कबीर दास की तरह प्रेमचंद्र ने बेखौफ होकर हिंदू और मुस्लिम दोनों वर्गों को उनके कट्टरवाद और अंधविश्वास के लिए फटकारा है। धार्मिक ग्रंथों, रीति-रिवाजों और परंपराओं की आलोचना की है। जहां देश की आजादी के लिए क्रांतिकारियों ने संघर्ष किया, वहीं प्रेमचंद्र ने साहित्य के माध्यम से लोगों के बीच स्वाधीनता की लहर जागृत करने राष्ट्रधर्मके लिए प्रेरित किया था। वह सदैव कहते थे- “यह निश्चित बात है राष्ट्रीय भाषा के बिना किसी राष्ट्र के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं हो सकती। जब तक भारतवर्ष में कोई राष्ट्रीय भाषा ना हो तब तक वह राष्ट्रीयता का दावा नहीं कर सकता।“
प्रेमचंद्र जी का कहना था कि जिस साहित्य में हमारे जीवन की समस्याएं ना हो, हमारी आत्मा को स्पर्श करने की शक्ति ना हो, जो केवल जिस्मी भावों में गुदगुदी पैदा करने के लिए या भाषा चातुरी दिखाने के लिए रचा गया है, वह निर्जीव साहित्य है। उन्होंने कथा साहित्य के माध्यम से किसानों का शोषण, अंधविश्वास, दहेज प्रथा, विधवा समस्या, सांप्रदायिकता, वैमनस्य, अस्पृश्यता, पूंजीवाद जैसे अनेक विषयों को अपनी कथा का विषय बनाया। वह गांधीजी से प्रभावित रहे। उनके आंदोलन पर साहित्य रचना की किंतु गांधी की अहिंसा पर उन्हें कतई विश्वास (आस्था) नहीं थी।
31 जुलाई 1880 में बनारस से 4 किलोमीटर दूर लमही गांव में डाक मुंशी अजायब लाल (कायस्थ) के घर उनका जन्म हुआ था। मां आनंदी देवी ग्रहणी थी उन्होंने आप के लालन-पालन में किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ी थी। पढ़ाई के बाद 20 वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी प्राप्त की और 21 वर्ष की आयु में आपने अपना साहित्यिक जीवन प्रारंभ किया। आप का वास्तविक नाम धनपत राय था। कानपुर से प्रकाशित उर्दू मासिक “जमाना” के संपादक दया नारायण निगम ने उनकी पहली कहानी “संसार का अनमोल रत्न” को जमाना में प्रकाशित की थी। उसमें इन्हें प्रेमचंद्र का नाम प्रदान किया गया। जमाना में प्रेमचंद्र ने लिखा था कि हमें तो उन्नति के लिए ऐसे विधानों की जरूरत है जो समाज में विलुप्त किए बिना ही काम में लाए जा सकें। हम संग्राम नहीं चाहते हां इतना जरूर चाहते हैं कि सरकार और जमीदार दोनों इस बात को ना भूल जाएं कि किसान भी मनुष्य है। यहां तो जो कुछ होता है दफ्तरी ढंग से, इतना पेचीदा और विलंबकारी है कि इससे किसानों को कुछ फायदा नहीं होता। यहां दफ्तरी ढंग कि नहीं मिशनरी उद्योग की जरूरत है अब तक किसानों के साथ सरकार ने सोतेले लड़के जैसा व्यवहार किया है, अब उसे किसानों को अपना जेष्ठ पुत्र समझकर उसके अनुसार अपनी नीति का निर्माण करना होगा।
1908 में आप की पहली उर्दू कहानी प्रसारित हुई उस समय आप नवाब राय के नाम से लिखते थे। एक कहानी पर कलेक्टर ने आपके लेखन से नाराज होकर प्रताड़ित भी किया उसी समय से फिर आप प्रेमचंद्र के नाम से लिखने लगे थे।
1917 में आपका पहला कहानी संग्रह हिंदी में “सप्त सरोज” प्रकाशित हुआ। उसके बाद “नवनिधि”,“प्रेमा पुर्णिका”,“बड़े घर की बहू-बेटी”,“लाल फीता”,“नमक का दरोगा”,“प्रेम पच्चीसी”,“प्रेम प्रसून”,“प्रेम प्रमोद”,“प्रेम तीर्थी”,“पंच फूल”,“प्रेरणा” आदि संग्रह प्रकाशित हुए उनकी सभी कहानियों का संग्रह मानसरोवर के नाम से आठ भागों में प्रकाशित है।
– श्री राजेंद्र जी श्रीवास्तव