श्री रंगा हरि जी का ऋषि तुल्य जीवन देश-विदेश के लाखों लोगों के लिए प्रेरणादायी रहा है। केरल जैसे वामपंथियों के गढ़ में हिंदू संस्कृति एवं राष्ट्रवाद के लिए जीवन जीने वाले हजारों कार्यकर्ता खड़े करने में श्रीरंगाहरि जी का अप्रतिम योगदान है।
श्री रंगाहरिजी ने कोच्चि के टी.डी. मंदिर की शाखा से अपनी संघ यात्रा प्रारंभ कर पूरे देश और विश्व में संघदर्शन की अलख जगाई थी।
१३ वर्ष की आयु में स्वयंसेवक बने श्री रंगाहरिजी ने पाँच महाद्वीपों में संघ के विचार और कार्य पद्धति को स्थापित करने में अपना जीवन का खपाया।
आपने संघ के पाँच सरसंघचालक श्री गुरुजी, श्री बालासाहब देवरस, श्री रज्जू भैया (प्रो. राजेंद्र सिंह ), श्री के. एस. सुदर्शनजी और श्री मोहनराव जी भागवत के साथ कार्य किया।
आपने संघ के पाँच सरसंघचालक श्री गुरुजी, श्री बालासाहब देवरस, श्री रज्जू भैया (प्रो. राजेंद्र सिंह ), श्री के. एस. सुदर्शनजी और श्री मोहनराव जी भागवत के साथ कार्य किया।
५ दिसंबर १९३० को जन्मे श्री रंगाहरिजी की शिक्षा कोच्चि में हुई। अर्थशास्त्र एवं संस्कृत के विद्वान श्री रंगाहरिजी ने गांधीजी की हत्या के पश्चात संघ पर लगे प्रतिबंध के विरोध में सत्याग्रह किया एवं कन्नूर जेल में रहे। अपनी स्नातक शिक्षा पूर्ण करने के बाद आप संघ के पूर्णकालीक प्रचारक हो गए। प्रचारक जीवन के प्रारंभिक वर्ष में आप कोच्चि के पास उत्तर पेरावुर में प्रचारक रहे।
१९८३ से १९९३ तक आप केरल के प्रांत प्रचारक रहे, १९९१ से २००५ तक अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख भी रहे।
श्री रंगाहरि जी ने १९९४ से २००५ तक एशिया एवं ऑस्ट्रेलिया में हिंदू स्वयंसेवक संघ के संपर्क कार्यकर्ता के दायित्व का निर्वहन भी किया।
सन २००५-०६ में आप अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य भी रहे हैं।
संस्कृत,कोंकणी, मलयालम,हिंदी,मराठी,तमिल तथा अंग्रेजी भाषा में श्री रंगाहरिजी की ५० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई।
श्री गुरुजी के जीवनचरित्र पर आधारित “गुरुजी समग्र ” के संपादन का कार्य भी अपने ही किया था।
पिछले दिनों ही परम पूज्य सरसंघचालक श्री मोहनजी भागवत ने आपकी पुस्तक पृथ्वी-सूक्त का विमोचन किया था।
प्रखर वक्ता, गंभीर लेखन , मौलिक चिंतन के धनी श्री रंगाहरिजी को विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर आपको अपने श्री चरणों में स्थान प्रदान करें।
*श्री रंगाहरि जी ने 29 अक्टूबर २०२३ को प्रातः काल में अपनी अंतिम स्वास ली।
रंगा हरि जी का अंतिम पत्र और अंतिम प्रार्थना
हरिजी को अपनी मृत्यु का आभास हो गया था।
लेखन, वार्तालाप, मुस्कान, विनोद और स्मृति सादर में हिलाते लेते हरि जी को शांति भाव से मृत्यु की प्रतीक्षा थी।
उस प्रतीक्षा में उस व्यक्ति की कृपा थी जिसने वह सब किया था, जो किया जाना था। कार्यकर्ताओं की सभी पीढ़ियों के साथ आने के लिए एक प्रार्थना थी, जो एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ने और इसे प्राप्त करने का प्रयास करने के लिए हमारे साथ थे।
विजयदशमी 2016 को, उन्होंने संस्कृत में ‘ममिकंथिमप्रार्थना’ (मेरी अंतिम प्रार्थना) लिखी है और इसे एक सीलबंद में रखा है।