भारतीय कालगणना की सार्वभौमिकता व खगोल शुद्धता

प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा

विश्व में प्रचलित विविध कालगणनाओं में भारतीय तिथियाँ ही सार्वभौम सन्दर्भ योग्य दिनक्रम प्रदान करती हैं. इन तिथियों का आरम्भ व समाप्ति काल पृथ्वी पर सभी स्थानों पर एक सामान होने से उनका सार्वभौम सन्दर्भ सरलता पूर्वक दिया जा सकता है. दूसरी ओर अंग्रेजी तारीखें मध्य रात्रि से बदलती हैं और मध्य रात्रि का समय भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग होता है, जिसमें 24 घण्टे तक का अंतर आ जाता है. उदाहरणतः भारत व अमरीका में मध्य रात्रि में साढ़े बारह घण्टे तक का अंतर होने पर भी हिन्दू तिथियों में परिवर्तन तो एक ही समय होता है. लेकिन तारीख बदलने के समय में सदैव 12 घण्टे 30 मिनट तक का अंतर आ जाता है और “अंतरराष्ट्रीय तारीख रेखा” अर्थात इंटरनेशनल डेट लाइन के पूर्व एवं पश्चिम में तो तारीखों में सदैव ही एक दिन का अन्तर रहता है. पृथ्वी पर न्यूजीलैण्ड में मध्यरात्रि सबसे पहले प्रारम्भ होने से अंग्रेजी तिथि से नव वर्ष का समारोह सर्व प्रथम वहीं प्रारम्भ होता है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय दिनांक रेखा की उल्टी दिशा में कुक द्वीप पर जाकर 23 घण्टे बाद पुन: नव वर्ष की पूर्व सन्ध्या मना सकते हैं. इसी प्रकार समोआ व अमेरिकी समोआ एक दूसरे से मात्र 165 किमी. दूरी पर हैं, लेकिन समोआ विश्व में सबसे पहले नववर्ष मनाता है और उससे 165 किमी दूर अमेरिकी सामोआ में एक दिन बाद जनवरी 1 को नववर्ष मनाया जाता है.

भारतीय तिथियों की दृष्टि से यदि अभी ईस्वी सन् 2022 के हिन्दू नववर्ष के प्रथम दिन का ही विचार करें अर्थात नव वर्ष या नव संवत्सर जो शनिवार 2 अप्रैल, 2022 को मनाया जाएगा. उसके पूर्ववर्ती दिन 1 अप्रैल को दिन में 11:53 बजे तक अमावस्या समाप्त होकर प्रतिपदा तिथि का प्रवेश हो रहा है. इस समय पृथ्वी पर चाहे कहीं रात्रि हो या दिन अथवा चाहे वहाँ प्रातःकाल हो या सायंकाल, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा सभी स्थानों पर उस एक ही समय पर एक साथ प्रारम्भ होगी. इस क्रम में 2 अप्रैल को दिन में 11:58 बजे चाहे कहीं दिन हो या रात अथवा प्रभात हो या सायंकाल, उस एक ही समय पर प्रतिपदा समाप्त हो कर द्वितीया तिथि एक साथ ही प्रारम्भ होगी. इस प्रकार 1 अप्रैल को प्रातः: 11:53 मिनट तक अमावस्या होने व उसके बाद से दूसरे दिन 2 अप्रैल को 11 बज कर 58 मिनट तक प्रतिपदा या एकम अर्थात पहली तिथि रहेगी. इसलिए नव वर्ष आरंभ 2 अप्रैल को होगा. उसी दिन 2 अप्रैल को वर्ष प्रतिपदा व नवरात्रि का प्रारम्भ माना जाएगा. तदुपरान्त 3 अप्रैल को द्वितीया तिथि होगी. उस दिन द्वितीया तिथि दिन में 12:38 तक रहेगी. उसके बाद तृतीया तिथि लग जाएगी जो 4 अप्रैल मध्याह्न 1:54 तक रहेगी व फिर चतुर्थी लग जाएगी.

इस प्रकार इन तिथियों के उपरोक्त प्रारंभ व समाप्तिकाल सम्पूर्ण भूमण्डल पर सामयिक होने से समय का सन्दर्भ तिथि प्रवेश के उपरान्त के व्यतीत समय अवधि के रूप में दिए जाने पर वह सार्वभौम सन्दर्भ होगा अर्थात प्रतिपदा तिथि प्रवेश के 2 घण्टे उपरान्त सन्दर्भ देने पर वह सार्वभौम होगा, चाहे उस समय किसी भी देश या देशान्तर रेखा पर दिन हो या रात अथवा प्रभात हो या सायंकाल. दूसरी ओर यदि अंग्रेजी तारीख को सन्दर्भित कर यह लिखा जाये कि मार्च 31, 2014 को भारतीय समयानुसार प्रातः 7 बजे, तो उस समय अमरीका में 30 मार्च सायंकाल 6:30 बजे का समय होगा, इंग्लैंड में 30 मार्च का मध्य रात्रि 1:30 का समय होगा. बेकर द्वीप पर 30 मार्च का मध्यान्ह 1:30 का समय व थाइलैण्ड में 31 मार्च का प्रातः 10:30 बजे का संदर्भ आएगा. यह अत्यन्त उलझाने वाला होता है.

हिन्दू काल गणना की तिथियाँ, सूर्य व चन्द्रमा के बीच प्रति 12° कोणीय दूरी बढ़ने या घटने पर एक -एक कर बदलती हैं. पृथ्वी पर कहीं से भी चन्द्रमा व सूर्य के बीच की कोणीय या चापीय दूरी नापी जाये, वह सदैव एक समान ही दिखलाई देती है या नापने में एक सामान ही आती है. अतएव सम्पूर्ण भू-मंडल पर प्रत्येक हिन्दू तिथि एक साथ या एक ही समय परिवर्तित होती है. दूसरी ओर चंद्रोदय में भी स्थान भेद से एक दिन तक का अन्तर होने से अरब हिजरी तिथियों में भी विविध स्थानों की तिथियों व पर्वों या त्योहारों में एक दिन तक का अन्तर आ जाता है. हिन्दू गणनाओं के अन्तर्गत सम्पूर्ण भू-मंडल पर अमावस्या का आरंभ व अंत एक ही समय होता है, उसमें 1 मिनट का भी अन्तर स्थान भेदवश नहीं आता है. तिथियों में अमावस्या को सूर्य व चन्द्रमा एक ही रेखांश पर होते हैं. वहाँ से उनके (सूर्य व चंद्र के) बीच कोणीय अन्तर 12° तक होने तक शुक्ल प्रतिपदा रहती है व 12° से 24° का अन्तर होने तक द्वितीया, 24° से 36° की कोणीय दूरी होने तक तृतीया व इसी प्रकार 168°-180° के बीच पूर्णिमा व उसके बाद 180°-192° तक कृष्ण प्रतिपदा होगी. पृथ्वी से सूर्य व चंद्र की दूरी इतनी अधिक है कि सूर्य व चन्द्रमा के बीच की कोणीय दूरी कहीं से भी नापने पर वह एक समान ही दिखाई देती है.

भारतीय कालगणना में मासों की रचना व नामकरण भी, वर्ष भर में आने वाली 12 पूर्णिमाओं के नक्षत्रों को दृष्टिगत रखकर पूर्ण वैज्ञानिकता के आधार पर किया गया है. यथा चित्रा नक्षत्र में पूर्णिमा वाले मास का नामकरण चैत्र, विशाखा नक्षत्र में पूर्णिमा आने वाले मास का नाम वैशाख, ज्येष्ठा नक्षत्र में पूर्णिमा वाले मास का नाम ज्येष्ठ, उत्तराषाढ़ा में पूर्णिमा आने वाले मास का नाम आषाढ़, श्रवण नक्षत्र में पूर्णिमा आने पर श्रावण, अश्विनी में पूर्णिमा आने पर अश्विन और इसी प्रकार फाल्गुन पर्यन्त बारह मासों के नाम उन मासों कि पूर्णिमा के नक्षत्र के अनुसार निर्धारित किये गए हैं.

आंग्ल या अंग्रेजी मासों पर विचार करें तो 450 ईसा पूर्व तक रोमन कैलेण्डर में 10 महीने ही होते थे. इसके बाद जनवरी व फरवरी 2 माह जोड़े गए थे. सम्राट ज्यूलियस सीजर ने एक मास का नाम अपने नाम पर जुलाई कर दिया तो उसके भतीजे अगस्टस ने सम्राट बनने पर ‘सेक्सटिनिल’ नामक आठवें मास का नाम अगस्त कर लिया था. जुलाई में 31 दिन होते थे तो उसने भी यह सोचकर कि ‘मैं किसी से कम नहीं’ के भाव से अगस्त में भी 30 के स्थान पर 31 दिन करवा दिये. इसके लिए फरवरी में तब 29 दिन होते थे, वे घटा कर 28 करवा दिये. रोमन सम्राट क्लाडियस ने भी मई का नाम परिवर्तन करा कर अपने नाम पर क्लाडियस और नीरो ने अप्रैल मास का नाम अपने नाम पर नीरोनियस भी करवा लिया था. लेकिन, ये नाम अधिक दिन नहीं चल पाये और वापस अप्रैल व मई के नाम से ही संबोधित किये जाने लगे.

हिन्दू मासों के नाम के प्रणेता ऋषियों ने खगोलीय संयोगों के अनुरूप चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद आदि इन सभी मासों की पूर्णिमाओं की नक्षत्रों के अनुसार 5000 वर्ष पूर्व उसी अनुरूप किये, जब इन महीनों की पूर्णिमाएँ इन नक्षत्रों में आने लगी थीं. वस्तुत: प्रति 25,765 वर्षों में अयन चलन की एक आवृत्ति पूरी होती है. अयन चलन वस्तुत: पृथ्वी के घूर्णन की धुरी में, विविध ग्रहों के आकर्षण के कारण आने वाला लघु वृत्ताकार विचलन है, और इसी कारण प्रतिवर्ष बसंत सम्पात कुछ विकलाओं में पीछे सरकता जाता है. अयन चलन के कारण ही निरयन ग्रह गणनाओं में मकर संक्रांति 22 दिसंबर से 14 जनवरी तक आगे बढ़ गयी है और उसके बाद 15, 16 व 17 जनवरी इसी क्रम में आगे बढ़ती जाएगी. पाश्चात्य खगोलज्ञ आरम्भ में अयन चलन से अनभिज्ञ थे. लेकिन, उन्होंने अब मान लिया है कि अयन चलन होता है व भारतीयों द्वारा प्रयुक्त अयन चलन का मान खगोल शुद्ध है. इस अयन चलन के कारण जब ये पूर्णिमाएं चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा आदि मासों में आने लगी, तब ही इस खगोलीय क्रम के अनुसार विद्वान ऋषियों ने खगोलीय घटना चक्र के अनुरूप मासों का चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आदि नामकरण किया है. इससे पूर्व वैदिक काल में चैत्र, वैशाख आदि मासों के नाम मधु, माधव, शुक्र, नभ, नभस्य, ईश, ऊर्जा, सह, सहस्य, तप, तपस्या आदि प्रचलित थे. इसीलिए प्राचीन यजुर्वेद वाजसनेयी संहिता और तैत्तिरीय संहिता आदि में मासों के यही नाम मधु माधव आदि मिलते हैं. यही कारण है कि रामचरित मानस में भी चैत्र मास में राम नवमी के दिन भगवान राम के जन्म के मास का नाम ‘मधु’ मास लिखा है यथा: “नौमी तिथि मधुमास पुनीता, शुक्ल पच्छ अभिजीत हरी प्रीता”. इस चौपाई में चैत्र मास के स्थान पर वैदिक कालीन व रामायण कालीन मास का नाम “मधु मास” लिखा है.

पुरातात्विक अवशेषों की दृष्टि से अभी तमिलनाडु में कोडूमनाल में जिस 2500 वर्ष प्राचीन औद्योगिक नगर के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं, वहाँ तो उच्च गुणवत्ता का लोहा व इस्पात बनाने के उद्योगों, वस्त्रोद्योग व रत्न प्रविधेयन आदि के महानुमाप उत्पादन के प्रचुर प्रमाण मिले हैं. वहाँ पर रोम (इटली), मिश्र और थाईलैंड के सिक्के भी मिले हैं. अर्थात ढाई से तीन हजार वर्ष पूर्व हमारा व्यापार वहाँ तक फैला हुआ था. वहाँ उत्तर व दक्षिण भारत के नामों के संयुक्त लेख भी मिले हैं, वे आर्य-द्रविड़ विभाजन को भी निर्मूल सिद्ध करते हैं. आज जिन यूरो विट्रीफाइड टाइलों का विकास हम 21वीं सदी में यूरोप में हुआ मानते हैं, वैसे इस्पात उत्पादन के 2500 वर्ष पुराने विट्रीफाइड क्रूसिबल (कड़ाह) भी कोडूमनाल में मिले हैं. इनके साथ ही वहाँ पद्मासन की अवस्था में मिले प्राचीन 2500 वर्ष पुराने नर कंकाल उस काल में योग के प्रचुर चलन का भी प्रमाण देते हैं. आज हमारे प्राचीन शास्त्र, वाल्मीकि रामायण में वर्णित 10 लाख वर्ष प्राचीन चार दांत वाले हाथियों के वर्णनों से लेकर कोडूमनाल तक के औद्योगिक अवशेषों की अध्यन के साथ-साथ कोडूमनाल की तमिल ब्राह्मी लिपि से लेकर सिंधुघाटी सभ्यता में मिली लिपि और दक्षिणी अमेरिका में पेरू, चिली व बोलिविया के प्राचीन शिलालेखों की लिपि में यत्किंचित सभ्यता (समानता) के जो जो प्रारम्भिक अध्यन हुये हैं, उन्हें भी आगे बढ़ाने की आवश्यकता है. इनसे हम वैदिक, पौराणिक, रामायण कालीन, महाभारत कालीन और उसके परवर्ती कालीन इतिहास पर अधिक प्रकाश डाल सकेंगे. ढाई हजार वर्ष पुराने कोडूमनाल नगर की तमिल ब्राह्मी लिपि व सिंधु घाटी की 5000 वर्ष पुरानी लिपि में सम्बन्ध तो महाभारत काल से हमारी सभ्यता की निरंतरता को भी प्रतिपादित करेगा.

पुन: हिन्दू काल गणना की वैज्ञानिकता पर आते हुये यदि मासों व वर्ष मान पर विचार करें तो चंद्र मासों के साथ-साथ हमारे प्राचीन ऋषियों ने राशियों के नाम पर सौर मासों यथा संक्रांति से संक्रांति पर्यन्त राशि, कला व विकला में सौर मा के दिनक्रम के अंतर्गत 24-24 मिनट की घटियों तक के समय तक का अंकन एक साथ करने की जो परंपरा विकसित की थी, वह आज सौर वर्ष के ऋतुचक्र से समायोजन की अंग्रेजी दिनांक से भी अधिक व्यवस्थित व सूक्ष्म पद्धति रही है. यह अंकन आज भी पंचांगों व जन्म पत्रिकाओं में महादशा व अन्तर्दशा के आरम्भ व समाप्ति काल को इंगित करने हेतु किया जाता है. पुन: इन सौर मासों से चंद्र मासों का संतुलन करने के साथ-साथ करोड़ों वर्ष बाद भी चंद्र मासों का ऋतु चक्र से पृथक्करण नहीं हो जाए, इस हेतु संक्रांति रहित मास को ‘अधिक-मास’ की संज्ञा देकर प्रति तीन वर्ष में एक अधिक मास का प्रावधान कर दिया. इससे हमारे सभी पर्व और त्यौहार एवं वर्षों का प्रारम्भ करोड़ों वर्षों से सदैव उसी ऋतु में होता रहा है व आगे भी होता रहेगा. अरब हिजरी वर्ष मान भी 354 दिन का ही होने से प्रति तीन वर्ष में हिजरी नववर्ष व सभी त्यौहार लगभग, एक माह आगे बढ़ जाते हैं और 9 वर्ष में एक ऋतु से दूसरी ऋतु में चले जाते हैं. इस प्रकार 1400 सौर वर्षों में हिजरी वर्ष 1442 आ गया है.

पृथ्वी जिस गति सूर्य की परिक्रमा करती है, उसकी सटीक परिभ्रमण गति को भी पृथ्वी की दैनन्दिन गति के रूप में आर्यभट्ट ने 2000 वर्ष पूर्व ही आर्यभट्टीय में दे दिया था. अर्थात प्राचीन काल से ही भारतीयों को यह ज्ञान था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है. पृथ्वी की गति के सम्बन्ध में ऐतरेय ब्राह्मण में भी लिखा है कि सूर्य न उदित होता है और न अस्त होता है. सूर्य पृथ्वी के एक भाग को आलोकित करता है, तब दूसरे में व जब दूसरे को आलोकित करता है, तब पहले में अन्धकार होता है. यही नहीं पुराणों में वर्णित प्रमुख पाँच विषयों सर्ग (सृष्टि) प्रति सर्ग (प्रलय) आदि में सर्ग या सृष्टि खंड में यह भी वर्णन आता है कि सूर्य भी एक महा सूर्य की परिक्रमा 49 हजार योजन प्रति-घटी की गति से कर रहा है. आधुनिक खगोलवेत्ताओं के अनुसार, सूर्य हमारी इस आकाश गंगा में एक अति शक्तिशाली कृष्ण विवर (ब्लैक होल) की लगभग 7.45 लाख किमी. प्रति घंटा की गति से परिक्रमा कर रहा है और 21 करोड़ 60 लाख वर्ष में वह उसकी एक परिक्रमा पूरी करता है. इतनी अवधि में 50 चतुर्युगियां व्यतीत हो जाती हैं. हमारी पौराणिक काल गणनाओं के अनुसार 43.20 लाख वर्ष में एक चतुर्युगी पूरी होती है, जिसमें 4.32 लाख वर्ष का कलयुग, 8.64 लाख वर्ष का द्वापर, 12.96 लाख वर्ष का त्रेता और 17.28 लाख वर्ष का सतयुग होता है. इकहत्तर चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर और 14 मन्वन्तर अर्थात 1000 चतुर्युगियों का ब्रह्मा जी का एक दिन, ऐसे 360 दिन का ब्रह्मा जी का एक वर्ष व 100 वर्ष की एक ब्रम्हा जी की आयु होती है. एक ब्रम्हा के बाद दूसरे ब्रह्मा जन्म लेते हैं व सृष्टिक्रम चलता रहता है. इस क्रम में हमारी आकाश गंगा की, इस सृष्टि के ब्रम्हा जी के 50वें वर्ष के स्वेत्वाराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर का 28वां कलयुग चल रहा है. तदनुसार हमारी इस आकाशगंगा की वर्तमान सृष्टि से युक्त यह 195,58,85,115वां वर्ष पूर्ण हो गया है.

हमारे पुराणों के अनुसार हमारी इस सृष्टि से युक्त यह जो आकाशगंगा अर्थात तारा मंडल हमें दिखायी देता है वैसे असंख्य तारा मंडल या आकाशगंगाएं अनंत ब्रह्माण्ड में विस्तीर्ण हैं. देवी भागवत में आद्या शक्ति द्वारा त्रिदेवों को या रामायण में भगवान राम द्वारा काकभुशुण्डि को मन की गति से भ्रमण कराते हुये एक के बाद एक जिन आकाशगंगाओं का कहीं अंत नहीं होने के दिग्दर्शन का वर्णन किया गया है. इन वृत्तांतों की अब वैज्ञानिक पुष्टि हो रही है कि ब्रह्माण्ड में 20 खरब से अधिक आकाशगंगाएं हैं, एक आकाशगंगा का विस्तार लगभग 1,00,000 प्रकाश वर्ष है. इस प्रकार पूरे ब्रह्माण्ड के विस्तार का भी सटीक वर्णन पुराणों में किया है.
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश के पूर्व कुलपति तथा स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

gaziantep escort bayangaziantep escortkayseri escortbakırköy escort şişli escort aksaray escort arnavutköy escort ataköy escort avcılar escort avcılar türbanlı escort avrupa yakası escort bağcılar escort bahçelievler escort bahçeşehir escort bakırköy escort başakşehir escort bayrampaşa escort beşiktaş escort beykent escort beylikdüzü escort beylikdüzü türbanlı escort beyoğlu escort büyükçekmece escort cevizlibağ escort çapa escort çatalca escort esenler escort esenyurt escort esenyurt türbanlı escort etiler escort eyüp escort fatih escort fındıkzade escort florya escort gaziosmanpaşa escort güneşli escort güngören escort halkalı escort ikitelli escort istanbul escort kağıthane escort kayaşehir escort küçükçekmece escort mecidiyeköy escort merter escort nişantaşı escort sarıyer escort sefaköy escort silivri escort sultangazi escort suriyeli escort şirinevler escort şişli escort taksim escort topkapı escort yenibosna escort zeytinburnu escort