स्वधर्म और स्वराज के लिए 1857 में हुए देशव्यापी स्वतंत्रता संग्राम के बाद स्वतंत्र
भारतीय गणतंत्र की स्थापना के लिए वासुदेव बलवंत फड़के द्वारा की गई सशस्त्र बगावत ने
भारतीयों को अंग्रेजी शासकों के विरुद्ध हथियार उठाकर संघर्ष करने की ना केवल प्रेरणा ही
दी अपितु सशस्त्र क्रांति के तौर-तरीकों की स्पष्ट जानकारी भी दी। सेनापति फड़के ने
महाराष्ट्र को केंद्र बनाकर जिस संघर्ष को प्रारंभ किया उसका युद्ध क्षेत्र अब पंजाब बना और
इस क्रांति के सेनापति थे सतगुरु रामसिंह कूका।
इस आध्यात्मिक योद्धा ने कूका सम्प्रदाय की स्थापना की और बाद में इसी मार्ग के
अनुयायियों को हथियारबंद सैनिकों के रूप में तैयार करके ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ईंट से ईंट
बजाने की योजना बनाई। जिस धरती पर दशमेश पिता श्री गुरु गोविन्द सिंह ने मुस्लिम
दहशतगर्दी के साथ भिड़ने के लिए खालसा पंथ की स्थापना करके तलवार उठाई थी, उसी
धरती पर सतगुरु श्री रामसिंह ने अंग्रेजों की हुकूमत को उखाड़ने के लिए ‘नामधारी कूका
सिंह’ तैयार करके इन्हें सशस्त्र सैनिकों के रूप में खड़ा कर दिया।
सतगुरु रामसिंह पंजाब में लुधियाना जिले के एक भैणी नामक गाँव के लम्बे-चौड़े
बलिष्ठ नवयुवक थे। अतः युवावस्था में ही महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भरती हो
गए। इस युवा रामसिंह की परमात्म साधना में गहरी दिलचस्पी एवं विश्वास था। अंग्रेजों
द्वारा सभी रियासतों को अपने साम्राज्य का अंग बना लेने के बाद युवा रामसिंह के लिए
अंग्रेजों की सेना में रहना कठिन हो गया। वो सरकारी चाकरी छोड़कर अपने गाँव भैणी आ
गए। अब उनका सारा ध्यान प्रभु-भक्ति में ही लगने लगा। चारों ओर उनके आध्यात्मिक
तेज का प्रचार-प्रसार होने लगा। परमात्मा की भक्ति और समाज की सेवा इन्हीं दो प्रमुख
कार्यों को संपन्न करने के लिए युवा रामसिंह ने नामधारी संप्रदाय की स्थापना की।
इन्हीं दिनों एक मराठा संत रामदास भारतीय युवकों में देशभक्ति के संस्कार भरते
हुए पंजाब में पहुंचे। उन्होंने भैणी गाँव में आकर सतगुरु रामसिंह से भेंट की और कहा –
“देश गुलाम है। यह समय भजन-कीर्तन का नहीं है। सशस्त्र क्रांति का रास्ता अपना कर
भारतीयों को स्वतंत्र करवाने की साधना करें”। सतगुरु रामसिंह इस संत की बातों से प्रभावित
होकर अपना मार्ग बदलने के लिए तैयार हो गए। अब उनके प्रवचनों में स्वधर्म-स्वराज्य एवं
स्वतंत्रता जैसे विचारों ने अपनी जगह बना ली।
सतगुरु रामसिंह के शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। स्वतंत्रता, स्वधर्म एवं स्वराज्य की
ज्वाला नामधारी समाज, विशेषकर युवकों में प्रज्वलित होने लगी। अब इन युवकों से अंग्रेज
सरकार से असहयोग की प्रतिज्ञा करवाई जाने लगी। आगे चलकर स्वतंत्रता की लड़ाई में भी
सरकार से असहयोग करने का मार्ग अपनाया गया। इस प्रतिज्ञा एवं आदेश का असर दिखाई
देने लगा।
नामधारियों ने सरकारी वस्तुओं का पूर्ण बहिष्कार कर दिया। अदालतों में जाना बंद
करने के साथ सरकारी स्कूलों के खिलाफ भी अभियान तेज हो गया। धीरे-धीरे पंजाब के एक
बड़े हिस्से में नामधारी सम्प्रदाय का प्रभाव इतना बढ़ गया कि उन्होंने एक प्रकार की स्वतंत्र
व्यवस्था बना ली। सारे पंजाब को 22 विभागों में बाँट दिया गया। सतगुरु रामसिंह ने
संप्रदाय की सारी गतिवधियों का संचालन करने के लिए विभागीय अध्यक्षों की नियुक्तियां
भी कर दीं।
इन गतिविधयों से पंजाब की सरकार सकते में आ गई। संप्रदाय की अधिकतम
गतिविधयों पर कानूनी रोक लगा दी गई। सतगुरु रामसिंह के आदेश से प्रकट गतिविधियों
को बंद करके भूमिगत कार्यक्रम प्रारम्भ हो गए। इस नई नीति के फलस्वरूप भीतर ही भीतर
क्रांति की अलख तेज होती गयी। योजनानुसार सेना में भी विद्रोह की आग सुलगाने का
प्रयास किया जाने लगा। बगावत के लिए बाकायदा समय, स्थान और ढंग का भी निश्चय
कर लिया गया।
इधर नामधारियों की छिप-छिपाकर काम करने की नई रीति के कारण सरकार ने
समझा की सतगुरु रामसिंह के नामधारी सम्प्रदाय की समाप्ति हो गयी है। सरकार ने सभी
प्रतिबंध हटा लिए। अब तो इन सेनानियों की गतिविधियाँ कहीं ज्यादा तेज गति से चलने
लगीं। सतगुरु रामसिंह को ईश्वर का अवतार मान लोग इनकी शिक्षाओं का पालन करने
लगे। देश को अंग्रेजों के शिकंजे से छुडाने के लिए पंजाब के युवा किसी भी तरह के बलिदान
को तैयार हो गए।
इन्हीं दिनों की एक मार्मिक घटना है। कुछ नामधारी युवक अमृतसर की ओर जा रहे
थे। इसी समय गऊ के हत्यारे बूचड़ लोगों को इन्होने देख लिया। नामधारी युवकों ने उन पर
हमला करके उन्हें उसी वक्त मौत के घाट उतार दिया। सरकार की पुलिस इन कूका सिंहों
को खोजने में विफल हो गयी। अब पुलिस ने बेक़सूर और निहथ्थे लोगों को पकड़कर
प्रताड़ित करना शुरू किया। सतगुरु रामसिंह ने बूचड़ों को मारने वाले अपने शिष्यों को पुलिस
थाने में पेश होने का आदेश दिया। नामधारी युवकों ने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए
आत्मसमर्पण कर दिया।
इसी तरह भैणी साहब में संपन्न हो रहे माघी (लोहड़ी) के मेले में नामधारी कूके
सैकड़ों की संख्या में जा रहे थे। एक युवा कूका को अकेले जाता देखकर कुछ गोहत्यारे यवनों
ने उसे बुरी तरह पीट कर अधमरा कर दिया। उसके सामने एक गउ को काटकर उसके रक्त
को कूका सैनिक युवक के मुंह में डाला गया। इस हिन्दू विरोधी कुकृत्य के बाद यवन भाग
गए।
खून से लथपथ यह कूका सिंह गुरु के दरबार भैणी साहब पहुंचा। उसकी दयनीय
हालत देखकर दरबार में उपस्थित सभी नामधारी भक्तों का खून खौल उठा। सभी ने एक
स्वर में शोर मचाया कि अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विप्लव का यही समय है। क्रांति की जो
योजना इतने वर्षों से बन रही है उसे तुरंत प्रारंभ किया जाए। युवकों के जोश की प्रशंसा
करते हुए गुरु रामसिंह ने समझाया कि अभी से हथियारबंद क्रांति शुरू कर देना बहुत
जल्दबाजी होगी। अपरिपक्व अवस्था में किया गया कोई भी कार्य अपने संप्रदाय और देश के
लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
अधिकांश नामधारी शिष्यों ने गुरु की आज्ञा का पालन किया। परन्तु कुछ जोशीले
युवकों ने अभी से कुछ कर मरने का ऐलान कर दिया। संख्या में 150 से ज्यादा कूके-युवकों
ने गुरु के आदेश को ठुकरा कर यवनों पर सीधा हमला करने के उद्देश्य से गुरु-दरबार को
छोड़ दिया। इन्होने मलोध नामक किले पर हमला करके यवन सिपाहियों को मार डाला।
किले में गुरु रामसिंह के शिष्य सिपाही भी थे, उन्होंने भी आक्रमणकारी कूकाओं का साथ
दिया। मलोध के किले को फतह करने के बाद इन कूका सैनिकों ने मलेर कोटला की सैन्य
छावनी पर हमला बोल दिया।
आक्रमणकारी कूकाओं ने छावनी के शस्त्रागार तथा खजाने पर कब्ज़ा जमा लिया।
इस प्रकार यह खूनी संघर्ष तीन-चार दिनों तक चलता रहा। पंजाब की अंग्रेज सरकार ने
लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर सर केविन को सेना की टुकड़ी के साथ इस सशस्त्र विद्रोह को
दबाने तथा हमलावरों को पकड़ने के लिए भेजा। परिणामस्वरूप अनेक कूका युवक मारे गए
और 68 को गिरफ्तार कर लिया गया। पकड़े जाने के बाद इन स्वतंत्रता सेनानियों ने सतगुरु
रामसिंह की जय के उद्घोषों से अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बना दिया।
सैनिक न्यायालय ने फैसला दिया “इन 68 कूकाओं को तोप के गोलों से उड़ा दिया
जाए।” दूसरे ही दिन मलेर कोटला के एक खुले मैदान में इस गैर इंसानी और नृशंस कुकृत्य
को भरी जनता के सामने अंजाम दिया गया। पांच-पांच नामधारियों को तोप के मुंह पर
बांधकर तोप का बटन दबा दिया जाता। चारों ओर तोप का काला धुंआ और कूकाओं के
शरीर के टुकड़े, मांस, हड्डियाँ आकाश में उछलकर जमीन पर गिर जाते। इसी तरह कुछ ही
पलों में 67 युवाओं को वीभत्स मौत के घाट उतार दिया गया। मरने से पहले यह युवक
अपने गुरु के जयकारे लगाते रहे।
अंत में बच गया एक तेरह साल का बाल नामधारी। छोटा होने की वजह से इसे तोप
पर बांधना कठिन था। यह बच्चा भी अब बेरहमी से मार दिया जाता। इसके नन्हे कोमल
शरीर के चिथड़े भी आकाश में उड़ जाएंगे। इस सारे भयंकर और डरावने दृश्य की कल्पना
करके जनता में बैठी केविन की पत्नी को दया आ गई। उसने इस बच्चे को छोड़ देने की
प्रार्थना अपने पति से की।
अत्याचारी पुलिस अफसर केविन ने अपनी पत्नी की बात मानकर उसने बालक से
कहा – “यदि तुम उस डाकू बदमाश रामसिंह का साथ छोड़ दो तो हम तुम्हें जीवन दान दे
सकते हैं।” अपने गुरु को कहे गए इस तरह के अपमानजनक गंदे शब्दों को सुन कर वह
बालक आपे से बाहर आ गया। उसने जोर से अपने को पुलिस के बंधन से छुड़ाया और
केविन के कंधे पर जा चढ़ा। बालक ने उस दानव केविन के लम्बी दाढ़ी कस कर पकड़ ली।
यह पकड़ इतनी तगड़ी थी कि अंग्रेज फौजियों को बालक के हाथ काटने पड़े। कूका बालक
जमीन पर गिर गया। तलवारों के कई वारों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए।
उधर 26 कूकाओं को मलोध की फ़ौजी छावनी में फांसी दे दी गई। अंग्रेजों की
सरकार और पुलिस को यही समझ में नहीं आया कि एक व्यक्ति (गुरु) के शिष्य क्यों इतने
बलिदान देने के लिए तत्पर हो जाते हैं। वास्तव में सतगुरु की आध्यात्मिक शक्ति, उनकी
मानवीय शिक्षाओं और उनके परतंत्रता विरोधी उपदेशों के कारण उत्तर भारत की धरती पर
देशभक्ति की जो ज्वाला फूटी थी, उसी के फलस्वरूप नामधारी युवकों ने स्वतंत्रता सेनानी
बनने की ठान ली थी।
अतः सरकारी अफसरों ने जड़-मूल पर ही प्रहार करने का फैसला किया। प्रशासन को
समझ में आ गया कि सारे फसाद की जड़ रामसिंह कूका ही है। इस जड़ को उखाड़ फैंकने से
सारा नामधारी वृक्ष स्वतः ही गिर जाएगा। सरकारी अफसरों ने सतगुरु को किसी भी अपराध
में गिरफ्तार करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। जब कोई भी बहाना ना मिला तो
रेगुलेशन एक्ट 1818 के आधीन कूकाओं के गुरु को बंदी बना लिया। इतना ही नहीं उन्हें
योजनाबद्ध ढंग से बर्मा की कुख्यात जेल में भेजकर एकांत में घुट-घुट कर मरने के लिए
बाध्य कर दिया।
अपनी मातृभूमि और कर्मभूमि से कोसों दूर पूर्णतया निर्वासित व असहाय अवस्था में
इस सशस्त्र क्रांति के सेनापति ने प्राण त्याग दिए। जीवन भर जिस मिशन के लिए जुटे रहे
उसे अपनी आँखों से पूरा होते हुए भी ना देख सके सतगुरु महाराज। शेष शिष्यों को सरकार
ने बहुत ही निर्दयता के साथ अमानवीय दंड दिए। गोली से उड़ा देने, जेल में बंद करने तथा
देश निकाला जैसे जघन्य हथकंडे अपनाकर नामधारियों को तितर बितर करने का सफल
षड्यंत्र रचा गया। सरकारी दमनचक्र के तेज होने से संप्रदाय की गतिविधियाँ लगभग समाप्त
हो गईं। भारत को स्वतंत्र करवाने की सशस्त्र योजना कुछ कूकाओं की अनुशासनहीनता का
शिकार हो कर तार-तार होकर बिखर गई।
यहाँ फिर इतिहास ने स्वयं को दुहराया। सर्वविदित है कि 1857 में हुए महासंग्राम में
भी कुछ अति उत्साहित सैनिकों द्वारा की गई अनुशासनहीनता एवं उतावलेपन के कारण
सरकार सतर्क हो गई। परिणाम स्वरूप असंख्य बलिदानों के बावजूद भी उस महासंग्राम के
सेनापतियों को पराजय का दंश झेलना पड़ा। कूकाओं द्वारा छेड़ा गया स्वतंत्रता संग्राम भी
कुछ मुठ्ठीभर युवकों द्वारा निश्चित तिथि के पहले ही युद्ध का बिगुल बजा देने से अंग्रेजों
को इस जंग को कुचल डालने का ढंग मिल गया।
तो भी कूका स्वतंत्रता सेनानियों के असाधारण बलिदानों से पंजाब समेत समस्त उत्तर
भारत में राष्ट्रभाव का जो जागरण हुआ, उसने भविष्य में होने वाले संघर्ष की एक सशस्त्र
भूमिका अवश्य तैयार कर दी। किसी भी क्रांति के विफल हो जाने से कुछ देर तक
क्रांतिकारियों के कदम रुक जाते हैं, परन्तु क्रांति के उद्देश्य में रत्तीभर भी कमी नहीं आती।
थोड़ी देर के लिए जमी राख के नीचे जल रहे ज्वालामुखी फिर फूटते हैं और नई क्रांति का
श्रीगणेश हो जाता है।
जिस तरह 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की दबी हुए चिंगारियां वासुदेव बलवंत फड़के
की क्रांति योजना के रूप में शोले बनकर उभरीं और वासुदेव के किसान – मजदूर आन्दोलन
के बाद क्रांति की मशाल फिर पंजाब में कूका आन्दोलन के रूप में जल उठी, उसी प्रकार इस
संग्राम के पश्चात् भी देश के कई हिस्सों में क्रांतिकारियों ने शस्त्र उठाकर अंग्रेजी साम्राज्य
की दीवारों को कम्पायमान कर दिया …………………जारी
साभार- नरेन्द्र सहगल (लेखक – पत्रकार)