भील-भिलाला कार्तिक मास कृष्ण त्रयोदशी से दीपावली मनाना प्रारम्भ करते हैं। दीपावली से कुछ दिन पहले अपना घर गोबर और मिट्टी से लीपते (रंगते) हैं।
ये लोग दीपावली दो बार मनाते हैं, पहला कार्तिक मास की धनतेरस से अमावस्या तक तथा दूसरा (पछलि दीपावली) कार्तिक मास शुक्ल पक्ष में तेरस से पूर्णिमा तक।
भील समाज में अमावस्या के दिन प्रात: देवी लक्ष्मी व नये अनाज का पूजन करते हैं। पूरे दिन आतिशबाजी करते हैं। शाम में दीपक जलाकर दरवाजे, अनाज की कोठरी, गोहाल व रसोई घर सहित अन्य सामाजिक सार्वजनिक स्थानों पर रखते हैं।
भील समाज में चतुर्दशी को चौदस या काली चौदस कहते हैं। इस दिन सहित अमावस्या की रात्रि को बड़वा (पुजारी/तांत्रिक) व उनके शिष्य तांत्रिक सिद्धियाँ करते हैं।
भीलों का विश्वास है कि दीपावली की अमावस्या वाली रात में मंत्र-तंत्रों के जाप व प्रयोग से अभूतपूर्व सफलता व सिद्धि मिलती है। उल्लेखनीय है कि ऐसी ही मान्यता देश के अनेक अंचलों में दिखाई पड़ती है।
अमावस्या यानी दीपावली के दूसरे दिन (पड़वा) सूर्योदय के पूर्व घर के अहाते में अग्नि लगाई जाती है। उत्तर प्रदेश व बिहार के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में दरिद्र खेदना/भगाना कहा जाता है। ध्यान देना होगा कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड आदि प्रांतों में भी यह परंपरा प्रचलित है।
अग्नि लगाने के बाद महिलाएँ स्नान-ध्यान करके गाय के गोबर से बने गोवर्धन का पूजन करती हैं। मवेशियों को फूल-माला पहनाकर श्रृंगार करती हैं, उनके सींग गेरू से रंगते हैं।
गोवर्धन पूजन और मवेशियों को फूल-माला पहनाकर श्रृंगार करने की परंपरा भी उत्तर प्रदेश व बिहार समेत देश के अन्य प्रदेशों के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक रूप में विद्यमान है।