प्रलोभन छोड़ मृत्यु का वरण करने वाले बलिदानी पिता-पुत्र : राजा शंकर शाह एवं कुंवर रघुनाथ शाह

(18 सितंबर – बलिदान दिवस)

\”बलि-पंथी को प्राणों का मोह न होता,

कर्तव्य मार्ग में मिलन-बिछोह न होता।

अपने प्राणों से राष्ट्र बड़ा होता है,

हम मिटते हैं तब राष्ट्र खड़ा होता है।\”

श्रीकृष्ण \’सरल\’ की ये पंक्तियां प्रेरक तो हैं ही, इतिहास प्रेरित और समयसिद्ध भी हैं।स्वतंत्रता का समर जब राष्ट्र सेवकों के लिए प्रतिष्ठा और जीवन मरण का विषय हो गया था । सकल हिंदु समाज की हर श्वास में जब स्वतंत्रता ही मुख्य ध्येय बन गया था समूचे राष्ट्र में स्वतंत्रता के लिए बलिदान प्राणोत्सर्ग की जैसे प्रतिस्पर्धा लग गई हो दसों दिशाओं में राष्ट्र के लिये न्योछावर होने के लिये हर कोई तैयार खड़ा था।  हम आज बात कर रहें स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में इतिहास से अनदेखे हुए ऐसे ही बलिदानी पिता- पुत्र अमर बलिदानी राजा शंकर शाह व कुँवर रघुनाथ शाह की ।

1857 के विद्रोह की ज्वाला सम्पूर्ण भारत में धधक रही थी। अपनी

मातृभूमि को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के लिए शंकर शाह व रघुनाथ शाह ने  युद्ध का आह्वान किया था। इस संग्राम में रघुनाथ शाह ने अपने पिता का बढ़-चढ़कर सहयोग किया था। राजा शंकर शाह, निजाम शाह के प्रपौत्र तथा सुमेद शाह के एकमात्र पुत्र थे। उनके पुत्र का नाम रघुनाथ शाह था। राजा शंकर शाह जमींदारों तथा आम जनता के बीच काफी लोकप्रिय थे। भारत में अनेक क्रांतिवीरों की गाथाएं प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक है पिता-पुत्र शंकर शाह-रघुनाथ शाह की वीर और देशभक्त जोड़ी जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आमजनों में एक अनूठा ज्वार पैदा किया था।

मध्यप्रदेश के महाकौशल क्षेत्र ने भी रानी दुर्गावती, महाराजा छत्रसाल, रानी अवंतीबाई लोधी जैसे रणबांकुरों की एक विस्तृत परंपरा रही है। 1857 के स्वातंत्र्य समर में जब सारे देश में क्रांति की ज्वाला भड़की तब जबलपुर के महाराजा शंकर शाह और उनके पुत्र कुंवर रघुनाथ शाह प्रेरणा-पुंज बनकर आगे आए और देश-धर्म की रक्षा के लिए बलिदान हो गए। तारीख थी 18 सितंबर, 1857 अपने राजा के पदचिन्हों पर चलकर बलिदान होने वाले लोगों में समाज के सभी वगोंर् के नागरिक और राज-कर्मचारी शामिल थे। राजा शंकर देव की पत्नी फूलकुंवर ने अपने पति के बलिदान होने के बाद स्वतंत्रता की अग्नि को प्रज्वलित रखा। इस बलिदान शृंखला ने जबलपुर छावनी में तैनात अंग्रेजी सेना की 52वीं बटालियन के भारतीय सैनिकों के ह्दय में क्रांति की ज्वाला सुलगा दी। उन्होंने राजा शंकर शाह को अपना राजा घोषित कर दिया और अंग्रेजी राज के विरुद्ध शस्त्र उठा लिए। यह आत्मविश्वास जगाने वाला, धरती से रागात्मक संबंध को दृढ़ करने वाले तथ्य है, लेकिन ये बलिदानी

हमेशा की तरह यहां भी देश के सरकारी इतिहास लेखकों द्वारा उपेक्षित ही रहे।

देश में जब 1857 की क्रांति-ज्वाला पूरी शक्ति के साथ धधक रही थी, और कमल तथा रोटी का संदेश गांव-गांव पहुंच रहा था, तब गढ़ा पुरवा (जबलपुर) के राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह के हृदय में भी स्वतंत्रता की अग्नि सुलग रही थी। वे जबलपुर की अंग्रेज सैन्य छावनी पर आक्रमण कर वहां तैनात भारतीय सैनिकों की मदद से अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकने की योजना बना रहे थे। गद्दारों की सहायता से अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई ओर ठोस सबूत जुटाने के लिए जासूसों की फौज लगा दी गई। अंतत: 14 सितंबर, 1857 की मध्यरात्रि को डिप्टी कमिश्नर क्लार्क ने ब्रिटिश सिपाहियों के साथ राजा शंकर शाह की गढ़ी पर अचानक आक्रमण कर राजा शंकर शाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह और 13 अन्य लोगों को बंदी बना लिया। तलाशी के दौरान अंग्रेजों को संदिग्ध सामग्री की जब्ती की गई, जिसमें राजा द्वारा अपने सरदारों को लिखा हुआ आज्ञा पत्र और उनके द्वारा लिखी गई यह कविता उनके हाथ लगी—

\”मूंद मुख इंडिन को चुगलों को चबाई खाइ,

खूंद दौड़ दुष्टन को, शत्रु संहारिका।

मार अंग्रेज, रेज, कर देई मात चण्डी,

बचौ नहीं बैरि, बाल बच्चे संहारिका।

संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपालकर

दीन की सुन आय मात कालिका।

खायइ लेत मलेछन को, झेल नहीं करो अब

भच्छन कर तच्छन धौर मात कालिका।\”

इस कविता को आधार बनाकर मुकदमा चलाया गया। पिता-पुत्र को पीली कोठी में बंदी बनाकर रखा गया था। इमलाई राजवंश के वंशज बताते हैं कि उनके सामने तीन शर्तें रखी गयी थीं-

\"\"

1-अंग्रेजों से संधि, (समर्पण करना)

2-अपने धर्म का त्याग कर ईसाइयत को अपनाना, (धर्मान्तरण करना) और

3-पुरस्कार स्वरूप ब्रिटिश सत्ता से पेंशन प्राप्त करना। (ब्रिटीश राज के प्रति निष्ठावान होना)

धर्मनिष्ठ ओर स्वाभिमानी राजा शंकर शाह ने इससे साफ इंकार कर दिया। तब अंग्रेज सत्ता ने डिप्टी कमिश्नर क्लार्क व दो अन्य ब्रिटिश अधिकारियों का सैनिक आयोग बनाया। पिता-पुत्र और उनके अन्य साथियों पर अभियोग चलाने का स्वांग रच गया, सभी पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध बागी होने का आरोप सिद्ध किया गया और तोप से बांध कर मृत्यु देने का पूर्व निर्धारित निर्णय दिया गया।

18 सितंबर, 1857 के दिन फांसी परेड हुई और एक अहाते में जन-समुदाय को निमंत्रित कर के राजा शंकर शाह एवं कुंवर रघुनाथ शाह को तोप के मुंह पर बांध दिया गया। आजादी के दोनों दीवानों ने अपनी आराध्य देवी से प्रार्थना की, तोपें दाग दी गयीं और भारत के इन बेटों ने स्वाधीनता के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। विशेषज्ञ बताते है कि ब्रिटिश शासन द्वारा जानबूझ कर राजा और कुंवर को तोप से उड़ाया गया ताकि उनके अवशेष न मिल सके ओर अंतिम संस्कार की क्रिया न हो सके। अंग्रेजों को भय था कि उनके

मृत शरीर को देख कर जनता विद्रोह कर सकती है, साथ ही दूसरे राजा और क्रांतिकारियों के मन मे भी पैदा करना भी इसका एक कारण था। पति और बेटे के प्राणोत्सर्ग के बाद विधवा रानी फूलकुंवर बाई ने दोनों शवों के अवशेषों को जैसे तैसे एकत्र कर उनका अन्तिम क्रिया-कर्म करवाया तथा प्रतिज्ञा की कि \’जब तक मेरी सांसें रहेगी, यह युद्ध जारी रहेगा।\’

राजा के बलिदान ओर रानी के संकल्प से स्वतंत्रता समर की अग्नि धधक उठी ओर 52वीं रेजीमेंट ओर पाटन और स्लीमनाबाद स्थित सैनिक दस्तों ने ब्रिटिशर्स के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह कर दिया। राजा के बलिदान से महाकौशल क्षेत्र के अन्य राजाओं में अंग्रेजी राज के विरुद्ध रोष भड़क उठा। सागर, दमोह, सिहोर, सिवनी, छिंदवाड़ा, मंडला, बालाघाट, नरसिंहपुर आदि स्थानों पर क्रांति की चिनगारियां फूटने लगीं। दूसरी ओर शंकर शाह की विधवा रानी फूलकुंवर भी दुश्मन फिरंगियों से बदला लेने का संकल्प कर मण्डला आ गईं। उन्होंने सेना को संगठित कर फिरंगियों के खिलाफ छापामार युद्ध छेड़ दिया और अंतत: आत्मोत्सर्ग किया।

राजा शंकरशाह ओर कुंवर रघुनाथ शाह के त्याग और बलिदान की प्रेरणा 9 दशक बाद एक बार फिर दिखाई दी जब 26 फरवरी, 1946 को जबलपुर की ब्रिटिश सैन्य छावनी में सिग्नल ट्रेनिंग सेंटर की \’जे\’ कंपनी के भारतीय सैनिकों ने बलिदानी शंकर शाह और रघुनाथ शाह को अपना नायक घोषित कर अंग्रेज सत्ता के विरुद्ध बगावत कर दी। पिता पुत्र के बलिदान की यह गाथा आज की पीढ़ियों को भी प्रेरणा प्रदान करती है। देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में

उनके इस अद्वितीय योगदान को सदैव याद किया जाता रहेगा। भावों से भरा कृतज्ञ राष्ट्र अपने महान बलिदानियों को नमन करता है।

इस आलेख के लेखक श्री मनीष खेड़े है, आप सामुदायिक स्वास्थ्य एवं जनजातीय विषयों के विशेषज्ञ है एवं खरगोन के निवासी है।

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