हिंदू से ज्यादा मुस्लिम-ईसाई और पारसी महिलाओं को यूनिफॉर्म सिविल कोड की दरकार

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पुराने सर्वे एवं गैर सरकारी रिपोर्ट्स बताती है की इस समय देश मे मुस्लिम, ईसाई और पारसी महिलाओं को यूनिफॉर्म सिविल कोड की हिन्दू महिलाओं से ज्यादा आवश्यकता है.

हिंदू पर्सनल लॉ क्या क्या कहता है?
हिंदुओं के लिए भारत में हिंदू कोड बिल लाया गया जिसे चार हिस्सों में बांट दिया गया. इसे
01) हिंदू मैरिज एक्ट (Hindu Marriage Act),
02) हिंदू सक्सेशन एक्ट (Hindu Succession Act),
03) हिंदू एडोप्शन एंड मैंटेनेंस एक्ट (Hindu Adoption and Maintenance Act) और
04) हिंदू माइनोरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट (Hindu Minority and Guardianship Act) शीर्षकों से जाना जाता है.
इस कानून ने विभिन्न सम्प्रदायों की हिन्दू महिलाओं (बौद्ध, सिक्ख, जैन, लिंगायत, सनातनी) को सीधे तौर पर सशक्त बनाया. इनके तहत महिलाओं को अपने पिता और पति की संपत्ति में बराबर का अधिकार दिया गया. इसके साथ ही अलग-अलग हिंदू पंथ एवं जातियों के लोगों को एक-दूसरे से शादी करने का अधिकार है भी दिया गया, हालांकि कोई व्यक्ति एक शादी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकता. इससे हिन्दू महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में व्यापक सुधार हुआ है.

मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या कहता है
मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत एक शौहर अपनी बीवी को महज तीन बार तलाक बोलकर तलाक दे सकता है. अगर ये दोनों फिर से निकाह करना चाहते हैं तो औरत को पहले किसी गैर मर्द के साथ निकाह करना होता है, उसके साथ जिस्मानी संबंध बनाने होते है जिसे हलाला कहा जाता है फिर उससे तलाक लेने के बाद ही वो पहले शौहर से फिर निकाह कर सकती है. कई बार यह गैर मर्द नियत खराब हो जाने के कारण तलाक देने से मना कर देते है और औरत अधर में लटकी रह जाती है. इस लॉ में औरतों को तलाक के बाद शौहर से किसी तरह के गुजारे भत्ते या संपत्ति पर अधिकार नहीं दिया गया है बल्कि मेहर अदायगी का नियम है. तलाक लेने के बाद मुस्लिम मर्द तुरंत निकाह कर सकता है लेकिन औरत को 4 महीने 10 दिन का इंतजार करना पड़ता है.

ईसाईयों का पर्सनल लॉ क्या कहता है?
महिलाओं के खिलाफ ईसाइयों के पर्सनल कानून में दो बातें अहम हैं. एक शादीशुदा जोड़े को तलाक के लिए दो साल तक अलग रहना जरूरी होता है. इसके अलावा लड़की का माता-पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता. कई मामलों में ईसाई पुरुष चर्च संबंधी ट्रिब्यूनल से कैनन एक्ट के तहत तलाक ले लेते है और दूसरी शादी कर लेते है. सर्वोच्च न्यायालय ने 1996 में मॉली जोसेफ बनाम जॉर्ज सेबेस्टियन केस में इस बाबत व्यवस्था बना दी है और साफ कर दिया है कि ईसाइयों के पर्सनल लॉ के तहत चर्च संबंधी ट्रिब्यूनल से मिला तलाक कानूनी रूप से मान्य नहीं है. यह धार्मिक या चर्च के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन कानून से ऊपर नहीं है. ईसाई दंपती का तलाक कानूनी रूप से तभी मान्य होगा, जब वह इंडियन डाइवोर्स एक्ट के तहत लिया हो.

पारसी पर्सनल लॉ क्या कहता है?
पारसी मैरिज और डिवोर्स एक्ट, 1936 के कुछ प्रावधानों पर पारसी समुदाय के लोगो द्वारा ही आपत्ति उठाई जाती रही हैं. वर्ष 2017 में नाओमी सैम ईरानी नामक महिला ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में कहा है कि तलाक प्रक्रिया के दौरान दंपति को भारी प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है. याचिका में कहा गया है कि 1936 के पर्सनल लॉ में जो प्रक्रिया है, उसमें हिंदू मैरिज एक्ट की तहत किसी भी तरह का मध्यस्थता और समझौते का व्यवस्था नहीं है. याचिका में ये भी कहा गया है कि पारसी मैरिज और डिवोर्स एक्ट की धारा 18 के तहत प्रावधान है कि कोलकाता, मद्रास और बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश विशेष कोर्ट का गठन करे और उसमें पांच प्रतिनिधि भी हो जो मिलकर गुजारा भत्ता और बच्चे की कस्टडी आदि को तय करे. ये प्रतिनिधि ज्यूरी की तरह काम करे और बहुमत से फैसला ले, जबकि असलियत ये है कि पारसी चीफ मेट्रोपोलिटन कोर्ट साल में सिर्फ एक या दो बार बैठती है और तलाक के मामलों में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है.

समय-समय पर देश में कई ऐसे कानूनी मामले भी हुए हैं, जो न सिर्फ सीधे तौर पर सिविल कोड से ताल्लुक रखते हैं बल्कि इसकी जरूरत का अहसास भी करवाते रहते हैं. तुलनात्मक रूप से देखे तो हिन्दू कोड ने हिंदू महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाया है जबकि अन्य पर्सनल लॉ अपने समुदाय की महिलाओं के लिए शोषणकारी सिद्ध हुए है.

डॉ. उत्तम मोहन मीणा (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार है)

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