महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद की जयंती पर शत शत नमन….

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14 वर्ष का एक बालक बनारस में संस्कृत की शिक्षा ग्रहण करने के उद्देश्य से आया था किंतु भाग्य में उसके पंडित की जगह क्रांति की शिक्षा का पाठ पढ़ा और देश के लिए मृत्यु पर्यन्त कार्यरत रहा।

बनारस में गांधीजी के आव्हान पर विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं की होली जलाई जा रही थी अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार किया जा रहा था जिस काशी विद्यापीठ में चंद्रशेखर पढ़ते थे उसके छात्र भी धरने पर बैठे थे उनके साथ आप भी शामिल थे धरने पर बैठे सभी छात्रों को सरकार द्वारा पकड़ लिया गया अदालत में जब जज ने उनसे नाम पूछा तो उन्होंने कहा – \”मेरा नाम आजाद है पिता का नाम स्वाधीन और घर का पता जेलखाना\” बताया उस दिन से वे चंद्रशेखर आजाद के नाम से प्रसिद्ध हो गए। मृत्युपर्यन्त वे आजाद ही रहे वह एक गीत गाया करते थे उसके बोले थे – \”दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं आजाद ही रहेंगे।\”
काशी विद्यापीठ में धरना देने के अपराध में जज ने उन्हें 15 बेंत मारने की सजा सुनाई जेल की एक पटिया पर लिटा कर उनकी कमर पर तेल से तर कपड़ा लपेट दिया गया जेल अधिकारी संख्या बोलता और जल्लाद पूरी शक्ति से उनकी कमर पर प्रहार करता प्रत्येक बेंत की मार के साथ वह भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाते रहे। बेंतो की मार के बाल जेल अधिकारी ने उन्हें तीन आने दिए जो उन्होंने लेने की बजाए उसके मुंह पर दे मारे। इन बातों का आघात उनके शरीर पर नहीं वरन उनकी आत्मा पर हुआ। उसी दिन से उन्होंने अंग्रेजी शासन को जड़ से उखाड़ देने का संकल्प कर लिया।

सन 1923 में बनारस में \”आजाद हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ\” में वह शामिल हुए। जिसमें उन्होंने अनेक क्रांतिकारियों के साथ मिलकर असाधारण काम किया। असहयोग आंदोलन के दिनों में 1 दिन संपूर्णानंद जी ने कांग्रेस का एक नोटिस कोतवाली के सामने चिपकाने को कहा – आजाद ने इसकी जिम्मेदारी ली और उस नोटिस को अपनी पीठ पर हल्का सा चिपका कर उसके उल्टी तरफ काफी लेई लगा दी। कोतवाली के पास जाकर वह एक खंबे के साथ टिक गए वहां पुलिस सिपाही भी खड़े वह उससे बात करने लगे इसी बीच उन्होंने खंबे से खड़े-खड़े ही नोटिस खंभे से चिपका दिया जब काम हो गया तो वह वहां से चल दिए थोड़ी देर बाद सिपाही भीड़ देखकर वहां आया और खंभे पर लगा नोटिस देखकर चकित रह गया।

बनारस में एक गुंडे का आतंक छाया था। वह सीधे लोगों और बहू-बेटियों से छेड़खानी करता था। सभी उससे डरते थे। पुलिस वाले भी उसे रोकने का साहस नहीं कर पाते थे। एक दिन शाम को आजाद बाजार से जा रहे थे कि वह गुंडा अपने दो साथियों के साथ एक युवती से छेड़खानी करने की कोशिश कर रहा था गुंडे ने युवती की कलाई पकड़ ली और युवती सहायता के लिए इधर-उधर देख रही थी। आजाद की दृष्टि उस पर पड़ी उन्होंने गुंडे को ललकारा उस गुंडे ने युवती का हाथ छोड़ आजाद पर लपका आजाद पहले से तैयार थे उन्होंने ऐसा घुसा जमाया कि वह गुंडा जमीन चाटने लगा फिर उसकी छाती पर बैठकर आजाद बोले कि यदि वह उस युवती को बहन कह कर नहीं पुकारेगा तो वह उसका गला घोट देंगे। गुंडे ने परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए अपनी जान बचाने के लिए उस युवती को बहन कह दिया और क्षमा मांगी। उस दिन से फिर उस गुंडे की दादागिरी देखने को नहीं मिली।

काकोरी स्टेशन पर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने रेल गाड़ी को रोककर सरकारी खजाने की डकैती डाली। पुलिस उनका पीछा करती रही लेकिन वे जीवन के अंतिम क्षणों तक उसकी पकड़ में ना आए काकोरी कांड के बाद आजाद वेश बदलकर झांसी में रहने लगे एक बार वे एक साधु के साथ गाड़ी में जा रहे थे पुलिस के दो सिपाहियों को कुछ शंका हुई और उन्होंने आजाद को थाने पर चलने को कहा आजाद ने इनका कारण पूछा तो सिपाही ने कहा – \”क्या तुम आजाद नहीं हो ?\” वह बिना चौके दांत निपोरते हुए बोले हैं हम तो आजाद ही हैं हमें क्या बंधन है हम बाबा लोग तो हनुमान जी का भजन करते हैं और आनंद करते हैं और भी बहुत सी बातें हुई मगर वे पुलिस वाले ना माने और थाने पर चलने के लिए मजबूर करने लगे कुछ देर तो आजाद बड़ी नम्रता से उनके साथ चलते रहे किंतु जब देखा कि वह किसी तरह भी नहीं मानते तो फिर वह लौट पड़े और दृढ़ता से बोले तुम्हारे दरोगा से हनुमान जी बड़े हैं मैं तो हनुमान जी की आज्ञा मानूंगा तुम मानो अपने दरोगा की उनकी बदली हुई आंखों को देखकर पुलिस के वे दोनों जवान सहम गए और वहां से चलते बने।

27 फरवरी को सुबह आजाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के पास क्रांतिकारियों के लिए धन सहयोग के लिए बात करने आनंद भवन गए। उनसे बात कर वह अल्फेड पार्क की ओर निकल गए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी को फोन से खबर कर दी कि तुम्हारा शिकार अल्फेड पार्क में मौजूद है नेहरू की सूचना पर सशस्त्र पुलिस ने उन्हें पार्क में घेर लिया जहां अपनी ही अंतिम गोली से उन्होंने वीरगति प्राप्त की।

– राजेंद्र जी श्रीवास्तव

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