सनातन धर्म संस्कृति के सच्चे नायक हमारे जनजाति योद्धा

मनीष खेडे भारत भूमि ऐसे महावीर योद्धाओं की जन्मभूमि हैं जिनके शौर्य के आगे हर विदेशी नतमस्तक हुआ है जिनके नाम से देश के आक्रान्ताओ की नींद उड़ जाया करती थी नाम मात्र से शत्रुओं के छक्के छूट जाया करते थे। टंट्या भील ,राणा पूंजा,राजा मांडलिक,राजा धन्ना भील,राजा कोटिया भील,राजा बांसिया भील,राजा डुंगरीया भील,मनसुख भाई वसावा,दिवालीबेन भील,करसन भील,भीमा नायक, रानी झलकारी बाई, रानी दुर्गावती, रानी कमलापति गोंड यह तो केवल ज्ञातव्य नाम हैं किंत अनगिनत ऐसे हमारे जनजाति शूरवीर हुए हैं जो इतिहास में कही छप नहीं पाये हैं और अपना अदम्य शौर्य दिखाकर मातृभूमि पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर गए हैं।
ऐसे ही महान शूरवीर योद्धा ने जीवनदायिनी नर्मदा और ताप्ती नदी के मध्य जन्म लेकर निमाड़ की धरा पर गौरवमयी इतिहास का अंकुरण किया हैं।
टंट्या भील का जन्म तत्कालीन सीपी प्रांत के पूर्व निमाड़ (खण्डवा) जिले की पंधाना तहसील के बडदा गांव में सन 1842 में हुआ था। वह फिरंगियों को सबक सिखाना चाहते थे। भीलों के समाजवादी सपने को साकार करना चाहते थे। उन्हें देश की गुलामी का भी भान था! वह बार बार जेल के सींखचों को तोड़कर भाग जाते थे। छापामार युध्द में वह निपुण थे। उनका निशाना अचूक था। भीलों की पारंपरिक धनुर्विद्या में निपुण थे। ‘दावा’ यानी फालिया उनका मुख्य हथियार था। उन्होंने बंदूक चलाना भी सीख लिया था। निमाड़ में भाऊ सिंह भील कर यहाँ एक क्रांति सूर्य ने जन्म लिया था जिसे आज दुनिया “रॉबिनहुड” टंट्या मामा के नाम से पूजती हैं।टंट्या भील “इंडियन रॉबिनहुड”का नाम सबसे बड़े व्यक्ति के रुप मे लिया जाता है वे बड़े योद्दा थे । आज भी सभी आदिवासी घरो मे टंट्या भील कि पुजा कि जाती है,कहा जाता है कि टंट्या भील को सभी जानवरो कि भाषा आती थी, टंट्या भील के आदिवासीयों ने देवता कि तरह माना था, आदिवासी जन आज भी कहते है,कि टंट्या भील को आलौकिक दैवीय शक्ति प्राप्त थी, इन्ही शक्तियों के सहारे टंट्या भील एक ही समय 1700 गाँवो मे ग्राम सभा लिया करते थे,इन्ही शक्तियो के कारण अंग्रेजों के 2000 सैनिको के द्वारा भी टंट्या भील को कोई पकड़ नही पाता था । टंट्या भील देखते ही देखते अंग्रेजों के आँखो के सामने से ओझल हो जाते थे। अंग्रेजों को टंट्या भील को पकड़ने में लगभग 7 वर्ष लगें थे। इन सात वर्षों में अंग्रेजों को दिन रात छल, दल,बल के अथक प्रयासों से बड़ी मुश्किल से सफलता 11 अगस्त 1889 को रक्षाबंधन के अवसर पर मुँहबोली बहन के घर जीजा गणपत द्वारा किए गए विश्वासघात के कारण उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर मिली। टंट्या को ब्रिटिश रेसीडेन्सी क्षेत्र में स्थित सेन्ट्रल इन्डिया एजेन्सी जेल (सी.आई.ए.) इन्दौर में रखने के बाद पुलिस के कड़े सशस्त्र पहरे में जबलपुर ले जाया गया।टंट्या को बड़ी-बड़ी भारी बेड़ियां डालकर और जंजीरों से जकड़कर जबलपुर की जेल में बंद रखा गया जहां अंग्रेजी हुक्मरानों ने उन्हें भीषण नारकीय यातनांए दीं और उन पर भारी अत्याचार किए। टंट्या को 19 अक्टूबर 1889 को सेशन न्यायालय जबलपुर ने फांसी की सजा सुनाई। जनविद्रोह के डर से टंट्या को कब और किस तारीख को फांसी दी गई यह आज भी अज्ञात है। आम मान्यता है कि फाँसी के बाद टंट्या के शव को इंदौर के निकट खण्डवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेल्वे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया था। वहाँ पर बनी हुई एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंट्या मामा की समाधि माना जाता है। आज भी सभी रेल चालक पातालपानी पर टंट्या मामा को सलामी देने कुछ क्षण के लिए रेल को रोकते हैं।

टंट्या मामा द्वारा किए गए कार्यों को निमाड़, मालवा, धार-झाबुआ, बैतूल, होशंगाबाद, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में लोगों ने अपनी लोक चेतना में उसी तरह शामिल कर लिया। जिस तरह लोक देवता पूजित होते हैं। टंट्या मामा की सबसे अधिक गाथाएँ निमाड़ अंचल में रची गईं। मालवी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि में भी टंट्या भील का चरित्र गाया जाता है।
इतिहास साक्षी हैं कि जब जब विदेशी आक्रांताओं ने पुण्य भारतभूमि की सनातन संस्कृति पर आघात किया हैं अनगिनत जनजाति योद्धाओं ने अपनें प्राणों का बलिदान देकर हमारी मातृभूमि और हमारी संस्कृति की रक्षा की हैं। टंट्या मामा को आज देवताओं की तरह पूजा जाता हैं जनजाति वर्ग आज भी उनकी शिक्षाओं का अनुसरण कर धर्म और संस्कृति की पताका आज भी संभाले हुए हैं। टंट्या मामा ने जो धर्म संस्कृति और स्वतंत्रता की जो मशाल जलाई थी वह आज भी जनजाति समाज मे शरीर मे आत्मा की भांति विद्यमान हैं। आज अगर सकल हिंदू समाज सनातनी संस्कृति का पोषक हैं तो उसमें जनजाति समाज का अविस्मरणीय योगदान हैं जिससे यह स्पष्ट परिलक्षित होता हैं कि जनजाति समाज हिंदुत्व का अभिन्न अंग होकर हिंदू धर्म सनातन संस्कृति का संवाहक भी हैं। आज सकल हिंदू समाज टंट्या मामा को अपना आदर्श मानकर देवात्मा की तरह पूजता हैं तो यह उदाहरण हैं हमारे समाज के संघठित होने का हम संघठित हैं और हमारी संस्कृति अखंड और अनश्वर एवं अजर अमर हैं और सदैव अजर अमर परम् वैभवं को प्राप्त करने वाली संस्कृति हैं। आज सकल हिंदू समाज एक धागे में पिरोई नाना पुष्पों की माला की भाँति संघठित और एकत्रित हैं जो हिन्दुत्व को अद्वितीय आलौकिक सुंगध से महका रही हैं। सकल हिंदू समाज अखंड हैं और सदैव अखंड ही रहेगा। आज टंट्या मामा स्थूल शरीर रूप में भले ही ना हो पर उनकी आत्मा आज भी हिंदू समाज के एक एक हिंदू शरीर मे आत्मा की भांति जीवित और अजर अमर हैं और रहेंगी।
लेखक मनीष खेड़े मूलरुप से मण्डलेश्वर महेश्वर जिला खरगोन के निवासी होकर जाति, जनजाति क्षेत्र में समाज को आत्मनिर्भर बनाने हेतु आजीविका गतिविधियों के जानकर हैं।

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