वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड : मारवाड़ के महाबली जिनके नाम से घबराते थे मुगल

माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास

पश्चिम में मेवाड़-मारवाड़ से लगाकर मध्य के मालवा तक उक्त कहावत प्रसिद्ध है। महान पराक्रमी दुर्गादास राठौर कही के राजा-महाराजा या सम्राट नहीं थे, बल्कि जोधपुर राज्य के एक सेनापति थे। अपने समर्पण, त्याग और वीरता के बल उन्होंने अपने चरित्र को इतना उच्च बना लिया कि आज भी माँ अपने पुत्र के रूप में दुर्गादास को जन्म देने की अभिलाषा रखती है। वीर दुर्गादास राठौड़ जी का जन्म 13 अगस्त, 1638 तदनुसार विक्रम सम्वत 1695 के श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। उनके पिता की अन्य पत्नियां भी थी जिनकी वजह से उनकी माँ नेतकँवर उन्हें ले कर सालवा के पास लूणवा गाँव में रहने लगी।

छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह परवरिश

संयोग की बात है कि माता नेतकँवर ने दुर्गादास की परवरिश ठीक उसी प्रकार अकेले की जिस प्रकार जिजामाता ने छत्रपति शिवाजी महाराज का निर्माण किया था। माता के रूप में माँ भारती ने शिवजी की तरह ही दुर्गादास को वीरता, त्याग, पराक्रम के साथ देश-धर्म पर स्वयं को न्यौछावर करने के संस्कार डाले।

बचपन से निडर ओर साहसी

दुर्गादास बचपन से ही निडर ओर बलिष्ठ थे हालांकि वह युवावस्था तक सैन्य गतिविधियों में सम्मिलित नही हुए और अपनी माता के साथ खेती का कार्य किया करते थे। एक बार की बात है महाराज के चरवाहे शासकीय ऊँटो को लेकर दुर्गादास के खेतों में घुस आए, काफी समझाने पर भी जब वो ऊँटो को खेत से हटाने को नही माने तो युवा दुर्गादास ने उनकी जमकर खबर ली। यह बात शीघ्र ही राजमहल में पहुच गई तो दुर्गादास को बुलवाया गया। बिना किसी भय के दुर्गादास ने अपना पक्ष महाराज के समक्ष रखा, उस युवा की स्पष्टवादिता ओर निर्भयता से महाराज जसवंत सिंह बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रसंग के दौरान राज सभा में दुर्गादास जी के पिता आसकरण जी भी उपस्थित थे, जब महाराज को यह बात पता चली की वह आसकरण जी के बेटे है तो उन्होंने अपनी तलवार दुर्गादासजी को भेंट की। यहां से दुर्गादास जी का जो सम्बंध बना तो वह फिर जीवनपर्यंत जोधपुर राज्य के विश्वासपात्र बने रहे।

युद्धनीति, राजनीति सहित कूटनीति में भी माहिर

एक पराक्रमी योद्धा के साथ-साथ वे एक कुशल रणनीतिकार भी थे। उनकी युद्ध रचना ओर आक्रमण की तकनीक देख कर विरोधी सेना के अच्छे-अच्छे योद्धा भी घबरा जाते थे। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने दुर्गादास राठौड़ के बारे में कहा है कि, “उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ निश्चय को पीछे हटा सकी, बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमे राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी।\”

जन्मभूमि मारवाड़ के प्रति समर्पित जीवन

एक समय ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां पैदा हो गई कि महाराज जसवंत सिंह जी औरंगजेब अधीन हो गए और उसके सेनापति बन गए। दुष्ट औरंगजेब पूरे राज्य पर एकाधिकार चाहता था अतः उसने षड्यंत्र पूर्वक महाराज जसवंत सिंह को अफगानिस्तान में पठानों से युद्ध करने भेज दिया। दुर्गादास भी इस युद्ध मे शामिल रहे किन्तु दुर्भाग्य से युद्ध के दौरान नवंबर 1678 में जसवंत सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। इसके पूर्व ही औरंगजेब ने महाराजा के इकलौते पुत्र पृथ्वीसिंह को एक षड्यंत्र के तहत जहरीली पोशाक पहनाकर मार डाला ओर अब महाराज का कोई उत्तराधिकारी नही था। संयोगवश महाराज की दोनो पत्नियां गर्भवती थी जिन्होंने कुछ समय पश्चात एक-एक पुत्र को जन्म दिया। एक पुत्र की शैशवकाल में ही मृत्यु हो गई जबकि रानी महामाया जी ने दूसरे पुत्र अजित सिंह को जन्म दिया। महाराज जसवन्त सिंह की मृत्यु के तुरंत बाद औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्जा कर लिया और शाही हाकिम को उसका नियंत्रण दे दिया। हाकिम ओर औरंगजेब को मालूम था कि बड़ा होने पर अजित सिंह को राज्य लौटना पड़ेगा अतः उसने अजित सिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। दुर्गादास जी इस बात को जानते थे की बालक अजीत के प्राण संकट में है अतः वह साथ दिल्ली पहुंचे ओर पूरी सतर्कता बरती।

मारवाड़ के युवराज की रक्षा के लिए सूझबूझ

जैसी की आशंका थी एक दिन धूर्त मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। दुर्गादास ने अपने सैनिकों के साथ मुगलों को युद्ध मे उलझाया ओर इसी का फायदा उठाते हुए पन्ना धाय की तरह बालक अजीत की धाय गोरा टांक ने अजित सिंह की जगह अपने हमउम्र बालक को छोड़ अजित सिंह को अपने साथ ले कर चुपचाप निकल गई। मुगलों को गाजर-मूली जैसे काटते हुए दुर्गादास जी भी वहां से निकल मेवाड़ पहुच गए। इसके बाद बालक अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर के पास गुप्त तरीके से पालन पोषण करवाया उस पर भी मुकुनदास खीची को साधु वेश में बालक अजित की रक्षा के लिए नियुक्त किया। बाद में औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने धाय गोरा टांक के बालक की हत्या कर दी।

मुगलों के विरुद्ध आजन्म संघर्ष

इस प्रसंग से औरंगजेब तिलमिला उठा और दुर्गादास जी को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए बड़े इनाम की घोषणा कर दी। इधर दुर्गादास जी ने मारवाड़ के सामंतों को संगठित किया और मारवाड़ के सिंहासन पर अजित सिंह को बैठा कर धर्म का शासन स्थापित करने की प्रतिज्ञा ली। उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह गोरिल्ला शैली में छापामार युद्ध कर मुग़लों की नाक में दम कर दिया। उन्होंने मराठों ओर खालसों को साथ लाने का भी प्रयास किया, हालांकि इसमे उन्हें सिर्फ आंशिक सफलता ही मिली। उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर से मित्रता बढ़ाई और उसे राजा बनाने का प्रलोभन देकर उसके पिता के विरुद्ध विद्रोह की भूमिका भी तैयार की,  औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनकी शेष योजना भी सफल हो पाई। हिंदू स्वाभिमानी दुर्गादास जी ने मुगलों के विरुद्ध आजन्म संघर्ष किया और वर्ष 1707 में अंतत्वोगत्वा वह युवराज अजित सिंह को जोधपुर का महाराज बनाने में सफल हो ही गए। एक बार पुनः मरुभूमि पर हिंदू शासक ओर भगवा ध्वज फहराया।

कभी वासना थी न लोकेषणा की

महाराज अजित सिंह और अन्य सभी सामंत चाहते थे कि दुर्गादास जी राज्य के प्रधान का पद स्वीकार करे किंतु आजन्म संघर्ष करने वाले दुर्गादास जी ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। दुर्गादास जी राज्य के अलग-अलग मसलों पर अपनी दखल रखते थे जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति होने लगी, वो नियमित महाराज को भड़काने लगे। इतिहास के कुछ जानकर मानते है कि इसी के परिणामस्वरूप अजित सिंह ने दुर्गादास जी को राज्य से निर्वासित कर दिया जबकि कुछ का मानना है कि वो स्वयं ही अपना अंतिम समय उज्जैन तीर्थ क्षेत्र में शांति के साथ व्यतीत करना चाहते थे इसलिए वह स्वयं ही अनुमति ले चले गए। इस समय दुर्गादास जी की आयु 80 वर्ष के निकट थी।

मालवा माटी से दुर्गादास जी का लगाव

वीर दुर्गादास जी के मन मे महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग ओर मोक्षदायिनी माँ क्षिप्रा के प्रति अगाध श्रद्धा थी इसीलिए उनकी कामना रही कि उनका अंतिम संस्कार क्षिप्रा माँ के तट पर ही किया जाए। यह उज्जैन का सौभाग्य है कि वीर शिरोमणि दुर्गादास जी अपने जीवन के अंतिम समय मे उज्जैन के आसपास ही प्रवास करते रहे और अपनी अंतिम श्वास भी यही मालवा की माटी पर दिनांक 22 नवम्बर सन् 1718 तदनुसार माघशीर्ष शुक्ल एकादशी सम्वत् 1775 को ली। उनकी इच्छा के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार क्षिप्रा नदी के तट पर ही किया गया। जहा पर उनका अंतिम संस्कार किया गया था वही पर लाल पत्थरों पर नक्काशी कर एक सुंदर छत्री (समाधि) का निर्माण उनकी स्मृति में किया गया है। यह छत्री (समाधि) आज भी अवस्थित है हालांकि सरकारी लापरवाही के चलते कुछ वर्षों पहले आसपास के क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों द्वारा अतिक्रमण कर लिया गया है।

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