बाजीराव पेशवा युग पुरुष थे!

वर्ष 1700 में 18 अगस्त के दिन महाराष्ट्र के सिन्नर के करीब डुबेर गांव में बाजीराव का जन्म हुआ था।

श्रीमंत बाजीराव पेशवा के जीवन के दो प्रसंगों को यहां वर्णित कर रहा हूं, जिनके संबंध में कम ही कहा सुना जाता है, परन्तु वे उनके विराट चरित्र और व्यक्तित्व की विशालता का भव्य दर्शन करवाते हैं।

सन 1735 में बाजीराव की माताजी राधाबाई ने काशी यात्रा की इच्छा प्रकट की। उस समय के राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थितियों की कल्पना कीजिए। मराठों का दबदबा मुश्किल से पूना से लेकर नर्मदा के दक्षिणी किनारों तक ही था। नर्मदा पार करते ही मुगलों का साम्राज्य शुरू हो जाता था। वही मुगल जिनका सम्राट औरंगजेब इन्ही मराठों से सत्ताईस वर्षों तक युद्ध करने के बाद भी उन्हें पराजित नहीं कर पाया और अन्ततः वहीं मारा गया। तब से मराठों और मुगलों के सतत संघर्ष को अब लगभग 100 वर्ष हो चुके थे। लाखों लोग अपने प्राण न्यौछावर कर चुके थे। छत्रपति शिवाजी, छत्रपति संभाजी, छत्रपति राजाराम जैसे इस संघर्ष में अपने जीवन बलिदान कर चुके थे। पीढ़ी दर पीढ़ी मराठे मानव इतिहास के इस सर्वाधिक रक्तरंजित संघर्ष में आहुतियां दे रहे थे। मुगल शासन मराठों से जीतना तो दूर, उनके आक्रमणों से अपने अस्तित्व को बचाने में लगा हुआ था। शत्रुता अपने चरम पर थी। सतत खिंची हुई तलवारों के साए में आपसी विश्वास के लिए कोई स्थान बचा ही नहीं था।
ऐसी परिस्थिति में स्वयं पेशवा की माताजी के लिए नर्मदा के किनारों से लेकर काशी तक की यात्रा, विश्वेश्वर के दर्शन और पुनः पुणे तक सुरक्षित वापसी लगभग असम्भव ही था। उनके सलाहकारों के मन सशंकित थे। पेशवा को सलाह दी जा रही थी कि सतत शत्रु के क्षेत्र में प्रवास माताजी के लिए निश्चित ही जोख़िम भरा रहेगा। परन्तु बाजीराव ने बिना किसी लाग लपेट के माताजी और अन्य सैकड़ों स्त्री पुरुषों को काशी यात्रा पर जाने की व्यवस्था के निर्देश दे दिए।

जब राधा बाई और उनका लवाजमा, जिनके साथ सीमित संख्या में अंगरक्षक भी थे, नर्मदा तट पर पहुंचे तो आश्चर्यजनक रूप से उदयपुर के राणा की सेनाएं उन्हे लिवा लाने के लिए आई हुई थी। वे उन्हें ससम्मान उदयपुर ले गए। वहां स्वयं राणा और उनके परिवार ने उनका आतिथ्य किया और कई हफ्तों तक उन्हें अपने साथ महल में रखा। वहां से आगे जयपुर के राजा जयसिंह की सेनाएं पूर्ण सुरक्षा में उन्हे जयपुर लिवा लाई। जयसिंह पर आज भी मुगलों की ही सरपरस्ती थी। इसके बावजूद जयपुर में भी उनका शाही अतिथि सत्कार हुआ। जयपुर से मुरादाबाद तक, जोकि पूर्ण रूप से मुगल इलाका था, राजा जयसिंह की सेनाओं की सुरक्षा में यात्रा तय हुई। मुरादाबाद से आगे के सुरक्षित सफर के लिए मोहम्मद शाह बंगश की टुकड़ियां तैनात थी। बंगश मुग़ल सरदार था और लगभग पूरा दोआब उसके अधीन था। बाजीराव बुदेलखंड के युद्ध में उसे बुरी तरह पराजित कर चुके थे। एक तरह से वह बाजीराव का सबसे बड़ा शत्रु था। यहां यह समझना आवश्यक है कि बाजीराव पराक्रमी थे, क्रूर नहीं; अप्रतिम योद्धा थे, अमानवीय आतताई नहीं; शत्रु संहारक थे, रक्त पिपासु नहीं। इसीलिए उनके शत्रु उनके पराक्रम से भयभीत होते हुए भी उनकी मानवीयता और सहृदयता के मुरीद थे और उनका सम्मान भी करते थे। उनके व्यक्तित्व की इस भव्यता ने ही बंगश को मजबूर किया कि उसे उनकी माताजी की सुरक्षा के लिए अपनी सेनाएं तैनात करनी पड़ी। मुरादाबाद से काशी और काशी से नर्मदा के तट तक बंगश की सेनाओं ने राधा बाई और उनके लवाजमें को बिना शर्त सुरक्षा प्रदान की।

बाजीराव के व्यक्तिव में ऐसा क्या विशेष था कि उनके शत्रु भी उनका सम्मान करते थे? यह जानने के लिए एक प्रसंग और देखना उचित होगा।

बाजीराव की सर्वाधिक प्रसिद्ध लड़ाईयों में से एक थी सन 1727 में गोदावरी के किनारे लड़ी गई पालखेड की लड़ाई। इस लड़ाई में बाजीराव ने निजाम को बुरीतरह पराजित कर पूरे दक्खन के लगान वसूली के अधिकार मराठों को देने के लिए मजबूर किया था।
पालखेड़ की लड़ाई बाजीराव के अद्वितीय रणनीतिक कौशल की मिसाल है। कईं महीनों तक पीछा करती हुई निजाम की सेनाओं को छकाते हुए बाजीराव निजाम और उसकी सेनाओं को गोदावरी के तट पर एक ऐसी जगह ले आए कि उन्हें अब किसी भी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती थी। उनकी रसद के मार्ग काट दिए गए। जल आपूर्ति भी पूरी तरह से काट दी गई। निजाम की सेना चारों ओर से मराठा सेनाओं से घिरी हुई थी और उसके सैनिक और जानवर (घोड़े, हाथी, और सामान ढोने के लिए बैल, खच्चर आदि) भूखे प्यासे बेहाल हो रहे थे। कुछ दिनों में स्थिति इतनी बिगड़ गई की सैनिको को अपने घोड़े मारकर खाने की नौबत आ गई। परन्तु भोजन से भी ज्यादा बड़ी समस्या पानी की थी। न पीने को पानी, न वापरने को। निजाम की छावनी में त्राहि त्राहि मची हुई थी। सैनिक युद्ध लड़े बगैर ही हारे हुए लग रहे थे।

इसी दौरान ईद का त्यौहार आ पड़ा। जहां भूख और प्यास के मारे जान की पड़ी हुई हो वहां ईद का जश्न क्या होता? इस भीषण परिस्थिति में अपने सलाहकारों की विपरीत सलाह के बावजूद निजाम ने बाजीराव को पत्र लिख कर बताया कि ईद का त्यौहार आ रहा है। उसके सैनिक भूखे प्यासे बेहाल हैं। क्या आप अपनी नाकाबंदी में कुछ छूट देकर सैनिकों को ईद मनाने देंगे?
अपने सलाहकारों की इच्छा के विरुद्ध बाजीराव ने निजाम की गुजारिश को मान दिया और ईद मनाने के लिए आवश्यक रसद निजाम की छावनी में भिजवाने की व्यवस्था करवाई। सैनिकों और जानवरों को जैसे दूसरा जन्म मिल गया। बाजीराव ने यह निर्णय लेते हुए अपने सलाहकारों को समझाया कि युद्ध अपनी जगह है, और मानवीयता अपनी जगह। सैनिक निजी दुश्मनी की वजह से नहीं लड़ रहे हैं और ऐसे में उन्हें ईद मनाने का मौका देने में कोई हर्ज नहीं है।

दो दिनों के बाद ही नाकाबंदी पुनः सख्त कर दी गई और शीघ्र ही निजाम को समर्पण कर दक्खन के समस्त कर वसूली के अधिकार मराठों को देने के सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े।

ऐसे विराट व्यक्तिव के धनी श्रीमंत बाजीराव पेशवा को उनकी जन्मतिथि (18 अगस्त) पर सादर नमन।

– लेखक : श्रीरंग पेंढारकर

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