आधुनिक भारत के प्रणेता जनजाति बंधु

वर्तमान में भारत तीव्रता से स्वयं को विकसित बनाने के लिए परिवर्तित हो रहा हैं रहा है जिसके चलते तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है। वैश्विक स्तर की तकनीकी के प्रयोग से लेकर आत्मनिर्भरता तक, सभी क्षेत्रों में भारत नए आयामों को प्राप्त कर रहा है। पर्यावरण संरक्षण के लिए कम से कम कार्बन उत्सर्जन का विषय हो या बदलती जलवायु के लिए किया जा रहा चिंतन हो, या नवीनकरणीय ऊर्जा के प्रयोग पर बल दिया जा रहा हो, भारत सभी को ध्यान में रखते हुए और उन पर उचित एवं सकारात्मक कार्य करते हुए आगे जा रहा है। वर्तमान में भारत जिस आधुनिकता की ओर अग्रेसर हो रहा है, उसके मूल में भारत में रहने वाले जनजातीय समाज की जीवन शैली और चिंतन विद्यमान है।

यदि हम वर्तमान में जो विषय हमारे सामने आ रहे हैं उनकी सकारात्मक तुलना जनजातीय जीवन से करेंगे, तो पाएंगे कि भारत का जनजातीय समाज हमेशा से ही आधुनिक विचारों का समर्थक एवं पोषक रहा है। यदि हम आत्मनिर्भरता के आधार पर विकसित भारत की बात करेंगे, तो देखेंगे कि भारत का जनजातीय समाज प्रारंभ से ही आत्मनिर्भर रहा है। जनजातीय समाज की लगभग सभी आवश्यकताएं प्रकृति से ही पूर्ण हो जाती है। जनजातीय समाज के बंधू अपने आसपास उपलब्ध साधनों एवं वस्तुओं से ही अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर लेते है। स्थानीय व्यापार और व्यवसाय को मजबूती देने के लिए एवं स्थानीय अर्थतंत्र को सुदृढ़ करने के लिए भी हाट बाजार और मेलें जैसे अनेक उपायों को करने में सक्षम होते है।

आत्मनिर्भरता केवल दैनिक दिनचर्या तक ही सीमित नहीं रहती है, बल्कि अपने परिक्षेत्र की सुरक्षा आदि की व्यवस्था भी स्वयं की तकनीक के द्वारा विकसित किये उपकरणों से की जाती है, तथा अपने स्वयं के द्वारा बनाएं गए सुरक्षा उपकरणों का ही प्रयोग में लिया जाता है। वर्तमान में भारत की रक्षा प्रणाली भी स्वदेशी तकनीक से ही आगे बढ़ रही है। भारत में निर्माण होने वाले सुरक्षा उपकरणों के विकसित होने के पीछे जनजाति समाज की मूल विचार विद्यामन हैं। जो उदाहरण है कि भारत के जनजातीय समाज के विचार और चिंतन भारत के आधुनिक विचारों से कितना मिलता जुलता है।

भारत सरकार हुनर हाट और हस्तशिल्प मेले जैसे उपक्रमों को बढ़ावा देने का काम कर रही हैं। किन्तु भारत के जनजाति क्षेत्रों में हाट बाजार और मेले की परंपरा हजारो वर्षो से चली आ रही हैं। भारत के ग्रामीण और जनजाति क्षेत्रों में हाट बजार की बहुत पुरानी व्यवस्था है। जो वर्तमान में भी उसके मूल स्वरूप में दिखाई देती है। सप्ताह के सातों दिनो के अनुसार हाट बजार अलग-अलग स्थानों पर लगते है। हाट बाजार स्थानीय व्यवसाय और व्यापार को बढ़ाने का उत्तम उपाय है। जिससे स्थानीय अर्थतन्त्र को मजबूती तो मिलती है साथ ही उस क्षेत्रों के लोगों का आर्थिक विकास भी होता है । मध्यप्रदेश समेत सम्पूर्ण भारत के विभिन्न जनजातीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भी हाट बाजार की परम्परा रही है। हाट बाजार मे दैनिक उपयोग से लेकर खाने पीने की वस्तुओं तक सभी उपलब्ध रहती है। जिसकी ख़रीदारी बड़े स्तर पर की जाती है।

मध्यप्रदेश के झाबुआ क्षेत्र में भी जनजातीय हाट बाजार और मेले की परम्परा है। झाबुआ का भगोरिया मेला विश्व विख्यात है। इसी प्रकार उज्जैन के पास घोंसला मे प्रति रविवार पशु मेला और हाट लगता है। जिसमे उज्जैन संभाग के अनेक क्षेत्रों से लोग आते है और अपनी आवश्यकता के अनुसार पशुओं की खरीदी-बिक्री करते है। उज्जैन में लगने वाला कार्तिक का मेला भी एक अनुपम उदाहरण है। विभिन्न समय पर लगने वाले हस्तशिल्प मेले भी जनजातीय समाज से ही जुड़े रहते है। उज्जैन में कालिदास अकादमी में लगने वाला हस्तशिल्प मेला भी प्रख्यात है। जनजातीय एवं ग्रामीण वर्गो द्वारा बनाई गयी वस्तुओं की खरीदी के लिए शहरों से लोग उन मेलो में जाते है। इसी प्रकार महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में लगने वाला कछारगढ़ का तीन दिवसीय मेला भी प्रख्यात है।

समय-समय पर विभिन्न स्थानों पर लगने वाले हाट बाजार और मेलों के द्वारा क्षेत्रीय अर्थव्यसथा को बल मिलता है। सही अर्थो में भारत को आत्मनिर्भर बनाने और स्थानीय वस्तुओं के प्रयोग को बढ़ावा देने में मेले और हाट बाजार भारतीय अर्थव्यसथा की रीढ़ है। एक और जहा बड़ी बड़ी कंपनीया और कारखाने शहरों में रहने वालों की आवश्यकताओ की आपूर्ति में असमर्थ होते है। वही भारत के जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में लगने वाले हाट बजार और मेले लगभग सभी क्षेत्रों की क्षुधा को शांत करते है।

प्रकृती से अधिक निकट होने के कारण जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले नागरिक प्रकृति को ध्यान में रखते हुये अपने उपभोग की वस्तुओं की व्यवस्था करते है। जनजातीय समाज में प्रकृति से ही लेकर पुनः उसे अर्पित करने की शिक्षा निरंतर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है। प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं से उपयोगी वस्तुओं के निर्माण में लागत कम होने से उनकी कीमतों पर अधिक प्रभाव भी नहीं पड़ता है। जिससे सभी वर्गो के लोग सरलता से वस्तुओं की खरीदी आदि करने में सक्षम होते है। जनजातीय और ग्रामीण क्षेत्रों में हाट बाजार और मेलो के माध्यम से आत्मनिभर्ता का अनुपम उदाहरण देखने के लिए मिलता है।

आधुनिक भारत के निर्माण और खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए आत्मनिर्भर बनने तथा स्वास्थ्य के अनुकूल खाद्यान्न के उत्पादन के लिए कृषि के क्षेत्र में ऑरगेनिक फार्मिंग अर्थात जैविक खेती को अपनाया जा रहा है, लेकिन हम भारत के जनजातीय समाज की कृषि व्यवस्था को देखेंगे तो पाएंगे कि वे प्रारंभ से ही जैविक खेती ही कर रहें और वर्तमान में भी इसी को अपनाकर रखा हुआ है। प्रकृति से अधिक निकटता के कारण प्राकृतिक खेती के अनेक उपायों को जनजातीय समाज द्वारा किया जाता रहा है। यही आधुनिक भारत का मूल भी है।

प्रदूषण की रोकथाम एवं कार्बन उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से भारत समेत सम्पूर्ण विश्व में अनेक कार्यों को किया जा रहा है तथा नवीनकरणीय ऊर्जा के प्रयोग पर बल दिया जा रहा है किन्तु भारत का जनजातीय समाज प्रारंभ से ही ऊर्जा के स्त्रोतों के रूप में गाय के गोबर, जलाऊं लकड़ी एवं प्राकृतिक संसाधनों का ही उपयोग करता आया है। जिससे पर्याप्त ऊर्जा के साथ ही प्रदूषण पर नकारात्मक प्रभाव को रोकने में सहायता होती है। भारत का जनजातीय समाज प्रारंभ से ही प्रकृति पूजक रहा है।

इसी प्रकार ही अनेक विषय है जिनके द्वारा हम समझ सकते है कि आधुनिक भारत के निर्माण में भारत के जनजातीय समाज का योगदान एवं विचार अधिक महत्वपूर्ण है। अर्थव्यवस्था का क्षेत्र हो या भारत को आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना हो या भारतीय परिक्षेत्र की सुरक्षा की व्यवस्था हो या कृषि आधारित कार्य हो, सभी क्षेत्रों में भारत का जनजातीय समाज प्रारंभ से ही अग्रेसर रहा है। भारत को केवल भौतिक रूप से ही आधुनिक नहीं बनाना है अपितु भारत वैचारिक रूप से आधुनिक हो, इसी की प्रेरणा जनजातीय समाज हमें भी देता है। भारतीय जनजातीय समाज का मूल मंत्र भी यही है कि ‘जीतनी आवश्यकता है उतना ही उपयोग किया जाए, बाकि पुनः लौटा दिया जाए।’

  • सनी राजपूत
    अधिवक्ता एवं कर सलाहकार
    उज्जैन

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