहकर संबोधित करते हैं, यानी वे उनके प्रधानमंत्री नहीं हैं, क्योंकि वे इस देश को ही अपना नहीं मानते।
सोचिए कि अगर सोशल मीडिया न होता तो इनका असली चरित्र सामने कैसे आ पाता! धिक्कार तो उन राजनेताओं, पत्रकारों पर भी है जो धर्म की आड़ लेकर ऐसे राष्ट्रद्रोहियों का बेशर्मी से बचाव करते हैं। ऐसे धूर्त लोग ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा हैं।
वैसे एक बार किसी कार्यक्रम में स्वयं रावत जी ने ‘टू एंड हाफ फ्रंट वॉर’ की बात की थी। इसमें ‘टू’ का तो सीधा सा अर्थ है – दुश्मन देश और हम स्वयं। बाक़ी हाफ से उनका इशारा उन लोगों की ओर था, जो रहते तो भारत में हैं, मगर भारत के ही दुश्मन हैं। आज उनकी मृत्यु पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ट्विटर और फेसबुक के लाफ्टर इमोजी (हाहा रिएक्शन) देखकर लगता है कि वे कितने सही थे!
दुर्गेश साध, इंदौर