मैकॉले प्रणीत शिक्षा-पद्धत्ति का दोष कहें या छीजते विश्वासों का दौर – हमारा मन अपने ही त्योहारों, अपने ही संस्कारों, अपनी ही परंपराओं के प्रति सशंकित रहता है। सर्वाधिक सवाल-जवाब हम अपनी परंपराओं से ही करते हैं। भले ही वे परंपराएँ सत्य एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों, सामूहिकता-सामाजिकता को सींचते हों, समय के शिलालेखों पर अक्षर-अक्षर अंकित और जीवंत हों। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारी शिक्षित कही जाने वाली पीढ़ी प्रायः परंपराओं को रूढ़ियों का पर्याय मान लेती है। जबकि रूढ़ियाँ कालबाह्य होती हैं और परंपराओं में गत्यात्मकता होती है। जो समयानुकूल है, वही परंपरा है। परंपरा में जड़ता या प्रतिगामिता के लिए कोई स्थान नहीं होता।
जो लोग सतही तल पर सनातन परंपराओं का अध्ययन-विश्लेषण करते हैं, वे प्रायः गलत निष्कर्ष निकाल बैठते हैं। महाशिवरात्रि, मकर संक्रांति, कुंभ मेले, कार्तिक पूर्णिमा या छठ के अवसर पर भगवान शिव या भगवान भास्कर को दूध-जल अर्पित करना, लाखों-करोड़ों लोगों का एक साथ नदियों में डुबकी लगाना, पूजन के पश्चात कतिपय सामग्री को नदियों में विसर्जित करना – आधुनिक पढ़े-लिखों को कई बार चीजों की बर्बादी या प्रदूषण जान पड़ता है। जबकि सच यह है कि यह व्यर्थ की बर्बादी या प्रदूषण नहीं, अपितु अर्घ्य-दान है। कृतज्ञ मानव का प्रकृति एवं सृष्टि के नियंता के प्रति यह एक प्रकार की श्रद्धाभिव्यक्ति है। हम देंगे नहीं तो पाएँगे कहाँ से! यह कृतज्ञता की संस्कृति है। अभावों के बीच भी प्रकृति से प्राप्त सामग्रियों जैसे- गन्ना, हल्दी, मूली, नारियल, डाभ, अंकुरित चना, अमरूद, सिंघाड़ा, ठेकुआ आदि-आदि को प्रकृति-माता को अर्पित करना एक तृप्तिदायक अनुभव है। अहंकारियों के भाग्य में यह सुख कहाँ! तेरा तुझको अर्पण का यह भाव अद्भुत है, अनुपम है, अमूल्य है! ”प्रकृति की ओर लौटें, प्रकृति के साथ चलें” – यह भाव पूरब वालों के लिए कदाचित कृत्रिम नारा मात्र नहीं, अपितु जीवन-शैली का अभिन्न-अविभाज्य हिस्सा है। प्रकृति से जुड़ने की इस सनातन रीति-नीति-संस्कृति-परंपरा से एनजीटी के कर्त्ता-धर्त्ता संभवतः परिचित नहीं हैं, इसीलिए कई बार वे युमना के किनारे छठ-पूजा करने पर पाबंदी लगा बैठते हैं।
निद्रा एवं स्वप्न में बच्चों को मधुर उपहार भेंट करने की वायवीय कल्पना से जुड़ा सेंटा के अवतरण वाला क्रिसमस डे हो या न्यू ईयर, वैलेंटाइन्स डे, मदर्स डे, फादर्स डे, फ़्रेंडशिप डे जैसे खास दिवसों को मनाने का पश्चिमी चलन, सत्य यही है कि बाजार एवं प्रचार माध्यमों द्वारा खूब प्रचारित-प्रसारित किए जाने के बावजूद भारतीय जन-मन को ये दिवस और प्रतीक – नकली, आयातित, पश्चिम-प्रेरित एवं बाजारवादी ही अधिक जान पड़ते हैं। इन दिवसों को मनाने के बहाने सहज रूप से उपलब्ध मौज-मस्ती के कुछ पल, कृत्रिम और ऊपरी चमक-दमक, थोड़ी देर के लिए अहं को भले ही सेंक दे दे, पर इनसे आत्मा को पोषण नहीं मिलता। जड़ों को मजबूती नहीं मिलती। भीतर कुछ अजनबीपन या रिक्तता बनी रहती है। लाख प्रयासों के, बाजार इन्हें लोक की आत्मा में नहीं उतार पाता। वहीं छठ जैसे पारंपरिक त्योहारों में जन-भावनाओं का नैसर्गिक ज्वार उमड़ पड़ता है। इस अवसर पर आस-पड़ोस, परिचितों-परिजनों के प्रति लोगों का आत्मीय समर्पण देखते ही बनता है। आज के आत्मकेंद्रित युग में भी व्रतियों के लिए अपने सुख व सुविधाओं का त्याग करने को हर कोई सहर्ष तैयार रहता है। क्या इन्हें लोक की अद्भुत विशेषताओं के रूप में पहचाना-अपनाया जाना उचित नहीं रहेगा?
परंतु कोई आश्चर्य नहीं कि भारत की परंपराओं-विश्वासों-मान्यताओं के प्रति सदैव हीनता-बोध से भरे कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को सनातन त्योहारों में छुपा – यह अद्भुत सोशल इंजीनियरिंग या सामाजिक-सांस्कृतिक समरसता का विज्ञान समझ में नहीं आता! सांस्कृतिक एकता के पारंपरिक स्रोतों से जाने-अनजाने अनभिज्ञ एवं अपरिचित होने के कारण वे किसी कृत्रिम या आयातित विचार के आधार पर राजनीतिक तल पर एकता के ख़्वाब संजोते हैं, ऊपरी तल पर समरसता के दृश्य-दृष्टांत ढूँढ़ते हैं, पर लोक की सामूहिक चेतना से जन्मीं-उपजीं इन अनूठी परंपराओं से आँखें मूँदे रहते हैं या उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। वे भूल जाते हैं या उन्हें नहीं मालूम कि ये परंपराएँ ही हमें ”मैं” से ”हम” बनाती हैं। वे लाखों श्रद्धालुओं की डुबकी या पूजन में प्रदूषण तो ढूँढ़ लेते हैं, पर महीनों पूर्व से घाटों, नदियों, ताल-तालाबों की साफ-सफ़ाई उन्हें न जाने क्यों नहीं दिखाई देती? शुचिता/शुद्धता के प्रति सतर्क-सन्नद्ध लोकचेतना का ऐसा अनुपम उदाहरण उनकी दृष्टि से न जाने क्यों ओझल रह जाता है? स्त्री-विमर्श चलाने वाले तथाकथित एक्टिविस्ट प्रायः यह प्रश्न उठाते हैं कि स्त्रियाँ ही क्यों व्रत करें? उन्हें शायद नहीं मालूम या वे शायद जानना ही नहीं चाहते कि छठ जैसे त्योहारों में हजारों-लाखों पुरुष भी व्रत रखते हैं, वे अपने घर से घाट तक की सारी व्यवस्था सहर्ष सँभालते हैं। घाट की साफ-सफाई से लेकर ठेकुआ के लिए गेहूँ धोने-पिसाने, प्रसाद के लिए सभी आवश्यक सामग्री को लाने-जुटाने या घर से कोसों दूर घाट पर प्रसाद की टोकरी लेकर जाने-आने की व्यवस्था हो या कोई अन्य…..इन सबके निर्वाह में पुरुषों की लगभग बराबर की भागीदारी होती है। इतना ही नहीं छठ पूजा में जहाँ स्त्रियाँ जल में उतरकर हाथ उठाती हैं, वहीं परिवार के तमाम पुरूष सदस्य घर से घाट तक भगवान सूर्य को दण्डवत प्रणाम देते हैं। व्रती स्त्रियाँ उनकी श्रद्धा की सर्वोच्च केंद्रबिंदु होती हैं, उनका हर आदेश-आग्रह उनके लिए ब्रह्म-वाक्य की तरह मान्य एवं अकाट्य होता है। भारतीय समाज में व्याप्त तमाम सामाजिक समस्याओं, प्रचलित अंधविश्वासों, लैंगिक भेदभावों के चौतरफा शोर के बीच तस्वीर के इन अच्छे पहलुओं की ओर किसी एक्टिविस्ट या बुद्धिजीवी की दृष्टि क्यों नहीं जाती? दरअसल ये त्योहार, ये परंपराएँ लोक एवं जनमानस के अंतर्प्रक्षालन या पुनर्नवीकरण की अद्भुत प्रक्रिया हैं। इन त्योहारों से गुजरकर हमारी चेतना बार-बार सुसंस्कृत, परिष्कृत एवं परिमार्जित होती है। छठ जैसे महापर्व सामाजिक समरसता की अनूठी मिसाल पेश करते हैं। इसमें जिन सूप, डगरे, दउरे, पात्र आदि में प्रसाद रखा जाता है, उन्हें बनाने वाले लोग समाज के अति तिरस्कृत-उपेक्षित-वंचित वर्ग से आते हैं, उन्हीं के हाथों से बने बाँस की सबसे पतली कमानी के हस्त-निर्मित पात्रों को शुद्ध समझा जाता है।
जब सारी दुनिया उगते हुए सूरज की पूजा-परिक्रमा में जुटी हो, यह महापर्व हमें ढलते हुए सूरज के सम्मान की भी अनूठी सीख देता है। ढलते हुए सूरज की ऐसी सहेज-सँभाल पश्चिम को पूरब की मौलिक सांस्कृतिक देन है। समृद्धि के शिखर पर आरूढ़ सत्ता के समक्ष तो सभी नतमस्तक होते हैं, वैशिष्ट्य तो इसमें है कि जो ढलान पर है, संघर्षरत है, यात्रा में है, बुझता-टिमटिमाता, डूबता-उतराता है, उसका भी मानवोचित स्नेह-सत्कार-सम्मान हो। हर अस्त का उदय होता है। जो आज डूब रहा है, वह कल उगेगा, निश्चित उगेगा, पूरी आभा, ऊर्जा और प्रखरता के साथ उगेगा। इसकी प्रतीति और विश्वास का अनूठा-अनुपम-अद्वितीय पर्व है – छठ। डूबने के बाद उगने-उभरने का यह भाव प्रेरणादायी है। लोक का यह विश्वास हर मन-प्राण का निजी विश्वास बने – इसी में संपूर्ण जगती का कल्याण है।