वीर जोरावर सिंह एवं वीर फ़तेह सिंह बलिदान दिवस
26 दिसंबर -1705
20 दिसम्बर, 1705 को गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिखों और परिवार के साथ मुगल सेना के साथ संघर्ष करते हुए श्री आनन्दपुर साहिब जी को छोड़ा। सरसा नदी पार करते-करते कई झड़पें हुई, जिसमें कई सिक्ख मारे गए। पाँच सौ में से केवल चालीस सिक्ख बचे जो गुरू साहिब के साथ रोपड़ के समीप चमकौर की गढ़ी में पहुँच गए।
सरसा नदी की बाढ़ के कारण श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी का परिवार काफिले से बिछुड़ गया। माता गुजर कौर (गुजरी जी) के साथ उनके दो छोटे पोते, अपने रसोइये गँगा राम के साथ आगे बढ़ती हुए रास्ता भटक गईं। उन्हीं दिनों सरहिन्द के नवाब वजीद ख़ान ने गाँव-गाँव में ढिँढोरा पिटवा दिया कि गुरू साहिब व उनके परिवार को कोई पनाह न दे। पनाह देने वालों को सख्त सजा दी जायेगी और उन्हें पकड़वाने वालों को इनाम दिया जाएगा। गँगू की नीयत खराब हो गई। उसने मोरिंडा की कोतवाली में कोतवाल को सूचना देकर इनाम के लालच में बच्चों को पकड़वा दिया। नवाब वज़ीर खान ने जब गुरू साहिब के मासूम बच्चों तथा वृद्ध माता को अपने कैदियों के रूप में देखा तो बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अगली सुबह बच्चों को कचहरी में पेश करने के लिए फरमान जारी कर दिया।
वज़ीर ख़ान के सिपाही दोनों साहिबजादों को कचहरी में ले गये। थानेदार ने बच्चों को समझाया कि वे नवाब के दरबार में झुककर सलाम करें। किन्तु बच्चों ने इसके विपरीत उत्तर दिया और कहा: यह सिर हमने अपने पिता गुरू गोबिन्द सिंघ के हवाले किया हुआ है, इसलिए इस को कहीं और झुकाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
नवाब वज़ीर खान कहने लगा इस्लाम धर्म को कबूल कर लो तो तुम्हें रहने को महल, खाने को भाँति भांति के पकवान तथा पहनने को रेशमी वस्त्र मिलेंगे। तुम्हारी सेवा में हर समय सेवक रहेंगे। लेकिन दोनों वीरो ने उत्तर दिया हमें सिक्खी जान से अधिक प्यारी है। दुनियाँ का कोई भी लालच व भय हमें सिक्खी से नहीं गिरा सकता। हम पिता गुरू गोबिन्द सिंघ के शेर बच्चे हैं तथा शेरों की भान्ति किसी से नहीं डरते। हम इस्लाम धर्म कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे।
नवाब बच्चों को मारने की बजाय इस्लाम में शामिल करने के हक में था। वह चाहता था कि इतिहास के पन्नों पर लिखा जाये कि गुरू गाबिन्द सिंघ के बच्चों ने सिक्ख धर्म से इस्लाम को अच्छा समझा और मुसलमान बन गए। अपनी इस इच्छा की पूर्ति हेतु उसने गुस्से पर नियँत्रण कर लिया तथा कहने लगा बच्चों जाओ, अपनी दादी के पास। कल आकर मेरी बातों का सही-सही सोचकर उत्तर देना। माता गुजरी जी पोतों से कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में पूछने लगी। बच्चें भी दादी माँ को कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में बताने लगे।
अगले दिन भी कचहरी में पहले जैसे ही सब कुछ हुआ, नवाब का ख्याल था कि भोली-भाली सूरत वाले ये बच्चे लालच में आ जाएँगे। पर वे तो गुरू गोबिन्द सिंघ के बच्चे थे, मामूली इन्सान के नहीं। उन्होंने किसी शर्त अथवा लालच में ना आकर इस्लाम स्वीकार करने से एकदम इन्कार कर दिया। अब नवाब धमकियों पर उतर आया। गुस्से से लाल पीला होकर कहने लगा: ‘यदि इस्लाम कबूल न किया तो मौत के घाट उतार दिए जाओगे। फाँसी चढ़ा दूँगा। जिन्दा दीवार में चिनवा दूँगा। बोलो, क्या मन्जूर है– मौत या इस्लाम ? उन्होंने उत्तर दिया ‘हम गुरू गोबिन्द सिंघ जैसी महान हस्ती के पुत्र हैं। हमारे खानदान की रीति है, ‘सिर जावे ताँ जावे, मेरा सिक्खी सिदक न जावे।’ हम धर्म परिवर्तन की बात ठुकराकर फाँसी के तख्ते को चूमेंगे।’
तीसरे दिन साहिबज़ादों को कचहरी में लाकर डराया धमकाया गया। उनसे कहा गया कि यदि वे इस्लाम अपना लें तो उनका कसूर माफ किया जा सकता है और उन्हें शहजादों जैसी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो सकती हैं। किन्तु साहिबज़ादे अपने निश्चय पर अटल रहे। उनकी दृढ़ता को देखकर उन्हें किले की दीवार की नींव में चिनवाने की तैयारी आरम्भ कर दी गई किन्तु बच्चों को शहीद करने के लिए कोई जल्लाद तैयार न हुआ।
अकस्मात दिल्ली के शाही जल्लाद साशल बेग व बाशल बेग अपने एक मुकद्दमें के सम्बन्ध में सरहिन्द आये। उन्होंने अपने मुकद्दमें में माफी का वायदा लेकर साहिबज़ादों को शहीद करना मान लिया। बच्चों को उनके हवाले कर दिया गया। उन्होंने जोरावर सिंघ व फतेह सिंघ को किले की नींव में खड़ा करके उनके आसपास दीवार चिनवानी प्रारम्भ कर दी।
दीवार बनते-बनते जब फतेह सिंघ के सिर के निकट आ गई तो जोरावर सिंघ दुःखी दिखने लगे। काज़ियों ने सोचा शायद वे घबरा गए हैं और अब धर्म परिवर्तन के लिए तैयार हो जायेंगे। उनसे दुःखी होने का कारण पूछा गया तो जोरावर बोले मृत्यु भय तो मुझे बिल्कुल नहीं। मैं तो सोचकर उदास हूँ कि मैं बड़ा हूं, फतेह सिंघ छोटा हैं। दुनियाँ में मैं पहले आया था। इसलिए यहाँ से जाने का भी पहला अधिकार मेरा है। फतेह सिंघ को धर्म पर बलिदान हो जाने का सुअवसर मुझ से पहले मिल रहा है।
दीवार फतेह सिंघ के गले तक पहुँच गई काज़ी के सँकेत से एक जल्लाद ने फतेह सिंघ तथा उस के बड़े भाई जोरावर सिंघ का शीश तलवार के एक वार से कलम कर दिया। इस प्रकार श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के सुपुत्रों ने अल्प आयु मे ही शहादत प्राप्त की। माता गुजरी जी बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा में गुम्बद की मीनार पर खड़ी होकर राह निहार रही थीं। माता गूजरी जी भी छोटे साहिबजादों जी की शहीदी का समाचार सुनकर ठँडे बूर्ज में ही शरीर त्याग गईं यानि शहीदी प्राप्त की।
स्थानीय निवासी जौहरी टोडरमल को जब गुरू साहिब के बच्चों को यातनाएँ देकर कत्ल करने के हुक्म के विषय में ज्ञात हुआ तो वह अपना समस्त धन लेकर बच्चों को छुड़वाने के विचार से कचहरी पहुँचा किन्तु उस समय बच्चों को शहीद किया जा चुका था। उसने नवाब से अँत्येष्टि क्रिया के लिए बच्चों के शव माँगे। वज़ीर ख़ान ने कहा: यदि तुम इस कार्य के लिए भूमि, स्वर्ण मुद्राएँ खड़ी करके खरीद सकते हो तो तुम्हें शव दिये जा सकते हैं। टोडरमल ने अपना समस्त धन भूमि पर बिछाकर एक चारपाई जितनी भूमि खरीद ली और तीनों शवों की एक साथ अँत्येष्टि कर दी।
यह सारा किस्सा गुरू के सिक्खों ने गुरू गोबिन्द सिंघ को नूरी माही द्वारा सुनाया गया तो उस समय अपने हाथ में पकड़े हुए तीर की नोंक के साथ एक छोटे से पौधे को जड़ से उखाड़ते हुए उन्होंने कहा– जैसे मैंने यह पौध जड़ से उखाड़ा है, ऐसे ही तुरकों की जड़ें भी उखाड़ी जाएँगी।
यह घटना 13 पौष तदानुसार 26 दिसम्बर 1705 ईस्वी में घटित हुई।