सावरकर की दृष्टि में एकता और समरसता का प्रचारक है ‘गणेशोत्सव’

वीर विनायक दामोदर सावरकर एक ऐसे आशावादी ध्येयनिष्ठ चिंतक थे, जिन्हें प्रत्येक निमित्त में उद्देश्यपूर्ति की संभावनाएं दिखती थी। उन्होंने अपनी रचनात्मकता, नवाचार और दूरदृष्टि से जहां स्वाधीनता के संघर्ष में एक उत्प्रेरक के रूप में योगदान दिया तो वहीं सामाजिक सुधार और समरसता के क्षेत्र में उनके कार्य अतुलनीय हैं। जातिभेद, ऊंच-नीच, अस्पृश्यता के विरोध में उनके विचारों एवं उनके द्वारा किए गए कार्यों ने हिन्दू समाज को एकत्व का बोध सिखाया। पिछड़ों और दलितों के साथ होते दुर्व्यवहार से वह सदैव रुष्ट होते थे और अछूत या दलित कहलाए जाने वाले वर्ग को हिन्दू समाज में अग्रिम पंथी में लाने और उनके हिन्दू समाज में घुलमिल जाने के लिए भरसक प्रयास करते थे। हिन्दू समाज में एकत्व को बढ़ावा देने और जाति के भेद को समाप्त करने के लिए सावरकर ने गणेशोत्सव को श्रेष्ठ सामाजिक गतिविधि बताया था। सितंबर 1935 में ‘किर्लोस्कर’ में प्रकाशित उनके निबंध में उन्होंने समरसता के क्षेत्र में गणेशोत्सव के माहात्म्य को विस्तृत रूप से वर्णित किया था।

सावरकर गणेशोत्सव को हिन्दू समाज के लिए अत्यंत उपकारक मानते थे तथा उन्हें इसमें अनेक सकारात्मक संभावनाएं दिखती थी। उनके लिए यह उत्सव राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने वाला कारक था। सावरकर के अनुसार गणपति एकता, बंधुत्व और संगठनात्मक गणशक्ति के प्रतीक हैं, जिनसे एकत्व का बोध होता है। उन्होंने लिखा है “यह गणेशोत्सव राष्ट्रीय एकता की भावना भरकर हिंदुओं को एकप्राण, एकराष्ट्र बना सकता है।……गणेशोत्सव आरंभ से ही प्रवृत्ति परक है। उसका स्वरूप सार्वजनिक है। उसका अधिष्ठाता देवता राष्ट्रीय है। गणों का जो पति(रक्षक), वह गणपति। वह देवता वैयक्तिक मूर्ति ना होकर गणशक्ति की, राष्ट्रीय जीवन की, हिन्दू संगठन की मूर्ति है।“

वीर सावरकर का विचार था कि इस उत्सव को एक निमित्त बनाकर हिन्दू समाज को एकसूत्र में बांधा जा सकता है और समाज को दूषित करने वाले जातिभेद को इस उत्सव के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है। सावरकर लिखते हैं, “हिन्दू संगठन के समर्थकों को चाहिए कि पूर्वजों की पीढ़ियों से चल रहे और पूर्व से ही राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त गणपति उत्सव की महान संस्था का औजार हाथ में लेकर हिन्दू राष्ट्रबल-विघातक इस जातिभेद के उच्छेद के लिए उपाय करना चाहिए और इस राष्ट्रीय महोत्सव को अखिल हिन्दू महोत्सव बनाना चाहिए।“

जैसा कि ज्ञात हो चुका है कि सावरकर गणेशोत्सव को एक राष्ट्रीय उत्सव और गणपति को एक ऐसा राष्ट्रीय देवता मानते थे जिनके अर्चन में समस्त हिन्दू समाज एक छत्र के नीचे समान रूप से आ सकता है, उनका मानना था कि गणेशोत्सव के माध्यम से समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अधिकार दिए जा सकते हैं और सभी को, जातिभेद की बेड़ियों के बंधन से मुक्त करके, एकसाथ जोड़कर एक राष्ट्र (विचार) बनाया जा सकता है। उन्होंने लिखा है, “अतएव राष्ट्रीय महोत्सव (गणेशोत्सव) में स्पृश्य-अस्पृश्य, ब्राह्मण-अब्राह्मण, मराठा-महार, सबको समान अधिकार देकर एकराष्ट्र बनाना चाहिए। एक हिन्दू ध्वज के नीचे यह उत्सव होना चाहिए। हिन्दू संगठन का मुख्य कार्य (हिंदुओं का एकत्व) करने के लिए इस राष्ट्रीय उत्सव की प्राणप्रतिष्ठा हुई है। हिन्दू संगठन जाति-विरहित होकर ऐसे उत्सवों में ही पूर्ण रूप से व्यक्त हो सकेगा।… इनमें कोशिश करनी चाहिए कि मंडप में, सभाओं में स्पृश्य-अस्पृश्य एकसाथ बैठें।“

गणेशोत्सव के माध्यम से समरसता किस प्रकार बढ़ाई जाए, इस पर सावरकर ने एक रूपरेखा भी तैयार की थी व इसके लिए कुछ नियम भी बनाए थे। सावरकर के अनुसार नियम इस प्रकार थे – 1. कार्यकारी मण्डल में जातिभेद समाप्त करने की चाह रखने वाले सदस्य भी होने चाहिए, उसी विचार से उत्सव मनाना चाहिए, इस उत्सव में समानता से समान नियमों से प्रवेश दिया जाएगा, यह ध्येय हो। 2. गणेश मूर्ति को पालकी में रखते समय, स्थापना के समय, पालकी उठाते समय ब्राह्मण से लेकर दलित तक, सभी वर्गों के लोगों को मिलकर मूर्ति को हाथ लगाकर उठाना चाहिए और इसी तरह से छुआछूत का उच्छेदन करना चाहिए। 3. मूर्ति की पूजा वेदोक्त होनी चाहिए। कम से कम दो बार भरी सभा में महादलित और पिछड़े वर्ग के बंधुओं द्वारा मूर्ति की पूजा करनी चाहिए। यदि संभव हो सके तो इन्हीं वर्गों के बंधुओं द्वारा गीता-गायत्री पाठ भी होना चाहिए। 4. स्त्री या पुरुष किसी के भी कार्यक्रम और शोभायात्रा में ब्राह्मण-अब्राह्मण अर्थात सभी को साथ लेकर चलना चाहिए। 5. सर्व हिन्दू समाज को सहभोज करना चाहिए। सहभोज में हर पंक्ति में ब्राह्मण, दलित, आदि सभी वर्गों को साथ में बैठकर भोजन करने का नियम होना चाहिए।

सावरकर चाहते थे कि गणेशोत्सव के निमित्त ऐसे सहभोज सम्पूर्ण भारत के ग्राम-शहर में होना चाहिए। उन्होंने लिखा है, “इस प्रकार का कम से कम एक अखिल हिन्दू गणेशोत्सव प्रत्येक नगर में अवश्य शुरू करके हिन्दू-संगठन की कक्षा में स्पृश्य-अस्पृश्य, जाति-पाँति विरहित हिन्दू समाज संगठित करने का मूल हेतु परिपूर्ण करना चाहिए। अन्य स्पृश्य उत्सवों में भी हरेक सुधारक अपना सहभोज का कार्यक्रम अवश्य आयोजित करें।“

सावरकर का उद्देश्य था कि इस प्रकार गणेशोत्सव के माध्यम से समरसता का अथाह प्रसार हो सकेगा और ऐसे सहभोजों के आयोजन से जातिभेद की बेड़ियाँ स्वतः ही टूट जाएगी, तथा यह हिन्दू समाज पुनः एकत्व के छत्र यानि ‘हिन्दुत्व’ के नीचे एक हो जाएगा। अंततः इन्हीं सभी सकारात्मक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वीर सावरकर हिन्दू समाज से आह्वान करते थे कि सभी को समान और एक करने वाले सद्भावना, समरसता और सांस्कृतिक एकीकरण करने वाले राष्ट्रीय देवता गणपति की स्थापना प्रत्येक हिन्दू को करना चाहिए।

लेखक – अथर्व पँवार

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