कल इन्दौर की सुखद ठंड में गर्माहट लाते समय दिग्विजयसिंह के मन-मस्तिष्क में कदाचित् 12 नवंबर, 1996 को चरखी-दादरी के आकाश में हुई हवाई दुर्घटना (mid-air collision) के दृश्य धुमिल नही हुए होंगे। सऊदी अरब के बोईंग-747 और कजाकिस्तान के llyshin II-76 की हरियाणा के चरखी-दादरी के आकाश में जबरदस्त टक्कर से दुनिया थर्रा गयी थी। इस दुर्घटना में लगभग साढ़े तीन सौ यात्रियों की दर्दनाक मौत हुई, जिनमें से अधिकांश (98%) मुस्लिम थे। हिसाम सिद्दीकी के अनुसार इन क्षत-विक्षत शवों को संघ के स्वयंसेवकों ने सम्मान पूर्वक इकट्ठा करके उनके परिजनों को सौंपा। पीड़ितों के परिजनों के आवास और भोजन के साथ ही सहयोग और सांत्वना में केवल संंघ के कार्यकर्ता ही जमीन पर कार्य कर रहे थे।
30 सितम्बर 1993 की भोर के पहले ही महाराष्ट्र के लातूर-उस्मानाबाद में आये भूकंप से धरती के साथ मानवता भी कंपा गयी थी। लगभग 52 गाँवों को अपने विनाश के तांडव में शामिल करते हुए इस भूकंप ने लगभग 10,000 लोगों को लाशों में बदल दिया। इतने बडे विनाशकारी भूकंप के बाद संघ के कार्यकर्ताओं नें लाशों को समेटने से लेकर देशभर से भोजन, कपडों, दवाईयों को इकट्ठा कर लातूर-उस्मानाबाद तक पहुँचाया। भूकंप के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उपकरणों की व्यवस्था से लेकर उनकी आजीविका को पुन: स्थापित करने तक संघ मैदान में लगा रहा।
जब असम में बह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों से आयी बाढ में कई गाँव पुरी तरह से डुब चुके थे, लाखों हेक्टेयर जमीन पर खड़ी फसलें बह गयी थी, ऐसे समय में संघ के असम और कोलकाता के कार्यकर्ताओंं नें दिनरात पीडितों के लिये सहायता पहुँचाने का काम किया। संघ के कार्यकर्ताओंं ने जिस असम भूकंप पीड़ित सहायता समिति का गठन किया, उसके द्वारा किये गये सेवाकार्यों को पूर्वोत्तर में शायद ही कोई भूल पाया है। पूर्वोत्तर में मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी, कोलकाता और संघ के कार्यकर्ताओंं ने साथ मिलकर सेवा और सहायता का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है।
संघ और सेवा का पार्थक्य असंभव है। जहाँ-जहाँ संघ है, वहाँ-वहाँ देश और समाज के लिये अपनत्व के भाव में एकरूपता है।
जब भी व्यक्ति या समाज, प्राकृतिक या किसी अन्य कारण से क्षत-विक्षत हुआ है, तब-तब संघ ने निर्माण और सृजन का काम किया है, चाहे 1955 की पंजाब की बाढ की आपदा हो या उसी वर्ष तमिलनाडू में आया चक्रवात हो, 1956 में अंजार का भूकंप, 1966 का बिहार का अकाल या 1977 का आंध्र का चक्रवात हो, संघ हमेशा सृजन का काम बिना किसी प्रचार-प्रसार के करता रहा है क्योंकि, ये देश और समाज हमारा है। इसीलिए इस देश का प्रत्येक जन हमारा भाई है, उसके सुख-दु:ख में संघ भी सहभागी है। संघ का ये संस्कार केवल संघ का नही है, हमारे पूर्वजों ने जिस प्राणी मात्र के कल्याण की हिन्दू संस्कृति को विकसित किया, उसी के वाहक संघ के स्वयंसेवक है।
केरल में जब बाढ का प्रकोप चरम पर था, तब मुस्लिम और क्रिश्चियन बहुल इलाकों में संघ के स्वयंसेवक दिनरात बचाव कार्य में लगे रहे, बाढ़ग्रस्त इलाकों से लोगों को निकालते समय संघ के कार्यकर्ताओं को सभी में अपने परिवारजन ही दिख रहे थे। यही हिन्दूत्व का साकार रूप है।
सीमा पर तनाव हो या आंतरिक सुरक्षा का प्रश्न हो, संघ के स्वयंसेवक हर मोर्चे पर बिना प्रश्न किये और बिना प्रचार के चुपचाप अपने कर्तव्यों के निर्वहन में खरे उतरे हैं। पड़ोसी देश साथ युद्ध के समय दिल्ली की यातायात व्यवस्था संभालने का अवसर हो या सीमावर्ती क्षेत्रों में ग्राम सुरक्षा का कार्य हो, संघ कभी पीछे नही हटा है।
विभाजन के समय पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों की सहायता का कार्य हो या विनोबा भावे का भूदान आंदोलन या पूर्तगाली कालोनी से दादर-नगर हवेली की मुक्ति का आंदोलन हो, सभी के लिये संघ आशा और विश्वास के दीपक की भाँति जलता रहा, सभी को साथ लेकर चलने और सभी के सुख की कामना करने वाले हिन्दूत्व के प्रकाश से आलोकित करता रहा।
हिन्दूत्व को प्रामाणिकता के साथ जीने वाले संघ के कार्यकर्ताओं के समाज कार्य ने ही लोकनायक जयप्रकाशनारायण को हिन्दूत्व आंदोलन के समीप लाने की पृष्ठभूमि तैयार की।
संघ एक दीपक की भाँति कोरोना काल में गली-मोहल्लों और गाँवों-गाँवों में सेवा और विश्वास का प्रकाश फैलाता रहा। कोरोना पीड़ितों के लिये भोजन, दवाईयों, आक्सीजन की व्यवस्था के साथ ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए समाजजनों के अंतिम संस्कार से लेकर, कोरोना में अपने स्वजनों को खोने वाले परिवारों को ढाँढस बँधाने में संघ कहीं भी पीछे नही हटा।
2001 की 26 जनवरी को कच्छ क्षेत्र में आये विनाशकारी भूकंप ने चारों मौत और विनाश बिखेर दिया। ऐसी कारूणिक परिस्थिति में भी संघ के कार्यकर्ता सेवा कार्यों में सबसे आगे और सबसे पहले पहुँचें। केवल भोजन, कपड़ों और दवाईयों की व्यवस्था ही नही, अपितु संघ के कार्यकर्ताओंं ने 22 गाँवों को पुन: बसाया। कच्छ में बसाये गये इन गाँवों में जाकर देखा जा सकता है कि संघ के कार्यकर्ताओं ने हिन्दू-मुस्लिम का कोई भेद ना करते हुए सभी के लिये समान सहानुभूति रखते हुए घरों का निर्माण किया। छपरेडी, लोडाई और मीठा पसवरिया के घरों में संघ के जलाये दीपक जल रहे हैं। ये दीपक, हिन्दूत्व के प्रकाश से सभी को आलोकित कर रहे हैं।
पूर्वोत्तर के हाफलांग से लेकर हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड तक संघ ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश फैलाने हेतु विद्यालय चला रहा है।
संघ एक दीपक है, जिसे मोरवी की बाँध के ढहने से बहा पानी भी बुझा ना सका। विश्वास और अपनत्व के हिन्दूत्व के प्रकाश को संघ एक दीपक की भाँति चारों ओर फैला रहा है।
- जयशंकर शर्मा