‘योग’ निरपेक्ष, निःस्वार्थ कर्म का मार्ग है… श्रीमद भगवद्गीता

साधारणतःयोग का अर्थ ध्यान,आसन, प्राणायाम और मुद्राओं से ही लिया जाता है परंतु श्रीमद्भगवद्गीता में योग का वास्तविक अर्थ इससे परे वर्णित है।इसमें जीवन की शाश्वत शांति के लिए आध्यात्मिकता के महत्व सहित,योग और इसकी प्रक्रिया को परिभाषित किया गया है।

भगवद गीता का उद्देश्य, योग में आसन का अभ्यास या श्वास,किस प्रकार लेना,छोड़ना है इसका मार्गदर्शन देना नहीं है,अपितु मानव की प्रकृति, सार्थक जीवन जीने के प्रकार,आध्यात्मिक खोज के महत्व और ज्ञान प्राप्ति के विभिन्न मार्गों जैसी उच्च अवधारणाओं को समझाना है।गीता के अनुसार,योग का अर्थ है,स्वकर्मों को शुद्ध करना,मन और सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए परमतत्त्व (ईश्वर) में मन को एकाग्र करना। गीता में योग,, निरपेक्ष,निःस्वार्थ कर्म का मार्ग है।

स्वयं श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि,पार्थ, जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है इस बंधन से कोई जीव मुक्त नहीं है। स्वयं मैं भी कर्म बंधन के पाश में बंधा हुआ हुं।सूर्य और चंद्रमा भी निरंतर कर्म मार्ग पर प्रशस्त हैं।अतः तुम्हें भी कर्मशील बनना चाहिए।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते हे धनञ्जय आसक्ति का त्याग करके सिद्धि – असिद्धि में सम होकर योग में स्थित होकर कर्मों को कर क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
श्रीकृष्ण ने गीता में योग शब्द का सौ से अधिक बार प्रयोग किया है, उन्होंने कर्म (कार्रवाई), धर्म (कर्तव्य), आत्मा (आत्मा), ब्रह्म (ब्रह्मांड), मोक्ष (सांसारिक बंधन से मुक्ति) से जुड़े दर्शन की सहायता से अर्जुन को समझाया कि कैसे इस ज्ञान को आत्मसात कर मानव,दुविधा और चिंता मुक्त जीवन का आनंद ले सकता है।

भगवद्गीता में योग के प्रकार..
गीता में योग की अनेक नवीन और विशुद्ध परिभाषाओं के साथ योग के भिन्न – भिन्न रूपों का वर्णन किया गया है और प्रत्येक योग अंतत: ईश्वर से ही जुड़ता है।वैसे तो गीता में अठारह योग बताए गए हैं उनमें से चार योग प्रमुख हैं..कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग और आत्म नियंत्रण योग।

कर्म योग..
“कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन “
जो भी मानव निष्काम भाव से,कर्मफल की चिंता किए बिना,आसक्ति रहित होकर कर्म करता है वही वास्तविक कर्मयोगी है।एक कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता मात्र कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है।श्रीकृष्ण कहते हैं किसी भी जीव का अकर्मा रहना संभव ही नहीं है जो लोग कर्म नहीं करते हैं,अपने कर्तव्य से भागते हैं, वह कायर होते हैं।कर्म योग कोई आसन नहीं है,यह मन का अनुशासन है।जो साधु वस्त्र धारण कर स्वयं को संन्यासी प्रदर्शित करते हैं लेकिन आंतरिक रूप से इन्द्रिय विषयों के भोगों के प्रति आसक्ति रखते हैं,वह ढोंगी हैं। जो कर्मयोग का अनुपालन करते हुए बाह्य रूप से निरन्तर कर्म करते रहते हैं लेकिन उनमें आसक्त नहीं होते,वही सन्यासी हैं चाहे वह कोई सांसारिक व्यक्ति ही क्यों न हो।

भक्ति योग..
ईश्वरीय सेवा, भक्ति योग का महत्वपूर्ण अंग है।ईश्वर से गहरा प्रेमभाव,समर्पण की भावना और निष्ठा के माध्यम से अनंत चैतन्य के चरणों में स्वयं को अर्पित कर देना ही भक्ति योग में मुक्ति का मार्ग बताया गया है।

ज्ञान योग..
श्रीकृष्ण ने ज्ञान योग को सबसे शुद्ध बताया है।ज्ञान योग का उद्देश्य मानव को आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में प्रवृत्त करना है।ज्ञान योग को समझने का सबसे उत्तम साधन है, स्वाध्याय, चिंतन और ध्यान ।गीता के अनुसार मानव अज्ञानवश बंधनों में उलझा रहता है और अज्ञान का अन्त ज्ञान से ही संभव है इसीलिए गीता मोक्ष प्राप्ति हेतु ज्ञान की महत्ता पर प्रकाश डालती है।

आत्म नियंत्रण..
आत्म नियंत्रण का अर्थ है, बिना किसी विचलन के इंद्रियों पर नियंत्रण।जब आपअपने मन के स्वामी होते है तब मन,आपका सबसे उत्तम मित्र है परंतु जब मन आपको,अपना दास बना लेता है तब उससे बड़ा शत्रु कोई नहीं।गीता में मन की तुलना एक रथ से की गई है,जिसे पांच अश्व (इंद्रियाँ) निरंतर भोग विलास की ओर खींचते रहते हैं और मानव उनके मोहपाश में जकड़ा रहता है। सारथी (मानव) को दृढ़ता के साथ अश्वों की लगाम पकड़े रहना चाहिए।जैसा कि इस श्लोक में बताया गया है..

“यतो यतो निष्कलयते मनश्च चञ्चलं तद् एव तद् अभ्यासेन योगेत्सु निरोधते | एवम् क्षीणकलमतृष्णः सर्वकारणविष्टबुद्धिः युक्तधीः सुलभः परमज्योति ||”
“जहाँ भी चंचल मन डगमगाता हुआ जाता है, योगी को उसे वहीं एकाग्र करके वापस लाना चाहिए। इस प्रकार इच्छा और शोक से मुक्त होकर, सभी स्थितियों में बुद्धि को स्थिर रखते हुए, योगी आसानी से परम प्रकाश को प्राप्त कर लेता है।”

वर्तमान के अनियमित,अशांत जीवन में शांति और मौन स्थापित करने के लिए योग आवश्यक है।योग, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए अमृत समान है। महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन का मन अत्यंत व्यथित था।रणभूमि में अपनों के साथ युद्ध का विचार ही उन्हे मृत्यु तुल्य कष्ट दे रहा था,वह मोहग्रस्त हुए जा रहे थे। वहीं,उन्हे इस स्थिति में देख श्रीकृष्ण को कोई आश्चर्य नहीं था वह प्रसन्न थे मानों बिल्ली के भाग से छींका टूटा हो क्योंकि यही वह समय था जब श्रीकृष्ण को अर्जुन के माध्यम से सकल संसार को गीता का महान व अद्भुत ज्ञान प्रदान करना था।वह पालनहार हैं,उन्होंने अर्जुन को तब ज्ञान दिया जब उन्होंने मोहवश अपने कर्म का त्याग कर शस्त्र त्याग दिए और अपने संबंधियों के विरुद्ध युद्ध नहीं लड़ने का निर्णय किया।अंत में अर्जुन को असमंजस में देख,श्रीकृष्ण नेअपना विराट स्वरूप दिखा,गीता का उपदेश दिया और अर्जुन ने गीता के ज्ञान को आत्मसात कर युद्ध का निश्चय किया।

युद्ध में भगवद गीता की पृष्ठभूमि अति महत्वपूर्ण है।यह युद्ध क्षेत्र,हमारे जीवन में,हमारे अंतर्मन में चलने वाले द्वंद्व का प्रतीक है।जीवन में परिस्थितिवश ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जो हम नहीं लेना चाहते हैं।गीता इसी अवधारणा को संबोधित करती है और इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि मानव जीवन में,योगिक जीवन शैली और कर्तव्यों का निर्वहन अनिवार्य होना चाहिए। आत्म-नियंत्रण एक बार की उपलब्धि नहीं है अपितु जागरूकता और पुनर्निर्देशन का एक सतत कार्य है।हमें सतर्क रहकर,विचारों और कार्यों को अपने उच्च उद्देश्य की ओर निर्देशित करते रहना चाहिए।

योग,,मन,शरीर और आत्मा की एक ऐसी प्रक्रिया है,जिसका अभ्यास और उपयोग सही अर्थों में किया जाए तो ही जीवन की सार्थकता संभव है। वर्तमान में,योग को आमतौर पर एक व्यायाम के रूप में जाना जाता है और जनमानस में इस धारणा को बदलना जटिल कार्य है।योग का उद्देश्य मात्र,वजन कम करना,पीठ दर्द ठीक करना या सिर्फ़ स्वस्थ होना नहीं है योग का उद्देश्य तो परम हितकारी मोक्ष दायक है।इसके लिए आपको स्वस्थ शरीर के साथ,स्वस्थ मन की भी आवश्यकता होगी।पतंजलि योगसूत्र में भी चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का ही विधान है।योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना ही योग है।

निराकार परब्रह्म से एकाकार होना ही हमारे जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिए।तो, योगी बनिए और जीवन की महापरिवर्तनकारी,आनंददाई यात्रा की ओर प्रस्थान कीजिए।प्रत्येक अनुशासित श्वास,प्रत्येक जागृत विकल्प के साथ,आप अपने मन रूपी रथ के अश्वों ( इन्फ्रियों) को नियंत्रित कर,अपने भीतर स्थित शांति और स्थिरता की खोज के समीप पहुँच जाएँगे।आपके भीतर का सारथी अपनी स्थिर लय पा ले,और परम प्रकाश की ओर आपकी यात्रा,अनुकंपा और आत्मज्ञान से परिपूर्ण हो जाए यही शुभकामना..
जय श्री कृष्ण

।।यतो कृष्ण स्ततोजयः।।
– राजेश्वरी भट्ट (ब्रह्मपुर ) बुरहानपुर

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