मध्यभारत में राष्ट्रीय विचारो की पत्रकारिता के पुरोधा: श्री माणिकचन्द्र वाजपेयी उपाख्य ‘मामाजी’

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श्री माणिक चन्द्र वाजपेयी जिन्हें उनके सारे परिचित स्नेह से मामाजी के नाम से पुकारते थे, का स्मरण होते ही आंखो के सामने उनकी अनेक स्मृतियां साकार हो जाती है। गेहुंआ रंग, छोटे बाल, लंबी चोटी, बड़ी बड़ी मूंछे, नाक पर चश्मा, सफेद धोती कुर्ता पहने हुए मामाजी को जब मैने पहले पहल देखा तब मै कोई 13-14 वर्ष का किशोर स्वयंसेवक रहा हूंगा। 24 इंची डंडे वाली ऊंची सायकल पर सवार होकर मामाजी तेज पैडल मारते हुए हमारी सायं शाखा के किसी उत्सव में बौद्धिक देने आए थे। अपनी मधुर वाणी तथा स्नेह पूर्ण व्यहवार से उन्होंने हम बाल स्वयं सेवकों को बहुत प्रभावित किया था। उसी दिन से मेरी मामाजी से जो घनिष्ठता हुई वह निरंतर बनी रही।
इंदौर आने के पूर्व मामाजी भिंड में थे। स्वदेश के निमित्त संघ की योजना से वे इंदौर आए। और यही के हो गए। यही रह कर उन्होंने राष्ट्रीय विचारो की पत्रकारिता को दिशा दी। और मध्यभारत में राष्ट्रीय विचारो की पत्रकारिता के जनक कहलाए।
वैसे तो मध्यभारत स्वतंत्रता के पूर्व मराठा रियासतों के द्वारा शासित होने के कारण प्रारंभ से ही राष्ट्रीय विचारो से प्रभावित रहा है। मगर दैनिक स्वदेश के प्रारंभ होने तक राष्ट्रवादी विचारो से प्रेरित व्यापक प्रभाव वाला कोई भी समाचार पत्र मध्यभारत क्षेत्र में नहीं था। इस क्षेत्र में अपना व्यापक प्रभाव रखने वाला एक मात्र अखबार इंदौर से प्रकाशित होने वाला \’नईदुनिया \’ यह था जो सत्ताधारी कांग्रेस से प्रभावित होकर निरंतर राष्ट्रीय विचारो के दमन का प्रयास करता रहता था। ऐसी परिस्थिति में संघ विचारो से प्रेरित लोगो ने 1966 में इंदौर से राष्ट्रीय विचारो के दैनिक स्वदेश का शुभारंभ किया।
श्री माणिकचन्द्र वाजपेयी उपाख्य मामाजी स्वदेश के सारथी बनकर इंदौर आए और शीघ्र ही उसके पर्याय बन गए। प्रारंभ में उपसंपादक, फिर संपादक, प्रधान संपादक तथा सलाहकार संपादक के रूप में उन्होंने स्वदेश को लगभग साढ़े तीन दशक तक दिशा दी। इस अवधि में अपनी सशक्त कलम से उन्होंने जहां जनमानस को राष्ट्रीय विचारो से शिक्षित किया वहीं सम विचारो के अनेक लेखक तथा पत्रकार भी तैयार किए।
स्वदेश को प्रारंभ हुए अभी कुछ ही समय हुआ था, मामाजी के कलम की धाक अभी जमना शुरू ही हुई थी, कि अचानक इंदौर में हिंदकेसरी पहलवान मास्टर चंदगीराम पर हुए प्राणघातक हमले के कारण शहर हिन्दू मुस्लिम दंगे में झुलस गया। सारे समाचार पत्र सरकारी दबाव के चलते मामले में लीपापोती करते रहे। हिन्दुओं का पक्ष उठाने को कोई तैयार नहीं था। ऐसे समय स्वदेश ने निडर होकर दंगे की सम्पूर्ण कारण मीमांसा पाठको के समक्ष रखी। मामाजी ने दंगे के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लंबी लेखमाला लिखी जो बहुत चर्चित तथा लोकप्रिय हुई। लेखमाला को विस्फोटक बताते हुए शासन ने स्वदेश पर प्रतिबंध लगाकर मामाजी को गिरफ्तार कर लिया। न्यायालय के हस्तक्षेप तथा जन आंदोलन के बाद स्वदेश पुनः प्रारंभ हो सका। इस घटनाक्रम से स्वदेश की लोकप्रियता अत्यधिक बढ़ गई। यह मामाजी के धारदार लेखन का ही प्रभाव था कि उन दिनों स्वदेश की प्रसार संख्या अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी।
मामाजी स्वयं तो लिखते ही थे, उन्होंने राष्ट्रीय विचारो के अनेक नए लेखक भी तैयार किए तथा उन्हें स्वदेश में स्थान दिया। मामाजी की प्रेरणा तथा मार्गदर्शन से एक पुराने कांग्रेसी राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता चौधरी फैजुल्ला ने मुस्लिम मानसिकता पर लंबी लेखमाला स्वदेश में लिखी जो बहुत लोकप्रिय हुई। इसी प्रकार मंदसौर जिले के राष्ट्रवादी विचारों वाले एक सुधारवादी बोहरा युवक श्री मुज्जफर हुसैन ने भी मामाजी की प्रेरणा से स्वदेश में लेखन शुरू किया। आगे चलकर वे इतने सिद्धहस्त लेखक बन गए कि देशभर के अनेक वृत्तपत्रों में उनके स्तंभ नियमित छपने लगे।
मामाजी ने राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान, साहित्य, संस्कृति, कला, सिनेमा, खेल आदि विविध विषयों पर लिखने वाले नए लेखक तैयार किए तथा उनको अपने कुशल मार्गदर्शन द्वारा संवार कर उत्तम लेखक बनाया।
मामाजी के कारण ही उन दिनो स्वदेश को पत्रकारो का प्रशिक्षण केंद्र कहा जाता था। क्योंकि मामाजी ने स्वदेश में नए पत्रकारों की फौज ही तैयार कर दी थी। उन दिनों विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का कोई औपचारिक पाठ्यक्रम नहीं था। इस कारण समाचार पत्रों में कार्य के लिए आनेवाले युवकों को पत्रकारिता का \’ क ख ग \’ भी सिखाना पड़ता था। इसलिए पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना भविष्य बनाने के इच्छुक युवक किसी अन्य अखबार के बजाय स्वदेश में नौकरी के लिए आना पसंद करते थे क्योंकि उन्हें पता होता था कि मामाजी के मार्गदर्शन में उन्हें बहुत सीखने को मिलेगा। और वास्तव में इन युवकों को मामाजी के मार्गदर्शन में इतना सीखने को मिलता था कि थोड़े समय में ही वे पत्रकार के रूप में मंज जाते थे। भले ही इनमें से अधिकांश बादमें अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए अन्य समाचार पत्रों में चले जाते थे मगर मामाजी के प्रति उनका स्नेह तथा सम्मान हमेशा बना रहता था। उनके अनेक शिष्य आज भी राष्ट्रीय विचारो की पत्रकारिता की ज्योत दिल में जलाए देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कार्य करते मिल जायेंगे।
मामाजी पत्रकारिता के विद्यार्थियों को प्रशिक्षण देने में कितने कुशल थे इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण मुझे स्मरण हो रहा है। वर्ष तो पक्का याद नहीं। मगर सम्भवतः वर्ष 90 के आसपास की घटना होगी। संघ के प्रचार विभाग के तत्वावधान में हमने स्वदेश के सहयोग से इंदौर में नए पत्रकारों के प्रशिक्षण के लिए दो सप्ताह के अभ्यास वर्ग का आयोजन किया था। मामाजी उस अभ्यास वर्ग मेें मार्गदर्शन के लिए अधिष्ठाता के रूप में पूरे समय उपस्थित थे। पत्रकारिता के अलग अलग विषयों के विशेषज्ञो को अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था। मुंबई से श्रीमुज्जफर हुसैन को भी बुलाया था। मामाजी लगभग प्रत्येक सत्र में उपस्थित रहकर अपना अभिमत देते थे। तब तक विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का औपचारिक पाठ्यक्रम प्रारंभ हो चुका था। अभ्यास वर्ग में भाग लेनेवाले अधिकांश प्रशिक्षु पत्रकार वहीं थे जो विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर नए नए नौकरी में लगे थे। सभी ने पूरी तन्मयता के साथ प्रशिक्षण लिया। अभ्यास वर्ग के पश्चात प्रशिक्षणार्थियों से वर्ग के सम्बन्ध में उनके अनुभवों का पत्रक भरवाकर संग्रहीत किया गया था। अपने फीड बेक में अधिकांश विद्यार्थियों ने लिखा था कि विश्वविद्यालय में अपने अध्ययन के दौरान दो वर्ष में भी हमे जितना सीखने को नहीं मिला था, उससे कहीं ज्यादा हमे इन दो सप्ताहों में सीखने को मिला है। सभी ने मामाजी की अध्यापन शैली की भी प्रशंसा की थी। इस अभ्यास वर्ग मेें भाग लेने वाले प्रशिक्षणार्थियों में अधिकांश संघ पृष्ठभूमि के नहीं थे। मगर मामाजी उनमें राष्ट्रीय दृष्टिकोण निर्माण करने में सफल रहे थे। यह उस अभ्यास वर्ग की सफलता थी। आज उन प्रशिक्षणार्थियों में से अधिकांश पत्रकारिता में ऊंचे स्थानों पर है। और राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार भी करते है। यह उनको हुए मामाजी के पारस स्पर्श का ही परिणाम है।
स्वदेश के संपादक रहते मामाजी संघ के कार्यक्रमों के अतिरिक्त नगर के अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमो अथवा सामाजिक, सांस्कृतिक या साहित्यिक कार्यक्रमो में कम ही भाग लेते थे। उनका सबेरे से देर रात तक का अधिकांश समय स्वदेश कार्यालय में ही बीतता था। फिर भी समाज में मनीषी पत्रकार के रूप में उनकी एक अलग पहचान थी। आदर्श पत्रकार के रूप में उनको पत्रकारों मेें भी बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।
सामान्यता सभी स्थानों पर प्रेस क्लबों के चुनाव पत्रकारों की आपसी गुट बाजी तथा प्रतिस्पर्धा के माहौल में हमेशा ही बड़े कशमकश पूर्ण होते है। मगर इंदौर प्रेस क्लब के सभी पत्रकारों ने मामाजी की अनिच्छा के बावजूद उन्हें आग्रह पूर्वक निर्विरोध प्रेस क्लब का अध्यक्ष बनाया था। यह उनका सम्मान ही था।
आज मामाजी नहीं है। मगर मध्य भारत के पत्रकार जगत में वे एक आदर्श के रूप में स्थापित है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर उनको शत शत नमन।

– श्री अरविन्द जी जवलेकर

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