राष्ट्र व समाज के कल्याण की कामना करने वाला प्रत्येक व्यक्ति संघ का स्वयंसेवक बन सकता है। संघ में जाने के लिये केवल एक ही अनिवार्यता है –राष्ट्रप्रेम की स्वप्रेरणा। यही स्वप्रेरणा उसके ‘स्व’को समाज से जोड़ने का हेतु प्रदान करती है।
हाल ही में कांग्रेस के एक नेता ने संघ की आलोचना इस संदर्भ में की कि संघ गुपचुप कार्य करता है। इस बारे में यही कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य ‘मौन’अवश्य है, मगर ‘गुप्त’नहीं; खुले में लगने वाली शाखाऍं इसका स्पष्ट प्रमाण है। संघ क्या करता है, कैसे करता है, यह आप किसी भी संघ की शाखा में जाकर स्वयं देख सकते हैं। संघ, विश्व का एकमात्र ऐसा स्वयंसेवी संगठन है, जिसमें किसी तरह की कोई मेम्बरशिप नहीं लगती। राष्ट्र व समाज के कल्याण की कामना करने वाला प्रत्येक व्यक्ति संघ का स्वयंसेवक बन सकता है। संघ में जाने के लिये केवल एक ही अनिवार्यता है –राष्ट्रप्रेम की स्वप्रेरणा। यही स्वप्रेरणा उसके ‘स्व’को समाज से जोड़ने का हेतु प्रदान करती है। संघ की समाज में बढ़ती जा रही स्वीकार्यता एवं व्याप्ति से केवल वे ही लोग भयभीत हैं, जो कि समाज को एकसूत्र में बॉंधने के प्रयत्न, उसके अनुशासन एवं एकात्मता की भावना का प्रतिरोध करते हैं। दूसरा वे कह रहे थे कि संघ को आपने कभी धरना, प्रदर्शन इत्यादि करते हुए नहीं देखा, तो ये सज्जन इस बात की उपेक्षा कर रहे हैं कि संघ एक बेहद अनुशासित संगठन है। संघ कोई भी राष्ट्र-विरोधी, जन-विरोधी अथवा कानून-विरोधी कार्य नहीं करता है और न ही कभी उसका समर्थन करता है। संघ कोई राजनितिक संगठन नहीं है। संघ ने सदैव ही अपने ऊपर लगे आरोपों का भी कभी मुखरता से प्रत्युत्तर नहीं दिया। इसके पीछे सिर्फ एक ही कारण रहा है कि संघ ये मानता है कि अगर हम सही होंगे, तभी हमारी सामाजिक स्वीकार्यता होगी, अन्यथा समाज स्वयं ही हमें नकार देगा। और आज देखा ही जा सकता है कि संघ विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक संगठन है। अब यह संगठन बिना सामाजिक स्वीकार्यता के तो इतना बड़ा हो नहीं सकता! इस राष्ट्र-संस्काररूपी वृक्ष को कई-कई महान आत्माओं ने अपने रक्त से सींचा है। तीसरी बात जो उन्होंने कही, वह यह थी कि आज सभी संवैधानिक पदों पर एक हिन्दू ही आसीन हैं, तो फिर समाज को किसका भय है? वे सज्जन इस बात अनदेखी कर रहे हैं अथवा उन्हें अपने ही देश का इतिहास का बोध नहीं है कि हिन्दू समाज सदियों से संघर्षशील ही रहा है, भले ही उनका राज्य किसी के भी अधीन रहा हो। हिन्दू समाज के आज तक बचे रहने की पीछे हमारे पूर्वजों की संघर्षशीलता, उद्यमशीलता एवं प्रखर जीजिविषा रही है। मुट्ठीभर लोग आकर इस विशाल राज्य पर राज कर सके, क्योंकि हम कभी क्षेत्रियता में बँटे रहे, तो कभी जातियों में; कभी भाषा में, तो कभी परंपराओं में। ऊपर से हिन्दू समाज इतना भोला रहा है कि उसने सदैव ही सबको ‘‘अतिथि देवो भव:’’मानकर सम्मानपूर्वक अपनाया है, फिर चाहे वे किसी भी धर्म, संप्रदाय, मत या देश के रहे हों। उसी का भुगतान हमने हमारी कई-कई एकड़ की भूमि को आततायियों को भेंट में देकर चुकाया है। ताज़ा इतिहास में पाकिस्तान एवं बांग्लादेश इसके उदाहरण हैं, जिन्होंने धर्म के आधार पर अलग देश की मॉंग की। विभाजन की मॉंग कभी भी हिन्दू समाज के द्वारा नहीं उठी! आज भी देश के विभिन्न हिस्सों से विभाजन की मॉंगें यदा-कदा उठती ही रहती हैं, जहॉं पर भी हिन्दू समाज अल्पसंख्यक होने की कगार पर है। फिर किस मुँह से वे विभाजनकारी होने का आरोप हिन्दू समाज पर लगा सकते हैं? संघ ने सदैव ही अपने आलोचकों को पर्याप्त सम्मान दिया है एवं यहॉं विरोधियों के विचारों को भी सुनने की एक विस्तृत परंपरा रही है। सन् १९३३ में महात्मा गॉंधी संघ के वर्धा शिविर में पधारे थे। संघ के अनुशासन और एकात्मता देखकर वे दंग रह गए थे और उन्होंने कहा था कि ‘‘जिस अस्पृश्यता या जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिये मैं कार्य कर रहा हूँ, उसे संघ तो बहुत पहले से ही करता आ रहा है!’’गॉंधी जी को यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ था कि स्वयंसेवकों को एक-दूसरे की जाति तक भी पता नहीं थी। ऐसा ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी के साथ हुआ कि वे सन् 1967 में बिहार के अकाल में कार्यरत स्वयंसेवकों को देखने पहुँचे थे। संघ की नि:स्वार्थ सेवा भावना से प्रभावित होकर वे संघ से बाद में जुड़ गये। एक बार उन्होंने संघ पर लगे फासीवाद के आरोपों पर मीडिया में यह भी कहा था कि ‘‘यदि जनसंघ फासिस्ट है, तो मैं स्वयं भी फासिस्ट ही हूँ।’’ आगे उन्होंने यह भी कहा था कि ‘‘संघ के स्वयंसेवकों की देशभक्ति किसी प्रधानमंत्री से कम नहीं है।’’ देश के प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु ने १९६२ के चीन के युद्ध में संघ से मदद मॉंगी थी। देश के विभिन्न हिस्सों से संघ के स्वयंसेवकों ने सेना के साथ विभिन्न मोर्चों पर सीमा संभाली थी। १९६३ को नेहरु जी ने स्वयंसेवकों को २६ जनवरी की परेड में आने का न्यौता भी दिया था, जिसमें संघ शामिल भी हुआ था। इसी प्रकार १९६५ के पाकिस्तानी युद्ध में भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने कानून एवं यातायात नियंत्रण के लिये भी संघ की मदद ली थी। घायल जवानों के लिये रक्तदान करने में एक ओर जहॉं स्वयंसेवक आगे रहे, वहीं युद्ध के दौरान कश्मीर की हवाई पट्टियों से बर्फ हटाने जैसे कार्यों में भी पुलिस का हाथ बँटाया था। संघ के जनोपयोगी कार्यों की चर्चा करने के लिये बहुत समय चाहिये। यहॉं यह उल्लेख करना आवश्यक है कि देश में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में कई दुरुह स्थानों पर सेवाकार्यों के लिये सेना से भी पहले पहुँच जाती है। संघ पर शुरू से ही अनर्गल एवं बेबुनियाद आरोपों की एक लंबी फेहरिस्त रही है और ये आरोप लगाने वाले वे लोग ही हैं, जिन्होंने कभी भी किसी शाखा पर जाकर नहीं झॉंका है, न ही वे किसी कार्यक्रम में आये और न ही उसके सेवा कार्यों के बारे में इन्हें तनिक भी जानकारी है। जिन स्वयंसेवकों की प्रात:काल ही भूमि-वंदन से होती है, उस पर लांछन लगाना, अपनी माता पर संदेह करने के समान है। जो लोग संघ को मुसलमान विरोधी बताते आए हैं, क्या उन्होंने कभी यह बताया है कि संघ द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों में २७,००० भी अधिक मुस्लिम बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं एवं कई स्कूलों में सैकड़ों मुस्लिम आचार्य भी पढ़ा रहे हैं! विभिन्न मंचों से संघ की आलोचना करने वालों ने क्या कभी आतंकवादी संगठनों की आलोचना की है? क्या वे चर्चों के द्वारा तथाकथित ‘सेवा’ की आड़ में चल रहे कन्वर्जन पर कुछ कहते हैं? नहीं कहते, क्योंकि उनके मन से एक ही बात बैठी हुई है कि इस समाज पर कितना ही आरोप लगा लो, ये प्रतिकार नहीं करेंगे और करेंगे भी तो बहुत संयमित प्रतिक्रिया देंगे। मगर किसी की सज्जनता को कभी उसकी कमज़ोरी समझने की भूल नहीं करना चाहिए। अपने राजनैतिक कैरियर के अंतिम चरण में महज़ अखबार की चंद सुर्खियॉं हासिल करने के लिये ऐसी सस्ती राजनीति करने के बजाय, ऐसे नेताओं को अपनी ऊर्जा सकारात्मक कार्यों में लगाना चाहिए, क्योंकि संघ क्या है, ये तो समाज विगत ९७ वर्षों से देख ही रहा है, अत: यह कार्य समाज के ऊपर ही छोड़ देना चाहिये!
-दुर्गेश साद