भारत का पिछले 2500 वर्षों का इतिहास संघर्षों से ओतप्रोत रहा है। अनेक प्रकार के आक्रान्ताओं ने भारत पर हमले किए जिसमें यवन, हूण, शक, मंगोल, इस्लामी एवं ईसाई आक्रांता शामिल हैं। यद्यपि इन सभी में से इस्लामवादियों का आक्रमण बिल्कुल भिन्न था। डॉ. नित्यानंद जी की पुस्तक ‘भारतीय संघर्ष के इतिहास’ की प्रस्तावना में रंगा हरि जी द्वारा लिखी गई बात से यह स्पष्ट होता है – “इस्लामपंथियों का आक्रमण बिल्कुल भिन्न था। यहाँ आक्रमण और आक्रांता का मुख्य हेतु मजहबी था – येन केन प्रकरेण सेना के बलबूते पर भी मजहब का विस्तार करना।…अतः उन आक्रमणों की प्रवृत्ति प्रथमतः मजहबी थी, द्वितीयः राजनीतिक।“ इससे स्पष्ट होता है कि भारत में इस्लामी आक्रमण मजहबी अर्थात उस मानसिकता से प्रेरित था जिसने सौ वर्षों में विश्व की अनेक सभ्यताओं और संस्कृतियों को ध्वस्त कर उसे अस्तित्वहीन कर दिया। जहां अनेक सभ्यताओं ने इस वैश्विक इस्लामिक आक्रमण के आगे घुटने टेक दिए तो वहीं भारत ने इसका प्रत्येक मोर्चे पर डटकर सामना किया और यहाँ की मूलसंस्कृति आज भी अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत है। हमारी संस्कृति ऐसे सहस्रों आक्रमणों को झेलने और उनका प्रतिकार करने के बाद भी जीवंत है और अपनी अमरता को सिद्ध करते हुए बढ़ रही है। इस अस्मिता के संघर्ष में अनेक लोगों ने अपने स्तर पर योगदान दिया तो अनेक हुतात्मा हुए। अपनी मातृभूमि पर जन्मी संस्कृति अर्थात ‘स्व’ के संरक्षण का भाव जिसके लिए प्राणों की आहुति भी देना पड़ जाए तथा जो इसके लिए प्रत्येक स्वदेश बंधु को इसके लिए प्रेरणा दें, वही हिन्दुत्व की छवि को प्रस्तुत करता है।
जिस प्रकार हिन्दुत्व के विचार को आत्मसात करके सहस्रों वर्षों से इस राष्ट्र ने अपने अस्तित्व की लड़ाई की, वैसे ही भोजशाला भी आज कर रही है। एकत्व, स्वत्व और वीरत्व के साथ-साथ प्रत्येक परिस्थिति में अडिग रहकर अमर रहने का जो भाव हिन्दुत्व प्रस्तुत करता है, आज वही भोजशाला भी कर रही है। अतः यह कहना उचित है कि भोजशाला हिन्दुत्व की परिचायक है।
सर्वप्रथम भोजशाला से अवगत हो जाते हैं। भोजशाला परमार वंश के विख्यात शासक राजा भोज द्वारा बनाया गया माँ वाग्देवी को समर्पित मंदिर रूपी विश्वविद्यालय था जहां संस्कृत, खगोल शास्त्र, दर्शन, संगीत, योग, आयुर्वेद आदि की शिक्षा दी जाती थी। यहाँ 1000 से अधिक विद्यार्थी समस्त भारतवर्ष से शिक्षा ग्रहण करने आते थे। यह नालंदा और तक्षाशीला की भांति एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय था। कीवदंती अनुसार यहाँ राजा भोज को साक्षात सरस्वती ने दर्शन दिए थे। यह अचंभित कर सकता है कि यह स्थान सरस्वती का मंदिर है लेकिन यहाँ मूलरूप से शिक्षण दिया जा रहा है, किन्तु यह हमें दर्शाता है कि हमारे तीर्थस्थान मात्र देवों के आलय नहीं होते थे, बल्कि वह अपने आप में एक ऐसे संस्थान होते थे जो समाज की शिक्षण, चिकित्सा एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी करते थे। भोजशाला भी उसी प्रकार मंदिर होते हुए भी शाला थी। अतः यह वास्तविक ‘शिक्षा का मंदिर’ था।
अब बात भोजशाला के संघर्ष की करें तो इस पर इस्लामी आक्रमण के सबसे विशाल आघात 1305, 1401 और 1514 में हुए। भोजशाला पर इन आक्रान्ताओं की घृणित दृष्टि 1269 से ही पड़ गई थी जब कमाल मौलाना नाम का मुस्लिम फकीर मालवा पहुंचा तथा एक ‘स्लीपर सेल’ के रूप में कार्य करते हुए सूचनाएं अलाउद्दीन खिलजी को पहुंचाने लगा। उसने मजहब का प्रचार करने के लिए छल-कपट का प्रयोग करके मतांतरण करने के भी प्रयास किए। उसकी सूचनाओं के आधार पर खिलजी ने धार पर आक्रमण किया तथा भोजशाला में अध्ययनरत 1200 विद्यार्थियों और शिक्षकों को बंदी बना लिया। जब वहाँ के स्वाभिमानी हिंदुओं ने धर्म का त्याग करने से मना कर दिया तो खिलजी के हुक्म के अनुसार उनकी हत्या करके मंदिर परिसर को ध्वस्त करके लूट लिया तथा यह विराजित माँ वाग्देवी की प्रतिमा को खंडित करके परिसर के बाहर फेंक दिया। जो परिसर वैज्ञानिक बीजमंत्रों और स्वर्णयुक्त शिलालेखों से पटा था वह इस आक्रमण के बाद रक्त, क्षत-विक्षत देहों और अग्नि से भयावह दिखाई पड़ने लगा था।
इसके पश्चात 1401 में दिलावर खान और 1514 में महमूद शाह ने भोजशाला पर आक्रमण किया और परिसर के बाहरी क्षेत्र पर अतिक्रमण कर के वहाँ मकबरा बना दिया, इसी के साथ राजा भोज द्वारा बनवाए गए सरस्वती कूप को भी कब्जे में लेकर उसे विकृत कर दिया। यह मकबरा उसी मुस्लिम फकीर कमाल मौलाना का मकबरा कहलाता है, तथा सरस्वती कूप को आज अक्कल कुइयां के नाम से जाना जा रहा है। विदित हो की इस सरस्वती कूप में ऐसा सिद्ध जल था जिसका पान करके बुद्धि तीव्र हो जाती थी। यह भोज के आयुर्वेद, चिकित्सा और विज्ञान का प्रमाण था। इसी कारण इसे आज ‘अक्कल कुइयां’ अर्थात अक्ल देने वाला कुआ कहा जाता है। लेकिन अवैध कब्जे के कारण आज दुर्भाग्य से हिन्दू समाज अपनी इस विरासत से दूर हो गया है।
ऐसा नहीं है कि भोजशाला का ह्रास आक्रान्ताओं ने ही किया, स्वतंत्रता के पश्चात काँग्रेस ने भी उसे आगे बढ़ाया तथा तुष्टीकरण की मानसिकता के कारण मुसलमानों को इस परिसर में जबरजस्ती नमाज पढ़ने के लिए अनुमति दी तथा हिंदुओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाकर वर्ष में मात्र एक दिन वसंत पंचमी को ही प्रवेश की अनुमति दी। हिंदुओं के प्रतिबंध के कारण इस परिसर में छैनी और हथोड़ी से सैंकड़ों हिन्दू प्रमाणों को नष्ट कर दिया गया, अनेक बीजमंत्रों और शिलालेखों को जमीन पर लगाकर उन्हें रौंदा जाने लगा तथा प्रांगण के स्तंभों पर अंकित प्रमाणों को चूना भरकर छुपाने के प्रयास भी किए गए। आज भी भोजशाला की दीवारों पर इस तोड़फोड़ के प्रमाण दिखाई देते हैं।
इसके पश्चात हिंदुओं द्वारा चलाए जा रहे सांस्कृतिक पुनर्जागरण के परिणाम भी आने लगे। 1992 में वसंत पंचमी के अवसर पर आयोजित धर्मसभा में साध्वी ऋतंभरा जी ने भोजशाला परिसर में हनुमान चालीसा का आह्वान किया तथा आगामी मंगलवार से ही सत्याग्रह आरंभ हो गया। यहीं से हिंदुओं का स्वाभिमान जागृत होने लगा तथा अपने स्व की पुनर्प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ धरातल पर दिखने लगा। आगे वर्ष 2003 में 1 लाख से अधिक लोगों ने भोजशाला की मुक्ति का संकल्प लिया। इसी वर्ष हुए एक आंदोलन में 3 लोग हुतात्मा हुए और 1400 पर प्रतिबंधात्मक कार्रवाई हुई। इसके परिणामस्वरूप हिंदुओं की 650 वर्ष बाद विजय हुई और उन्हें सशर्त पूजन और प्रवेश का अधिकार मिला। समय के साथ बढ़ती जागरूकता और बढ़ते समभाव के कारण भोजशाला का संघर्ष मात्र धार और आसपास के क्षेत्रों तक सीमित ना रहा बल्कि शनैः-शनैः समस्त प्रदेश और भारत तक भोजशाला का विषय उठने लगा और हिंदुओं को अपनी अस्मिता के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित करने लगा। इससे हिन्दू समाज में वह भाव जागृत हुआ जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने स्तर पर भोजशाला की मुक्ति के लिए मुखर हो रहा है। यही कारण है कि जागरूक और एकजुट समाज के कारण इसी वर्ष 11 मार्च को मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए भोजशाला मंदिर परिसर के पुरातात्विक संरक्षण का निर्णय सुनाया है। यह हिन्दू समाज की एक और विजय है तथा यह भोजशाला की मुक्ति के मार्ग का मील का पत्थर सिद्ध होगी।
जिस प्रकार हमने हिन्दुत्व के विचार का निर्वहन करते हुए अपने धैर्य और शौर्य से अपने अस्तित्व के लिए राष्ट्रव्यापी संघर्ष किया, वही भोजशाला के लिए भी किया जा रहा है। इस संघर्ष में हम पर आक्रमण हुए, हमारी विरासत को समाप्त करने के प्रयास हुए, हमसे अपने अधिकार छीन लिए गए, हमें बलिदान भी करना पड़ा; लेकिन हम निराश नहीं हुए, हमने अपने स्वाभिमान हो नहीं खोया, हम अपने ध्येयपथ पर आगे बढ़ते रहे, हमने अपने उद्देश्य के लिए समाज को एकत्र किया और हमने समय को अपने अनुकूल बनाकर पुनः स्वयं को स्थापित किया। इसी भाव से अंतर्गत आज हम भोजशाला को भी मुक्त करने जा रहे हैं। हिंदुओं के एकत्व के परिणामस्वरूप जहां हमारे प्रवेश पर प्रतिबंध था तथा वर्ष में 1 दिन ही पूजन का अधिकार था, वहाँ आज हम वर्ष में 52 बार प्रत्येक मंगलवार को चित्र, दीपक, शंख, ढोल, मंजीरों के साथ भजन-कीर्तन करते हैं। जो पवित्र स्थान शास्त्रार्थ और मंत्रोच्चार से गूँजता था आज हम उसी परंपरा को हनुमान चालीसा और सरस्वती वंदना से जीवंत करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यह संघर्ष तब तक अधूरा रहेगा, जब तक हमारी सांस्कृतिक विरासत भोजशाला की पूर्ण मुक्त ना हो जाती तथा यहाँ लंदन के संग्रहालय में रखी माँ वाग्देवी की प्रतिमा की पुनः प्राण प्रतिष्ठा ना हो जाती। खिलजी के आक्रमण से आरंभ हुआ यह संघर्ष भलेही आने वाले वर्षों तक और चले, लेकिन यह संघर्षविराम भोजशाला को अवैध अतिक्रमण से मुक्त कर के तथा उसका वैभव लौटाने के पश्चात ही होगा। जिस हिन्दुत्व के विचार ने हमारी संस्कृति को नष्ट होने से बचाकर अमर बनाया है, उसी ने आज भोजशाला को भी मिटने से बचाया है। इसीलिए भोजशाला का संघर्ष हिन्दुत्व के अमृतरूपी विचार का साक्षात उदाहरण है।
– अथर्व पँवार