अद्भुत विश्वधरोहर, वनवासी दुर्गापूजक हैं।

  वामपंथियों ने पिछले कुछ वर्षों से एक दुष्प्रचार प्रारंभ किया है जिसमें महिषासुर को महिमामंडित करने का प्रयास चल रहा है जोकि समाज और फिर देश को तोडने का षडयंत्र है। #वनवासी हमेशा से शिव पूजक और दुर्गा पूजक  रहा है इसका एक सशक्त उदाहरण अगरतला में दिखाई पड़ता है जो कि अद्भुत और आश्चर्यजनक है।

#अगरतला से 82 किलोमीटर दूर नितांत जंगल में चोबिबुरा नामक स्थान पर पहाडों मे 90° पर मां दुर्गा  (महिषासुरमर्दिनि) की अत्यंत विशाल मूर्तियां उकेरी गई है, ये अत्यंत प्राचीन हैं। स्थानीय जमातियाजनजाति, मां दुर्गा को चक्रक_मां के नाम से पूजती है। यहां विष्णु, गणेश आदि देवताओं को भी उकेरा गया है।

बस्तर अंचल में जहां लोक कला की परम्पराएं अपने मूल और सहज रूप में पाई जाती हैं। जहां मिट्टी, लकड़ी और धातु को गढ़ती अद्भूत कला के दर्शन होते हैं। जहां गीत-संगीत नृत्य में प्रकृति में समाई हुई है। जहां के लोग भोले भाले हैं और उनकी रक्षा करती है माँ दंतेश्वरी।

हरे-भरे जंगल और आदिम जाति की परंपरा के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है बस्तर। कहते हैं कि कभी ये इलाका बांस के पेड़ों से तर था इसलिए इसका नाम पहले बांस तर था जो बाद में बस्तर हो गया। रामायण काल में इस क्षेत्र का नाम दण्डकारण्य था और भगवान रामचन्द्र ने वनवास का ज्यादातर समय यहां व्यतीत किया था। दण्डकारण्य के इस जंगल में आज भी कई क्षेत्र अबूझ पहले से कम नहीं है। यहां अबूझमाड़ स्थान है जहां मानव सभ्यता ने अभी तक कदम नहीं रखे हैं। आदिम जाति की परंपराओं को संजोकर रखने वाले इस क्षेत्र के वनवासियों की अराध्य देवी है माँ दंतेश्वरी।

छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी से करीब पौने चार सौ किलोमीटर दूर स्थित है दंतेवाडा नगर। बस्तर संभाग के मुख्यालय जगदलपुर से लगभग 85 किलोमीटर की दूर पर बसे दंतेवाड़ा का नाम कहते हैं माँ दंतेश्वरी की कृपा से हुआ। डंकिनी और शंखिनी नदियों के संगम पर प्रस्थापित है माँ दंतेश्वरी का मंदिर। पुरातात्विक महत्व के इस मंदिर का पुनर्निर्माण महाराजा अन्नमदेव द्वारा चौदहवीं शताब्दी में किया गया।

आंध्रप्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां अराध्य देवी माँ दंतेश्वरी और माँ भुनेश्वरी देवी की प्रतिस्थापना की। वारंगल में माँ भुनेश्वरी माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है। जैसा कि सब जानते हैं कि महासती द्वारा प्रजापिता महाराजा दक्ष के यज्ञ में देह त्याग के उपरांत देवी सती के अंग जहां-जहां विमोचित हुए वहां-वहां आद्य शक्तिपीठों की स्थापना हुई। कहा जाता है कि महासती के दांत इस स्थान पर संगम स्थल के निकट गिरे और कालांतर में यह क्षेत्र दंतेश्वरी शक्तिपीठ के नाम से विख्यात हुआ और संभवत: इस कारण से इस नगर का नाम दंतेवाड़ा रखा गया।

एक अन्य दंतकथा के मुताबिक वारंगल के ही राजा रूद्र प्रतापदेव जब मुगलों से पराजित होकर जंगल में भटक रहे थे तो कुल देवी ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि माघपूर्णिमा को वे घोड़े में सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें और वे जहां तक जायेंगे वहां तक उनका राज्य होगा और स्वयं देवी उनके पीछे चलेगी लेकिन राजा पीछे मुड़कर नहीं देखें। वरदान के अनुसार राजा ने यात्रा प्रारंभ की और शंखिनी-डंकिनी नदियों के संगम पर घुंघरुओं की आवाज रेत में दब गई तो राजा ने पीछे मुड़कर देखा और कुल देवी यहीं प्रस्थापित हो गई।

दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिन नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी के चरणों के चिन्ह आज भी मौजूद है और यहां सच्चे मन से की गई मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती है।

कथाएं चाहे जो भी हो मगर ये सर्वविदित है कि अराध्य माँ दंतेश्वरी की षट भुजी प्रतिमा के जागृत दर्शन यहां प्राप्त होते हैं और भक्त की मनोकामना पूर्ण होती है। शायद यही कारण है कि यहां भक्तों का तांता लगा रहता है। इन कथाओं की पुष्टि करते हैं मंदिर के मुख्य पुजारी श्री हरीहर नाथ।

माँ दंतेश्वरी की इस नगरी में आस्था, संस्कृति और परंपरा के सारे रंग नजर आते हैं । होली से दस दिन पूर्व यहां फाल्गुन मड़ई का आयोजन होता है जिसमें आदिवासी संस्कृति की विश्वास और परंपरा की झलक दिखाई पड़ती है। नौ दिनों तक चलने वाले फाल्गुन मड़ई में आदिवासी संस्कृति की अलग-अलग रस्मों की अदायगी होती है।

फाल्गुन मड़ई में ग्राम देवी-देवताओं की ध्वजा, छत्तर और ध्वजा दण्ड पुजारियों के साथ शामिल होते हैं। करीब 250 से भी ज्यादा देवी-देवताओं के साथ मांई की डोली प्रतिदिन नगर भ्रमण कर नारायण मंदिर तक जाती है और लौटकर पुन: मंदिर आती है। इस दौरान नाच मंडली की रस्म होती है जिसमें लमान नाचा, जो बंजारा समुदाय द्वारा किए जाने वाले नृत्य के समान होता है,  साथ ही भतरी नाच और फाग गीत गाया जाता है।

मांई जी की डोली के साथ ही फाल्गुन नवमीं, दशमी, एकादशी और द्वादशी को लमहा मार, कोड़ही मार, चीतल मार और गौर मार की रस्म होती है। गौरतलब है कि रियासत शासनकाल में राजा के साथ-साथ प्रजा भी आखेट की शौकीन होती थी। उसके चलते अब ये रस्में प्रतीकात्मक होती हैं। लमहा यानि खरगोश, कोटरी यानि हिरण और चीतल, गौर यानि वन भैंसा का शिकार मनोरंजक ढंग से होता है। इस खेल में एक व्यक्ति शिकार का पशु बनता है और भीड़ में शोर-शराबे, बाजे-गाजे और रस्म के तहत प्रतीकात्मक रूप से शिकार किया जाता है। इस शिकार के खेल और रस्म के दौरान आदिम जाति की कई परंपराएं देखने को मिलती है। अद्भूत और आश्चर्यजनक ढंग से संपन्न होने वाली इस प्रथा और मड़ई का आनंद ही अद्भूत होता है। मड़ई के अंतिम दिन सामूहिक नृत्य में सैकड़ों युवक-युवती शामिल होते हैं और रात भर इसका आनंद लेते हैं।

संस्कृति की अभिव्यक्ति में संगीत कला का सबसे ज्यादा महत्व है। पशु-पक्षी भी अपने हर्ष और आनंद की भावना को व्यक्त करने के लिए नृत्य का सहारा लेते हैं। लोक कला की परम्परा लोक जीवन में सहज रूप से विकसित होती है और ये कलाएं अंचल की संस्कृति की परिचायक होती हैं। फाल्गुन मड़ई में आदिवासियों के गीत-संगीत, रस्म-रिवाज से आदिम जाति संस्कृति को समझा जा सकता है । ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारतीय लोक कला कहीं अपने मूल और सहज रूप में जीवित है तो वो  बस्तर में हैं। छत्तीसगढ़ प्रदेश और दंतेवाड़ा जिले के प्रभारी मंत्री श्री केदार कश्यप इस फाल्गुन मड़ई की परंपराओं को संजोने का प्रयास कर रहे हैं।

फाल्गुन मड़ई में दंतेश्वरी मंदिर में बस्तर अंचल के लाखों लोगों की भागीदारी होती है। वनवासी समाज की रीति रिवाजों के साथ ही अब यहां शहरी चकाचौंध भी दिखने लगी है। मड़ई में रोजमर्रा की चीजों के बाजार के साथ ही शहरी झूले और लटके-झटके भी यहां देखने को मिलता है। माँ दंतेश्वरी मंदिर कमेटी के सदस्य श्री अनूप सूद इन परंपराओं के संदर्भ में बताते हैं कि आदिवासी समाज की ये रस्में अद्भूत हैं।

दंतेवाड़ा में माँ दंतेश्वरी की षट् भुजी वाले काले ग्रेनाइट की मूर्ति अद्वितीय है। छह भुजाओं में दाएं हाथ में शंख, खड्ग, त्रिशुल और बाएं हाथ में घंटी, पद्य और राक्षस के बाल मांई धारण किए हुए है। यह मूर्ति नक्काशीयुक्त है और ऊपरी भाग में नरसिंह अवतार का स्वरुप है। माई के सिर के ऊपर छत्र है जो चांदी से निर्मित है। वस्त्र आभूषण से अलंकृत है। द्वार पर दो द्वारपाल दाएं-बाएं खड़े हैं जो चार हाथ युक्त हैं । बाएं हाथ सर्प और दाएं हाथ गदा लिए द्वारपाल वरद मुद्रा में है। इक्कीस स्तम्भों से युक्त सिंह द्वार के पूर्व दिशा में दो सिंह विराजमान जो काले पत्थर के हैं। यहां भगवान गणेश, विष्णु, शिव आदि की प्रतिमाएं विभिन्न स्थानों में प्रस्थापित है। मंदिर के गर्भ गृह में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रवेश प्रतिबंधित है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने पर्वतीयकालीन गरुड़ स्तम्भ से अïवस्थित है। बत्तीस काष्ठï स्तम्भों और खपरैल की छत वाले महामण्डप मंदिर के प्रवेश के सिंह द्वार का यह मंदिर वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। इसलिए गर्भगृह में प्रवेश के दौरान धोती धारण करना अनिवार्य होता है। मांई जी का प्रतिदिन श्रृंगार के साथ ही मंगल आरती की जाती है।

माँ दंतेश्वरी मंदिर के पास ही उनकी छोटी बहन माँ भुनेश्वरी का मंदिर है। माँ भुनेश्वरी को मावली माता, माणिकेश्वरी देवी के नाम से भी जाना जाता है। माँ भुनेश्वरी देवी आंध्रप्रदेश में माँ पेदाम्मा के नाम से विख्यात है और लाखो श्रद्धालु उनके भक्त हैं।

छोटी माता भुवनेश्वरी देवी और मांई दंतेश्वरी की आरती एक साथ की जाती है और एक ही समय पर भोग लगाया जाता है। लगभग चार फीट ऊंची माँ भुवनेश्वरी की अष्टïभुजी प्रतिमा अद्वितीय है । मंदिर के गर्भगृह में नौ ग्रहों की प्रतिमाएं है। वहीं भगवान विष्णु अवतार नरसिंह, माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की प्रतिमाएं प्रस्थापित हैं। कहा जाता है कि माणिकेश्वरी मंदिर का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ। संस्कृति और परंपरा का प्रतीक यह छोटी माता का मंदिर नवरात्रि में आस्था और विश्वास की ज्योति से जगमगा उठता है।

कहा जाता है कि माँ दंतेश्वरी के दर्शन पश्चात् थोड़ी ही दूर में स्थित भैरव मंदिर में पूजा अर्चना करने से पुण्य लाभ द्विगुणित हो जाता है। मान्यता तो यह भी है कि भैरव दर्शन के बिना माँ की आराधना अधूरी मानी जाती है। कहा जाता है कि भैरव मदिर में मांगी गई मनौती अवश्य पूर्ण होती है। यह कहना है यहां के पुजारी का।

संकट हरने वाली, मुंह मांगी मुराद पूरी करने वाली देवी माँ दंतेश्वरी की महिमा का जितना भी बखान किया जाए वह कम है। माँ अपने भक्तों के समस्त कष्टों का निवारण करती है। माता दंतेश्वरी के सम्मुख जो भी भक्त सच्चे हृदय से मनोकामना करता है माँ उसकी मनोकामना को पूर्ण करती है। माँ दंतेश्वरी के सामने हर भक्त अपना शीश झुकाता है और हृदय से एक ही आïवाज गूंजती है – जय माता दी।

आदिवासियों की आराध्य मां दंतेश्वरी के जसगीत स्थानीय हल्बी बोली में घर-घर में गाए जाते हैं।

दंतेवाड़ा से लगभग 34 किलोमीटर दूर प्रतापी राजा बाणासुर की राजधानी बारसूर में विश्व प्रसिद्ध भगवान गणेश की विशालकाय युगल प्रतिमा अद्भूत है, वहीं यहां बत्तीसा मंदिर और मामा भांचा का मंदिर भी दर्शनीय स्थल है।

बारसूर से ही कुछ ही दूर पर विश्व प्रसिद्ध नियाग्रा जलप्रपात का लघु रूप चित्रकोट जलप्रपात पर्यटकों का मन मोह लेता है। बस्तर अपने जंगल और वनवासी जीवन की रीति-रिवाजों के लिए मशहूर है।

आदिवासी देव चिन्ह

दंतेश्वरी के मंदिर  को छोड़कर,  कोट एवं गुढ़ी में कई देवी -देवता एक साथ रह सकते हैं। बस्तर में मातृ देवियों की प्रमुखता है।  इन्हें  बत्तीस बहना भी कहा जाता हैं। अर्थात: यह बत्तीस माताएं हैं जो आपस में बहने हैं।  इनमे सबसे प्रमुख दंतेश्वरी माता  और मावली माता हैं। इनकी अन्य बहने हैं – हिंगलाजन माता , भण्डारिन माता , तेलिनमाता , बंजारिन माता , कंकालिन माता, खण्डा कंकालिन  माता, बूढ़ी माता,  गंगोदेई  माता, भुसरसिन माता,  गंगुआ  माता , लाडली माता, जलनी  माता , लेने मुरताल माता, डोंगरी माता, परदेसिन माता, तेंगलगिन माता, करनाकोटिन  माता, गादी माई , कोट गढ़िन माता, पाट माता, सोनि माता , कोकड़ी  माता, लाड़ली देइआदि हैं।  इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवता भी हैं  इनमें से जिनकी मूर्तियाँ अधिकांशत : प्रचलन में हैं और जिनके रूप पहचाने जा सकते हैं वे निम्न हैं :

दंतेश्वरी माता: यह राजा घर की देवी है, प्रमुख मंदिर दंतेवाड़ा एवं जगदलपुर राजमहल में है। सभी प्रमुख गांवो में इनका मंदिर होता है। बस्तर की प्रमुख देवी है। दशहरे पर निकलने वाले रथ पर इनके नाम का छत्र निकाला जाता है। इन्हे बकरा, मुर्गा, भैंसा आदि बलि दिया जाता है। इनकी प्रतिमा में सिर पर मुकुट धारण किए, चार भुजाओं वाला बनाया जाता है। हाथों में हज़ारी फूल, ढाल, खप्पर, बनाये जाते हैं ।दोनों कन्धों को जोड़ती वहाड़ी (एक प्रकार का चंदोवा) बनाई जाती है।

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