निलेश कटारा

भारत की सांस्कृतिक एकता और सामाजिक विविधता का सबसे सशक्त उदाहरण हमारे जनजातीय समाज हैं। जनजाति समुदाय सदियों से प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर जीवन यापन करते आया हैं। इसकी संस्कृति, परंपराएँ, देवी-देवता, भाषाएँ और जीवन दृष्टि है, जो भारतीय सभ्यता की जड़ों से गहराई से जुड़ी हुई हैं। परंतु आज जब हम जनजातीय क्षेत्रों की स्थिति पर नज़र डालते हैं, तो पाते हैं कि इन क्षेत्रों में अलगाववाद, असंतोष और सामाजिक विभाजन की भावना तेजी से पनप रही है। इस अलगाववाद की एक बड़ी जड़ धर्मांतरण है, जिसने न केवल जनजातीय पहचान को कमजोर किया है, बल्कि राष्ट्रीय एकता के लिए भी चुनौती उत्पन्न की है।
भारत के कई जनजातीय क्षेत्रों झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश ओडिशा, असम, मणिपुर, नागालैंड और मिज़ोरम में दशकों से संगठित रूप से धर्मांतरण की प्रक्रिया चल रही है। मिशनरी संगठनों ने शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा कार्यों के नाम पर जनजातीय क्षेत्रों में अपनी जड़ें जमाईं और धीरे-धीरे धार्मिक परिवर्तन को बढ़ावा दिया। गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास और सरकारी उपेक्षा के कारण इन समुदायों में परिवर्तन की जमीन तैयार हो गई। धर्मांतरण के पीछे सिर्फ धार्मिक उद्देश्य नहीं, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक लक्ष्य भी हैं। यह परिवर्तन जनजातियों को उनके मूल भारतीय सांस्कृतिक ढांचे से काट देता है और उन्हें एक अलग पहचान का अहसास कराता है जो अक्सर “भारतीय राष्ट्र” से दूरी और अलगाव की भावना को जन्म देता है।
जब किसी समुदाय की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान बदलती है, तो उसके सामाजिक और राष्ट्रीय जुड़ाव की भावना भी बदल जाती है। धर्मांतरण के बाद जनजातीय लोगों में “हम” और “वे” की मानसिकता विकसित होती है। कई क्षेत्रों में converted (धर्मांतरित) जनजातियों ने अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों को ‘अंधविश्वास’ कहकर त्याग दिया और अपनी पूर्वज संस्कृति से दूरी बना ली। इस सांस्कृतिक दूरी ने अलगाववाद को जन्म दिया। उदाहरण के लिए, पूर्वोत्तर राज्यों में धर्मांतरण के बाद कई जनजातीय समूहों में भारत से अलग पहचान स्थापित करने की प्रवृत्ति देखी गई। कुछ क्षेत्रों में तो यह अलगाववाद सशस्त्र आंदोलनों में भी परिवर्तित हो गया। यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था जिससे जनजातीय समाज को भारत की मुख्यधारा से काटकर विदेशी प्रभावों के अधीन किया जा सके।
धर्मांतरण केवल धार्मिक बदलाव नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक और सामाजिक विघटन की प्रक्रिया भी है। जनजातीय समाज, जो पहले प्रकृति पूजा और सामूहिक जीवन पर आधारित था, वह धीरे-धीरे विभाजित होने लगा। एक ही गांव में रहने वाले लोग धर्म के आधार पर बंट गए कुछ अपने मूल देवी-देवताओं के साथ, तो कुछ विदेशी मतों के अनुयायी बन गए।
इस विभाजन ने पारंपरिक सामंजस्य, आपसी विश्वास और सामाजिक एकता को कमजोर किया। converted समुदायों ने अक्सर अपने पारंपरिक धार्मिक स्थलों और पर्वों से दूरी बना ली, जिससे सांस्कृतिक असंतुलन उत्पन्न हुआ। इस स्थिति ने विकास कार्यों में भी बाधा डाली और स्थानीय प्रशासन के लिए जनजातीय क्षेत्रों में शांति और विकास कायम रखना कठिन बना दिया।
धर्मांतरण के पीछे केवल धार्मिक संस्थाएं ही नहीं, बल्कि कई बार विदेशी ताकतें भी सक्रिय रहती हैं। इनका उद्देश्य केवल धर्म फैलाना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करना होता है। पूर्वोत्तर में मिशनरी गतिविधियों के बाद अलगाववादी आंदोलनों के उभार ने यह स्पष्ट किया कि धर्मांतरण केवल आध्यात्मिक परिवर्तन नहीं, बल्कि राजनैतिक अस्थिरता का कारण भी बन सकता है।
विदेशी सहायता से चलने वाले संगठनों ने स्थानीय स्तर पर ऐसी मानसिकता बनाई कि भारत “उनका देश” नहीं है, बल्कि एक “बाहरी शक्ति” है। यही मानसिकता आगे चलकर अलग झंडे, अलग संविधान और अलग राष्ट्र की मांग में बदल गई। जनजातीय क्षेत्रों में अलगाववाद को समाप्त करने के लिए केवल कानून या बल का प्रयोग पर्याप्त नहीं है। इसके लिए सांस्कृतिक पुनर्जागरण आवश्यक है। जनजातीय संस्कृति और परंपराओं का संरक्षण किया जाए, ताकि उन्हें अपनी जड़ों पर गर्व हो। शिक्षा और रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएं, जिससे बाहरी प्रभावों की पकड़ कमजोर हो। धर्मांतरण विरोधी कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए, ताकि जनजातियों को लालच, भय या धोखे से धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर न किया जा सके। स्थानीय धर्मगुरुओं और समाज सुधारकों को प्रोत्साहित किया जाए जो जनजातीय परंपराओं के पुनर्जागरण में योगदान दे सकें।
जनजातीय समाज भारत की आत्मा का अभिन्न अंग हैं। उनका जीवन, संस्कृति और विश्वास भारतीय मूल्यों की जड़ में निहित है। धर्मांतरण ने न केवल इस सांस्कृतिक धरोहर को खतरे में डाला है, बल्कि राष्ट्र की एकता को भी चुनौती दी है। इसलिए आवश्यकता है कि हम धर्मांतरण के माध्यम से फैल रहे अलगाववाद को केवल एक सामाजिक समस्या न मानें, बल्कि इसे राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक सुरक्षा का प्रश्न समझकर ठोस कदम उठाए।