देश की आज़ादी में मानगढ़ धाम का योगदान

जहाँ हजारों जनजातीय वीरों ने दी मातृभूमि पर प्राणों की आहुति

भारत की आज़ादी की कहानी केवल दिल्ली, कोलकाता या मुंबई जैसे महानगरों की नहीं है। इस स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय समाज का योगदान भी उतना ही वीरतापूर्ण और गौरवशाली रहा है। इन्हीं बलिदानों की भूमि है मानगढ़ धाम, जो राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित है। यह स्थल भारतीय स्वतंत्रता का वह पर्वत है, जहाँ हजारों आदिवासी भाई-बहनों ने अंग्रेजों की गोलियों के सामने निर्भीक होकर अपने प्राण न्यौछावर किए।

गुरु गोविंदगिरी भील समाज के उद्धारक

मानगढ़ धाम का नाम जनजातीय समाज के महान संत और सुधारक गुरु गोविंदगिरी (गोविंद गुरु) से जुड़ा है। उनका जन्म 20 दिसंबर 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया गाँव में हुआ था।
उन्होंने भील और अन्य जनजातियों को नशा, अंधविश्वास, और सामाजिक अन्याय से मुक्त होने का संदेश दिया।
उन्होंने “सम्प सभा” नामक संगठन की स्थापना की, जो शिक्षा, श्रम, समानता और स्वावलंबन का प्रतीक बना।

“हमारी ताकत हमारी एकता में है।”
~ गुरु गोविंद गुरु

गोविंद गुरु ने कहा कि भील समाज अब किसी के अधीन नहीं रहेगा, बल्कि अपने श्रम, आत्मसम्मान और संस्कृति से अपनी पहचान बनाएगा।

मानगढ़ का ऐतिहासिक सम्मेलन

1913 में गुरु गोविंदगिरी ने अपने अनुयायियों को मानगढ़ पर्वत पर बुलाया। हजारों भील पुरुष, महिलाएँ और बच्चे वहां एकत्र हुए। यह सभा पूरी तरह शांतिपूर्ण थी। इसका उद्देश्य सामाजिक सुधार और आत्मसम्मान के साथ स्वराज की मांग को संगठित रूप देना था।

लेकिन अंग्रेजी शासन और स्थानीय राजाओं को यह एकता पसंद नहीं आई। उन्होंने इसे विद्रोह घोषित किया और भीलों को तितर-बितर होने की चेतावनी दी। परंतु गोविंद गुरु और उनके अनुयायियों ने पीछे हटने से इंकार कर दिया।

17 नवम्बर 1913 की भोर में अंग्रेजों और रियासती सेनाओं ने मानगढ़ पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया और निर्दोष, निहत्थे भीलों पर गोलियों की वर्षा कर दी।
इतिहासकारों के अनुसार इस भीषण नरसंहार में लगभग 1500 से लेकर 10,000 तक जनजातीय शहीद हुए। पूरा पर्वत रक्त से लाल हो गया। गुरु गोविंद गुरु को गिरफ्तार कर आजीवन कारावास दिया गया, पर उनकी विचारधारा और बलिदान जनजातीय समाज की चेतना बन गए।

मानगढ़ नरसंहार की तुलना अक्सर जलियांवाला बाग़ से की जाती है। फर्क इतना है कि जलियांवाला बाग़ की घटना 1919 में हुई, जबकि मानगढ़ का बलिदान 1913 में, अर्थात् छह वर्ष पहले। यह भारत का पहला संगठित जनसंहार था, जिसने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी।

आज का मानगढ़ धाम राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक

आज मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा प्राप्त है। भारत सरकार ने इसे राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र चार राज्यों के संयुक्त राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया है।
यहाँ शहीदों की स्मृति में विशाल स्तूप, संग्रहालय और स्मारक बनाए गए हैं।
हर वर्ष हजारों की संख्या में जनजातीय समाज के लोग यहाँ एकत्र होकर अपने शहीद पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यह स्थल आज जनजातीय गौरव, एकता और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन चुका है।

मानगढ़ धाम हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता की ज्वाला केवल शहरों में नहीं, बल्कि जंगलों, पहाड़ों और गाँवों की मिट्टी में भी धधकती रही।
भील, गरासिया, डूंगर, भीलाला और अन्य जनजातियों ने मातृभूमि के लिए जो बलिदान दिया, वह भारतीय इतिहास का अविभाज्य हिस्सा है।

“आज़ादी केवल तलवार से नहीं, बल्कि असंख्य जनजातीय वीरों के रक्त से मिली है।”

मानगढ़ धाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अमर अध्याय है। यह स्थान हमें सिखाता है कि आज़ादी केवल अधिकार नहीं, बल्कि बलिदान की तपस्या से प्राप्त हुई है।
आज जब हम “आज़ादी का अमृतकाल” मना रहे हैं, तब मानगढ़ धाम हमें यह याद दिलाता है कि
स्वतंत्रता, समानता और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता।
यह धाम सदैव जनजातीय समाज की अस्मिता और भारत माता के प्रति समर्पण का प्रतीक रहेगा।
“मानगढ़ की माटी में आज भी गूंजता है उन वीरों का स्वर
हम थे, हम हैं, और हम रहेंगे इस धरती के रक्षक बनकर।”


✍️ – श्री निलेश कटारा, झाबुआ


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