आदिवासी अंचल बहुल क्षेत्र में किसी भी कार्य को
प्रारंभ करने से पूर्व भगवान श्री गणेश अर्थात बाबा गणेश की आराधना की जाती है। वस्तुत: जन्म से लेकर मरण तक के सभी कार्यक्रमों के गीतों में राम लक्ष्मण, भोला ईश्वर(महादेव) और हनुमान जी का ही नाम लिया जाता है। इतना ही नहीं समस्त वनवासी समाज के हृदय में राम के प्रति अपार आस्था दिखती है। रामनवमी में निर्जन व्रत हो या दशहरा, एकादशी (आमली ग्यारस) हो होली या दीपावली, राम के सुमिरन बिना कोई त्यौहार नहीं मनता है।
जब राम वन को जाते हैं उसका वर्णन करते हुए आदिवासी गीतों में दुःख प्रकट किया जाता है। पिता की मृत्यु, सीता हरण आदि से घिरे हुए राम पर भी अनेक गीत रचे हुए हैं। इसी तरह राम रावण युद्ध का करमा गीत में वर्णन है। आदिवासियों की सभ्यता संस्कृति में राम है। आदिवासी सच्चे हृदय से राम को पूजते हैं। आदिवासियों के गीत के पूर्व सुमरन में ही कहते हैं ‘पहले सुमीरो वीर हनुमान दूसरों सुमीरों श्री राम’। भक्ति और श्रद्धा के साथ उनके जीवन शैली में राम रचे बसे हैं। लेकिन समाज को तोड़ने वाले कुछ लोग आदिवासियो को रावण का वंशज बताते हैं। जबकि राम तो उनके त्राता थे और उन्होंने ही वनों में बसी जनजातियों को रावण के आतंक से मुक्त किया था। इसीलिए आदिवासियो ने राम को स्वीकार किया है।
नवरात्रि(ज्वारे) के समय नौ दिन माता जी की उपासना करना तथा उसमे राम लक्ष्मण और हनुमान की उपासना करना इससे ज्यादा आस्था का उदाहरण कहा मिल सकता हैं? भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। अर्थात वे पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ उत्तम पुरुष है। उन्होंने वनवास के दौरान देश के सभी वनवासी और दलितों को संगठित करने का कार्य किया और उनको जीवन जीने की शिक्षा दी। इस दौरान उन्होंने सादगी भरा जीवन जिया। उन्होंने देश के सभी संतो के आश्रमों को राक्षसों के आतंक से बचाया। इसका उदाहरण सिर्फ रामायण में ही नहीं देशभर में बिखरे पड़े साक्ष्यों में आसानी से मिल जाएगा। भगवान राम भारत निर्माता थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम भारत की सभी जातियों और संप्रदायों को एक सूत्र में बांधने का कार्य अपने 14 वर्ष के वनवास के दौरान किया था। 14 वर्ष के वनवास में से अंतिम 2 वर्ष को छोड़कर राम ने 12 वर्षों तक भारत के वनवासियों और दलितों को भारत की मुख्य धारा से जोड़कर उन्हें श्रेष्ठ बनाया। यदि आप निषाद, वानर, मतंग और रिच समाज की बात करेंगे तो यह उसे काल के दलित या वनवासी समाज के लोग ही हुआ करते थे। प्रारम्भ होता है केवट प्रसंग से! अयोध्या से 20 किलोमीटर दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की। उसके बात उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज से 20 किलोमीटर दूर श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। इसके बाद चित्रकूट में रहकर उन्होंने धर्म और कर्म की शिक्षा दीक्षा ली। यहीं पर वाल्मीकि आश्रम और माडव्य आश्रम था। यहीं से श्रीराम के भाई भरत उनकी चरण पादुका ले गए थे। चित्रकूट के पास सतना में अत्रि ऋषि का आश्रम था। अत्रि को राक्षसों से मुक्ति दिलाने के बाद प्रभु श्री राम दंडकारण्य क्षेत्र में चले गए, जहां आदिवासियों की बहुलता थी। यहां के आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त करने के बाद प्रभु श्री राम 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच में ही रहे। यहीं पर उनकी भेंट जटायु से हुई थी जो उनका मित्र बन गया। जब रावण सीता को हरण करके ले गया था तब सीता की खोज में राम का पहला सामना शबरी से हुआ था। श्री राम ने 14 वर्ष सघन वनों में भ्रमण कर विभिन्न भारतीय वनवासी एवं जनजातियों में सत्य, प्रेम, मर्यादा और सेवा का संदेश फैलाया। यही कारण रहा कि श्री राम का जब रावण से युद्ध हुआ तो सभी तरह के वनवासी और जनजातियों ने श्री राम का साथ दिया था। कोई आश्चर्य नहीं कि वनवासी अंचल में आज भी भगवान श्री राम को उनकी संस्कृति में समाए हुए हैं और मंगल कार्यों के दौरान उनका पूजन पाठ अपने आप में एक अनिवार्यता है।
-निलेश कटारा