फिल्म निर्माण की कहानी का प्रारम्भ ही एक चतुराई भरे झूठ से हुआ था

श्याम बेनेगल को भी इसी तरह महानतम फिल्म निर्देशक का ताज पहनाया गया था। दशकों से उनकी छवि एक ऐसे कसे हुए निर्देशक की रही, जिसने मुख्यधारा से हट कर कठोर वास्तविकता दर्शाने वाली उत्कृष्ट फिल्में बनाई। परन्तु यदि वामपंथी सर्व तन्त्र द्वारा निर्मित छवि के परे देखा जाए तो श्याम के निर्देशन के कईं कमजोर पहलू उभर कर आते हैं जिन पर कभी कोई चर्चा ही नहीं हुई। उदाहरण के लिए उनकी फिल्म मँथन की चर्चा की जा सकती है। मँथन 1976 में बनी थी। नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, कुलभूषण खरबंदा आदि कलाकारों का अभिनय है। फिल्म के बारे में प्रचारित किया गया था कि फिल्म अमूल दुग्ध संघ के माध्यम से सहकारी संस्था की सफलता पर और इस प्रकल्प में श्री वर्गीज कुरियन की भूमिका पर आधारित थी। और यह भी कि इस फिल्म के निर्माण हेतु अमूल से जुड़े किसानों द्वारा धन जुटाया गया था। मँथन को आज भी उत्कृष्ट फिल्मों की सूची में काफी ऊपर रखा जाता है।

वामपंथी सर्व तन्त्र, जीवन के हर क्षेत्र में छद्म नायक गढ़ने में माहिर रहा है। लेखन, काव्य, नाट्यशास्त्र, फिल्म, पत्रकारिता, सामाजिक कार्य आदि सभी क्षेत्रों में विगत दशकों में कईं छद्म नायक गढ़े गए। ऐसे छद्म नायकों में न योग्यता होती थी, न कौशल और न ही प्रतिभा! या जिनमें प्रतिभा होती भी थी तो उनकी नीयत संदिग्ध रहती थी। परन्तु सर्व तन्त्र द्वारा उन पर महानता थोप दी जाती थी।

अभी हाल ही में ट्विटर तथाकथित सुपर स्टार ध्रुव राठी द्वारा उनके उनके अनुयायियों को मँथन देखने के निर्देश दिए गए थे! 2024 में! शीघ्र ही फ्रांस के कान्स में होने वाले विश्वप्रसिद्ध फिल्म महोत्सव में क्लासिक श्रेणी में मँथन का पुनर्प्रदर्शन किया गया और जाहिर है फिल्म की भूरी भूरी प्रशंसा की गई। क्या वास्तव में मँथन एक असाधारण निर्देशक द्वारा बनाई गई उत्कृष्ट फिल्म है? क्या श्याम बेनेगल द्वारा वास्तव में वर्गीज कुरियन के परिश्रम और आणन्द, गुजरात के कृषकों के प्रयासों का यश गान किया गया है? या यह फिल्म झूठ और भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में फ़र्ज़ी विमर्श का पुलिंदा भर है? आइए देखते हैं।

फिल्म की श्रेष्ठता को आंकने का पैमाना क्या होना चाहिए? निश्चय ही सबसे पहले फिल्म उद्योग में प्रचलित आधारों पर फिल्मांकन की गुणवत्ता देखना होगी। 1976 में भी मँथन के फिल्मांकन को अधिक से अधिक साधारण कहा जा सकता है। मँथन की तुलना में आनन्द, मदर इंडिया, शोले और मुगल ए आजम जैसी फिल्में काफी पहले बनी होने के बावजूद उनकी भव्यता, कुशल निर्देशन, भावनात्मक प्रभाव, सामाजिक सरोकार और नाटकीयता में कहीं अधिक प्रभावी थी। आज के युग के लिए, यदि तकनीकी बदलाव को छोड़ भी दिया जाए, तो यह साधारण से भी निकृष्ट फिल्मांकन कहलाएगा। अभिनय, निर्देशन, कथानक और कसावट की दृष्टि से आज के साधारण टीवी धारावाहिक भी बेहतर सिद्ध होंगे।

फिल्म निर्माण की कहानी का प्रारम्भ ही एक चतुराई भरे झूठ से हुआ था कि गुजरात के 500000 किसानों द्वारा इस फिल्म के निर्माण हेतु धन इकट्ठा किया गया था। सच यह है कि फिल्म को कॉरपोरेट फंडिंग प्राप्त हुई थी। गुजरात में दूध के व्यापार को नियंत्रित करने वाले दुग्ध संघ द्वारा किसानों के एक दिन के दूध को क्रय करते समय 2/- प्रति किसान काट लिया गया था। दुग्ध संघ से जुड़े करीब पांच लाख किसानों से यह राशि उनके विक्रय में से काट ली गई थी। इस प्रकार फिल्म निर्माण हेतु आवश्यक 10 लाख रुपए जुटाए गए थे। आज यदि रिलायंस इंडस्ट्री अपने तमाम जिओ उपभोक्ताओं के बिल में 2/- अतिरिक्त जोड़ दे तो शायद हो कोई इस पर ध्यान देगा। अब यदि इस प्रकार जुटाए गए धन से रिलायंस किसी फिल्म निर्माण के लिए 10 करोड़ की राशि उपलब्ध करता है तो क्या इसे जिओ उपभोक्ताओं द्वारा इकठ्ठा किया गया धन कहा जाएगा? आज यदि सावरकर या गुरु गोलवलकर पर फिल्म निर्माण किया जाए और उसे रिलायंस इस प्रकार धन जुटा कर उपलब्ध कार्य तो यही वाम पंथी सर्व तन्त्र इसे लोगों की जेब काट कर एकत्रित किया हुआ धन बताएगा!

यह फिल्म 1976 में बनाई गई थी और फिल्म के कथानक में वहीं कालखंड बताया गया है। पात्रों के परिधानों, उपयोग किए जा रहे उपकरणों, फिल्म में चल रहे रेडियो पर बजते गीत आदि से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म का कालखंड 70 का दशक ही है। जबकि, वास्तविकता में गुजरात में दुग्ध संघ का सहकारी आंदोलन 1940 के दशक से ही प्रारम्भ हो चुका था। फिल्म बनने के लगभग 30 वर्ष पूर्व ही। 50 के दशक में यह आगे बढ़ा और 60 का दशक समाप्त होते होते यह अपने पूर्णत्व पर आ चुका था। 70 के दशक में यह सफलता का एक जगमगाता उदाहरण बन चुका था। भारत के प्रथम दो प्रधानमंत्री नेहरू जी और शास्त्री जी द्वारा इस योजना को बढ़ावा दिया गया और दोनों ही इस दुग्ध क्रान्ति के सिलसिले में आणन्द भी गए थे। स्पष्ट है कि फिल्म के कालखंड से एक दशक पूर्व ही दुग्ध संघ की सफलता की कहानी दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व तक पहुंच चुकी थी। प्रारंभिक सफलता के पश्चात छोटी छोटी सहकारी दुग्ध संस्थाओं को जोड़ कर 1973 में अमूल को एक विशाल कॉरपोरेट समूह के रूप में स्थापित कर दिया गया था। 1976, फिल्म निर्माण के वर्ष में, अमूल एक विशाल और प्रतिष्ठित ब्रांड बन चुका था। परन्तु फिल्म में 40 और 50 के दशकों के संघर्ष, 70 के दशक में घटित होते दिखाए जा रहे थे। यदि यह सफेद झूठ नहीं था तो फिर इसे घनघोर लापरवाही और नाकाबिलियत ही मन जाएगा। और जाहिर है, निर्माता, निर्देशक और लेखक ही इसके लिए जिम्मेदार माने जाएंगे।

यहां यह देखना आवश्यक है कि फिल्म के माध्यम से समाज को क्या सन्देश देने का प्रयास था? जैसा कि ऊपर बताया गया है फिल्म के निर्माण तक ऑपरेशन फ्लड के नाम से प्रसिद्ध दुग्ध क्रान्ति सफलता के शीर्ष पर पहुंच चुकी थी। हरित क्रान्ति के साथ साथ देश को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था। ऐसी स्थिति में घोषित रूप से अमूल पर बन रही फिल्म से अपेक्षित था कि अमूल दुग्ध आंदोलन की भव्य सफलता को एक प्रेरणादायक कार्यक्रम के रूप में दर्शकों के सामने पेश किया जाए। प्रारम्भिक संघर्ष भी बताया ही जा सकता था परन्तु फिल्म का मुख्य उद्देश्य तो ऑपरेशन फ्लड की प्रेरणादाई सफलता ही होना चाहिए था। परन्तु फिल्म में मुख्यतः सिर्फ और सिर्फ जाति प्रथा दिखाई गई है। पूरी फिल्म जातियता की अतिरंजित नकारात्मकता और मनहूसियत पर ही आधारित है। फिल्म को देखकर यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारतीय समाज एक सुनहरे अवसर को भुना नहीं पाया। वस्तुस्थिति यह है कि मात्र दो दशकों बाद आर्थिक नीति के बन्धन मुक्त होते ही भारत ने यह बात दिया कि समाज में अंतर्निहित प्रतिभा, वैश्विक बाजार की प्रतियोगिता की चुनौती के लिए सक्षम थी। मुक्त आर्थिक वातावरण में कईं ऐसे उद्योग पनपे जो तब तक अस्तित्व में ही नहीं थे। IT, टेलीकॉम, पर्यटन, वाहन और स्वास्थ्य सुविधाएं आदि इस प्रगति के उदाहरण रहे हैं। समाजवादी अर्थनीति से उपजी लालफीताशाही या परमिट राज की वजह से व्यापार करने की पीड़ाओं को दिखाने की बजाय सारा ठीकरा जाती प्रथा और हिन्दू परिवेश पर फोड़ दिया गया।

पूरा प्रयास यही दिखने का रहा है कि भारत में जाति प्रथा ही सर्वोपरि है। या तो फिल्म निर्माता भारत को समझते नहीं है या रणनीतिक रूप से भारत के तथाकथित सवर्णों को शोषक के रूप में दिखाना ही उद्देश्य था, भले ही वास्तविकता में उनकी भूमिका कितनी ही रचनात्मक रही हो।

गाँव में मिश्रा नामधारी व्यक्ति, जो जाहिर है ब्राह्मण है, को धूर्त और शोषक दुग्ध व्यापारी के रूप में चित्रित किया गया है। भारतीय समाज की उसी जाति प्रथा के चलते, भारतीय समाज को समझने वाला हर व्यक्ति जनता है कि 70 के दशक में गांवों में दूध का व्यापार कौनसा समाज करता था। आज भी दूध के व्यवसाय पर कुछ समाजों का प्रभुत्व है जो कि पुश्तों से चल आ रहा है। 70 के दशक में कितने ही ब्राह्मण दूध का व्यवसाय करते थे?

दुग्ध संघ की स्थापना हेतु शहर से आए दल के एक सदस्य के एक स्थानीय युवती से सम्बन्ध बन जाते हैं जिससे वह गर्भवती हो जाती है। दल के उस सदस्य को मराठी ब्राह्मण का नाम दिया गया है। स्वतंत्रता के पश्चात तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से बड़ी संख्या में ब्राह्मण नौकरियों की वजह से मध्य और उत्तर भारत के गांवों में पहुंच गए थे। यह तथ्य ही है कि उन्हें नौकरियां उनकी जातिगत विशेषता की वजह से मिली थी। परन्तु, फिल्म में जो घटना दिखाई गई है ऐसी घटनाएं नगण्य ही घटित हुई थी। दूसरी ओर, इन सुशिक्षित व्यक्तियों के छोटे छोटे गांवों में पहुंचने से उन गांवों के समाजों को शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण के कार्यों में उल्लेखनीय सहयोग प्राप्त हुआ। इस प्रकार की सामाजिक रचनात्मकता को दिखाने के स्थान पर निर्देशक द्वारा मुख्य कहानी की कोई मांग न होते हुए भी जबरन एक अवांछित दृश्य फिल्म में घुसाया गया है।

एक महिमामंडित निर्देशक से हमारी अपेक्षा होती है कि छोटी से छोटी बातों का भी ध्यान रख कर फिल्मांकन को प्रभावी और वास्तविक बनाया जाए। यहां भी फिल्म निराश ही करती है। गुजरात के गांव में व्यापारी का नाम मिश्रा बताया गया जो गुजरात से ज्यादा उत्तर प्रदेश में सहज लगता है। मजे की बात तो यह है कि अमरीश पुरी द्वारा अभिनीत गुजरात का यह मिश्रा, ठेठ पंजाबी लहजे में बात करता है! यह समझ के परे है। सम्भवतः अमरीश पूरी को पात्र का लहजा देहाती रखने के लिए कहा होगा और उन्हें पंजाब के ही देहात का अनुभव रहा होगा!

अन्य पात्रों की भाषा भी काफी असंगत रही है। संभाषण हिन्दी में ही है बस कुछ गुजराती शब्द यहां वहां उछलते रहते हैं। फिल्म के प्रारम्भ में सभी पत्र मोटे ऊनी कपड़ों में दिखाए गए हैं। फिल्म में गुजरात का जो हिस्सा दिखाया गया है वहां सर्दियों का मौसम लगभग न के बराबर रहता है। सम्भवतः कहानीकार ने दिल्ली की सर्दियों में कहानी लिखी होगी!

फिल्म के नायक डॉ राव का किरदार गिरीश कर्नाड ने निभाया है। कईं दृश्यों में वे किसी कॉमरेड की भूमिका में नजर आते हैं। एक दृश्य में वे यह धमकी सी देते नजर आते हैं कि जानवरों की संख्या की वजह से कोई ज्यादा दूध लाए या कम, सबके साथ एक सा ही व्यवहार होगा। इन शब्दों के पीछे उनका इरादा क्या है वह स्पष्ट नहीं है। उनकी पत्नी बगैर किसी वजह के चिड़चिड़ी बताई गई है। शायद नायक का हर मोर्चे पर संघर्षरत रहना आवश्यक होगा।

पूरी फिल्म में सकारात्मक दृश्य ढूंढने पर ही मिलते हैं। फिल्म का फिल्मांकन वास्तविक रूप से गांव में ही हुआ है और प्रभावी है। नसीरुद्दीन शाह और विशेष रूप से स्मिता पाटिल का अभिनय अद्भुत है। वेशभूषा में गुजरात की स्पष्ट छवि है। छायांकन भी अच्छा है। परन्तु जैसा कि पहले भी कहा है, उस कल में बन रही अन्य फिल्मों की गुणवत्ता कहीं बेहतर थी।

दिलचस्प तथ्य तो यह है कि 1976 की फिल्म अब पुनः प्रदर्शित क्यों हो रही हैं? ध्रुव राठी इसे क्यूं प्रचारित कर रहे हैं? कान्स में फिल्म का प्रदर्शन तो हुआ ही, कलाकारों को बुला कर उनका सम्मान भी हुआ। जब देश की राजनीति में जातिप्रथा को पुनर्जीवित कर हिन्दू समाज को छिन्न भिन्न करने के महती प्रयास चल रहे हो, तभी मँथन को दशकों से बन्द पड़े डिब्बों से निकालना महज संयोग नहीं लगता।
भारत की हो रही तीव्र प्रगति से अप्रसन्न कुछ तत्वों को इस प्रगति की गति सुस्त करने के लिए सम्भवतः सामाजिक अस्थिरता ही एकमात्र प्रभावी बाधा नजर आ रही है। मँथन को अंतराष्ट्रीय दर्शकों तक एक बार पुनः ले जाने के पीछे सम्भवतः भारत की नकारात्मक छवि को बढ़ाने को मंशा रही हो। इस फिल्म के माध्यम से पश्चिम के लोगों को यह बताना कि भारत की असलियत अब भी वहीं है – गरीबी, खटारा वाहन, प्राचीन रेल और हां जाति प्रथा! क्योंकि प्रचार के विपरीत मँथन अमूल की भव्य सफलता दिखने वाली फिल्म न होकर जाति प्रथा को भारत की मुख्यधारा बताने वाली फिल्म है। इस फिल्म को देखने के बाद श्याम बेनेगल की मंशा पर तो सन्देह होता ही है, उनकी काबिलियत पर भी प्रश्न खड़े होते हैं। किसी भी दृष्टि से मँथन एक मंजे हुए प्रतिभाशाली निर्देशक की प्रस्तुति नजर नहीं आती है।

श्री जनार्दन पेंढ़ारकर

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