रोहिंग्या और अफगानिस्तान के मुसलमान भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए तेजी से ईसाई बन रहे हैं ताकि नागरिकता संशोधन कानून का फायदा उठा सकें। ईसाई मत अपनाने वाले रोहिंग्या खुद को बांग्लादेश का ईसाई बता रहे हैं। सुरक्षा एजेंसियों ने सरकार को इस बारे में आगाह किया है। आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में 1,50,000-1,60,000 अफगान मुस्लिम और देशभर में 40,000 रोहिंग्या घुसपैठिए हैं
भारत सदियों से दुनियाभर में आध्यात्मिक खोज, ज्ञान और शांति चाहने वालों का पसंदीदा स्थान रहा है और हमेशा से ही बड़ी संख्या में ऐसे जिज्ञासुओं का यहां स्वागत किया जाता रहा है। लेकिन भारत पर इस्लामिक आक्रमण के बाद से स्थितियां बदलने लगीं। बड़ी संख्या में आए दुर्दांत आक्रान्ताओं ने भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संपदा को नष्ट करने का प्रयास किया। इसी क्रम में बड़े पैमाने पर विदेशों से मजहब विशेष के लोग टिड्डी दल की तरह भारत पर टूट पड़े। इसी के साथ बड़े पैमाने पर बलात कन्वर्जन के जरिये जनसांख्यिकी बदलने और राजनीतिक लाभ हासिल करने के प्रयास भी हुए, जिसमें काफी हद तक उन्हें सफलता भी मिली।
इस कारण मुगलों ने लंबे समय तक भारत पर शासन किया। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद व्यापार करने भारत आई ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस राजनीतिक निर्वात को भरने का काम शुरू किया। नई औपनिवेशिक शक्ति के रूप में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद शोषण के तरीकों में कुछ आमूलचूल बदलाव आए। अंग्रेजों के भारत पर शासन की शुरुआत के साथ ही नई तरह की घुसपैठ भी शुरू हुई, जिससे भारत में धार्मिक उत्पीड़न और कन्वर्जन का नया दौर शुरू हुआ, जिसके केंद्र में चर्च था। भारत को ईसाई बना लेने की महती आकांक्षाओं के साथ दुनियाभर के मिशनरीज ने भारत पर धावा बोला। हालांकि 15 अगस्त, 1947 को हम अंग्रेजों की गुलामी से आजाद तो हुए, पर धार्मिक उत्पीड़न और कन्वर्जन की प्रक्रियाएं आजादी के बाद भी नए रूप में जारी हैं।
मजहब के आधार पर देश का बंटवारा हुआ और मुसलमानों को नए देश के रूप में पाकिस्तान मिला। वहीं, भारत में मुसलमानों और ईसाइयों को न केवल समान अधिकार मिले, बल्कि कई मामलों में तो विशेषाधिकार भी दिए गए। वहीं, पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों के हिस्से में नारकीय जीवन ही आया। बाद में यही स्थिति बांग्लादेश की भी रही। इसलिए धार्मिक अल्पसंख्यक मदद के लिए भारत की ओर देखते थे, लेकिन पूर्ववर्ती सरकारें इन मुद्दों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाती रहीं और इस बड़ी आबादी को उसके हाल पर छोड़ दिया। वर्तमान भाजपा नीत राजग सरकार ने इन देशों में रहने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों को राहत प्रदान करने के उद्देश्य से नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) बनाया, जिसमें उन्हें भारत की नागरिकता देने संबंधी रक्षा उपाय किए गए। लेकिन भारत में एक विशिष्ट मानसिकता और विचारधारा वाले वर्ग ने इसका विरोध किया और इसे भेदभावपरक तथा भारत के पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध बताया। दूसरी ओर, पंथनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले लोग, जिन्होंने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए हमेशा धर्म का सहारा लिया, एक बार फिर धर्म की आड़ में अपने कुत्सित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए षड्यंत्र रचने में लगे हुए हैं।
कन्वर्ट होते रोहिंग्या!
सीएए में चूंकि ईसाइयों को भी छूट दी गई है, इसलिए अफगानी और रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को ईसाई मत में कन्वर्ट करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है ताकि वे भारतीय नागरिकता हासिल कर सकें। केंद्रीय सतर्कता एजेंसियों ने सरकार को इस नए षड्यंत्र के प्रति आगाह किया है। समाचारपत्र इकॉनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, अफगान मुसलमानों के ईसाई मत में परिवर्तित होने के लगभग 25 मामले सुरक्षा एजेसियों की निगाह में आए हैं। दक्षिण दिल्ली में एक अफगान चर्च के प्रमुख और एक परिवर्तित ईसाई आदिब अहमद मैक्सवेल के हवाले से समाचारपत्र ने लिखा है, ‘सीएए के लागू होने के बाद वैसे अफगान मुसलमानों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, जो ईसाई मत अपनाना चाहते हैं।’
भारत के सामने सबसे बड़ा प्रश्न राष्ट्रीय सुरक्षा का है और इसके लिए आवश्यक है कि ऐसे तत्व जो इसके लिए खतरा बने हुए हों और संभावित चुनौती प्रस्तुत करने में सक्षम हों, उन्हें चिह्ति कर जड़ से उनका उन्मूलन किया जाए।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, दिल्ली में 1,50,000-1,60,000 अफगान मुस्लिम रहते हैं। अधिकारियों का मानना है कि यूएनएचसीआर ने जिन अफगान और रोहिंग्या घुसपैठियों को शरणार्थी का दर्जा देने से इनकार कर दिया है या जो सीएए लागू होने की तारीख से पहले भारत आए थे, वैसे मुसलमान भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए कन्वर्जन का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में लगभग 40,000 रोहिंग्या मुसलमान हैं, जिनकी सबसे बड़ी संख्या जम्मू-कश्मीर में है। इनमें बड़ी संख्या में रोहिंग्या 2012 से पहले भारत में रह रहे हैं। अब इन्होंने ईसाई मत को अपना लिया है और ये बांग्लादेश का निवासी होने का दावा कर रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि रोहिंग्या म्यांमार के रखाइन प्रांत के हैं। इनके बारे में दुनियाभर में यह प्रचारित किया गया कि 2011 के अंत में म्यांमार में सशस्त्र बलों के उत्पीड़न के बाद बड़ी संख्या में रोहिंग्याओं ने भारत का रुख किया। लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा को देखते हुए रोहिंग्याओं की समस्या को धार्मिक उत्पीड़न के तौर पर नहीं देखा जा सकता।
10 जनवरी, 2020 को लागू सीएए का मुख्य उद्देश्य पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के पांथिक अल्पसंख्यकों जैसे—हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को भारत की नागरिकता देना है, जो इन इस्लामी देशों में उत्पीड़न के कारण पलायन के लिए विवश हुए हैं। इनके अलावा, किसी भी शरणार्थी को शरण देने के लिए भारत को किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि भारत ने न तो शरणार्थियों को लेकर 1951 में हुए समझौते पर और न ही 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए हैं। इसलिए भारत किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है।
हमें भी रोहिंग्या मुसलमानों को प्रताड़ित समुदाय नहीं मान कर उन्हें इस रूप में देखना होगा कि वे म्यांंमार की एकता और अखंडता को खतरा पहुंचाने के उद्देश्य से गठित कई विघटनकारी गतिविधियों में लिप्त रहे हैं और वहां की बौद्ध आबादी के खिलाफ मजहबी उन्माद से ग्रस्त होकर सशस्त्र हिंसा फैलाने जैसी अनेक गतिविधियों में भी शामिल हैं। इसके प्रमाण समय-समय पर उपलब्ध कराए गए हैं। रोहिंग्या स्पष्ट रूप से भौतिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं और इनमें से भी एक बड़ा वर्ग अपने लिए शक्ति संग्रह कर म्यांमार और भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के लिए आतुर हैं। इसी कारण ये आवश्यक संसाधन हासिल करने के उद्देश्य से बांग्लादेश के रास्ते भारत में घुसपैठ कर सुरक्षित ठिकाना तलाश रहे हैं। यही कारण है कि नागरिकता (संशोधन) कानून के तहत नागरिकता पाने के लिए बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान अब ईसाई बन रहे हैं। इस तरह के कन्वर्जन की कुछ घटनाएं 2017 में दिल्ली, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में सामने आई थीं। वास्तव में दिल्ली ऐसे घुसपैठियों का घर बन चुकी है। यूएनएसीआर के आंकड़ों के मुताबिक, भारत इस समय म्यांमार के लगभग 5,000 चिन शरणार्थियों को भी शरण प्रदान किए हुए है। इनमें करीब 90 प्रतिशत चिन शरणार्थी ईसाई बन चुके हैं और पश्चिमी दिल्ली में रह रहे हैं।
हमें रोहिंग्या मुसलमानों को प्रताड़ित समुदाय न मान कर उन्हें इस रूप में देखना होगा कि वे म्यांमार की एकता और अखंडता को खतरा पहुंचाने के उद्देश्य से गठित कई विघटनकारी गतिविधियों में लिप्त रहे हैं। वे वहां की बौद्ध आबादी के खिलाफ मजहबी उन्माद से ग्रस्त होकर सशस्त्र हिंसा फैलाने जैसी अनेक गतिविधियों में भी शामिल रहे हैं। इसके प्रमाण समय-समय पर उपलब्ध कराए गए हैं। रोहिंग्या स्पष्ट रूप से भौतिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं
1988 में जब म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हुआ तो हजारों की संख्या में चिन शरणार्थी भागकर सीमावर्ती भारतीय राज्य मिजोरम में आ गए। फिर वहां से दिल्ली में आकर बस गए। जब चिन शरणार्थियों में कई जनजातियां शामिल हैं, जिनमें जोमी, टेडिम, फलाम, चो, हखा, मारा आदि प्रमुख हैं। ये सभी पश्चिम दिल्ली के गांवों जैसे- हस्तसाल, विकास नगर, सीतापुरी और बिंदापुर में रहते हैं।
कानून में खामियों का फायदा उठा रहे
सीएए कानून उन लोगों पर लागू होता है, जो धर्म-मत-पंथ के आधार पर पड़ोसी देशों में प्रताड़ित किए जाते हैं और इसी वजह से भारत में शरण लेने के लिए मजबूर हैं। इस कानून का उद्देश्य ऐसे लोगों को अवैध प्रवास की कार्रवाई से बचाना भी है। सीएए में नागरिकता के लिए कट-आॅफ तारीख 31 दिसंबर, 2014 रखी गई है, यानी नागरिकता के लिए आवेदन करने वाला व्यक्ति इस तारीख से या इससे पहले से भारत में रह रहा है। मौजूदा कानून के तहत भारतीय नागरिकता वैसे लोगों को प्रदान की जाती है, जो भारत में पैदा हुए या कम से कम 11 वर्षों से यहां रह रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले मुसलमान, जो ‘मजहबी उत्पीड़न’ के आधार पर यहां शरण चाहते हैं, शायद ही पीड़ित या प्रताड़ित हैं, पर दिखाते ऐसे हैं कि वास्तव में उनसे अधिक पीड़ित और प्रताड़ित कोई है ही नहीं। अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है कि भारत की नागरिकता का हकदार कौन है, ये लोग कानून में किए गए प्रावधानों का फायदा उठाने के लिए ईसाई मत अपना रहे हैं ताकि भारत में रह सकें। इसके अलावा, इस कानून में म्यांमार के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। लिहाजा, रोहिंग्या खुद को बांग्लादेश का ईसाई बता कर मजहबी अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ पर नजरें गड़ाए बैठे हैं और कुचक्र रच रहे हैं।
चूंकि रोहिंग्या अवैध प्रवासी हैं, इसलिए भारत सरकार ने उन्हें स्वीकार करने और उन्हें नागरिकता देने से मना कर दिया है। इस कारण देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों को इस कानून में असहिष्णुता और मजहबी कट्टरपंथ दिखाई देता है। आज यह वर्ग इन तथाकथित ‘प्रताड़ित शरणार्थियों’ के एक मत के निर्लज्ज दुरुपयोग पर मौन धारण किए हुए है। इस तरह की घटनाएं सीएए कानून के सैद्धांतिक पक्ष को रेखांकित करती हैं कि इस्लामी देशों से मुस्लिम आबादी के पलायन को मजहबी उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। जो समुदाय चंद सुविधाओं के उपभोग के लिए आसानी से अपना मजहब छोड़कर दूसरे मत को अपना ले, वह लंबे समय से मजहबी रूप से उत्पीड़न को कैसे सह सकता है? इन तथाकथित उदारवादी और कुतर्की सूक्ष्म वर्ग को इस पर भी विचार करना चाहिए। आज भारत के सामने सबसे बड़ा प्रश्न राष्ट्रीय सुरक्षा का है और इसके लिए आवश्यक है कि ऐसे तत्व जो इसके लिए खतरा बने हुए हों और संभावित चुनौती प्रस्तुत करने में सक्षम हों, उन्हें चिह्ति कर जड़ से उनका उन्मूलन किया जाए।