सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद देश में एक राजनीतिक लहर चली जिसमें अंग्रेजों से प्रार्थना,
याचना तथा मांगने की प्रथा का माहौल बनने लगा। एक अंग्रेज ए. ओ. ह्यूम ने वास्तव में इसी उद्देश्य के लिए कांग्रेस
की स्थापना की थी। दूसरी और लोकमान्य तिलक जैसे प्रखर राष्ट्रवादी नेताओं के मार्गदर्शन में ऐसे तरुण तैयार होने
लगे जिन्होंने सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग अपनाकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सुदृढ़ इमारत की बुनियाद हिलाकर रख दी।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही विदेशों में अध्ययन कर रहे सेनापति बापट जैसे कई क्रांतिकारी युवकों ने भारत में
आकर बमों के धमाकों से अंग्रेज शासकों को समाप्त करने की योजना बनाई। इन सभी युवकों ने शक्तिशाली बम बनाने
के तौर तरीके फ़्रांस इत्यादि देशों में अध्ययन के समय सीखे थे। क्रांतिकारी अरविन्द घोष द्वारा स्थापित अनुशीलन
समिति में कन्हाई लाल दत्त के नेतृत्व में इस बम मार्ग का जिम्मा संभाला। बंगाल में गवर्नर की गाड़ी पर बम फैंका
गया। एक रेलवे स्टेशन को भी उड़ाने के लिए इसी तरह का प्रयोग किया गया। बमों के परीक्षण के लिए ऐसे कई
सफल और विफल प्रयास किये गए।
इन्ही दिनों एक अत्यंत कठोर और राक्षसी वृत्ति का मैजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड बंगाल में नियुक्त था। इसने अनेकों देशभक्तों
को मौत की सजा सुनाई थी। अनुशीलन समिति के क्रांतिकारियों ने इस किंग्सफोर्ड को समाप्त करने का निश्चय किया।
इस दुष्ट को इस योजना का पता चल गया। आने वाले जानलेवा संकट से बचाने के लिए सरकार ने इसकी नियुक्ति
बिहार के मुजफ्फरपुर नगर में जिला जज के रूप में कर दी।
क्रांतिकारियों ने एक बड़ी पुस्तक में बम छिपाकर पार्सल बनाकर किंग्सफोर्ड के पास भेजा। उसका माथा ठनका।
उसने पार्सल लिया ही नहीं। यदि उसने पार्सल लेकर उसको खोला होता तो बम के विस्फोट से उसके चीथड़े उड़ गए
होते। तो भी देशभक्त युवकों ने हिम्मत नहीं हारी। उन्हें अरविन्द घोष जैसे मंझे हुए नेताओं का आशीर्वाद प्राप्त था।
इस समय बंगाल में सक्रिय क्रांतिकारी पूरे देश में अपना प्रभाव रखे थे
अतः अनुशीलन समिति ने बहुत विचार मंथन के बाद दो नवयुवकों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को किंग्सफोर्ड
की हत्या करने का जिम्मा सौंपा। बम पिस्टल से लैस होकर दोनों नवयुवक मुजफ्फरपुर नगर आ कर एक धर्मशाला में
ठहर गए। आठ-दस दिन तक पूरी चौकसी करने के पश्चात् इन्होने किंग्स्फोर्ड के आने-जाने का समय, इसकी गाड़ी का
रंग और प्रातः – सायं उठने बैठने के स्थान की जानकारी प्राप्त कर ली। बम फैंकने का स्थान, समय और तरीका सब
कुछ तय हो गया। दोनों नवयुवक बड़े उत्साह में थे।
मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड रोज सायं एक निकटवर्ती क्लब में खाने-पीने की अय्याशी मारने जाता था। खुदीराम और चाकी
ने इसी मुहूर्त में किंग्सफोर्ड को नरकलोक में भेजने का निश्चय कर लिया। 30 अप्रैल 1908 की सायं खुदीराम तथा
प्रफुल्ल चाकी अपने शिकार की प्रतीक्षा में क्लब की निकटवर्ती झाड़ियों में छिप गए। जैसे ही निश्चित रंग वाली गाड़ी
उधर से निकली खुदीराम ने उस पर बम मार दिया। गाड़ी चकनाचूर हो गई। दुर्भाग्य से वह गाड़ी किंग्सफोर्ड की ना
होकर एक अंग्रेज की थी। उसमें सवार एक महिला और उसकी बेटी मारी गई। दरअसल इस गाड़ी का रंग भी
किंग्सफोर्ड की गाड़ी के रंग जैसा था। वैसे भी किंग्सफोर्ड की सुरक्षा में सिपाहियों की पूरी टीम लगी हुई थी।
क्रांतिकारियों द्वारा बम प्रयोग की इस घटना का शोर चारों और मच गया।
इस निर्धारित काम को करने के बाद खुदीराम बोस घटनास्थल से भागने में सफल हो गया। मात्र 17 वर्ष का यह बाल
स्वतंत्रता सेनानी रातभर भागता हुआ लगभग 30 मील के फासले पर एक बैनी नामक नगर में पहुँच गया। भूखा-
प्यासा यह नवयुवक चाय की एक छोटी सी दुकान पर पहुँच गया। भूख को शांत करने के लिए लाए चने खाने लगा।
खुदीराम अपने उद्देश्य पर सफल होने का गौरव महसूस कर रहा था। आज उसने अपनी क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन
समिति के आदेश का पालन करके एक दैत्य को मार डाला था। परन्तु थोड़ी ही देर में उसका यह संतोष और आनंद
अत्यंत निराशा में बदल गया।
चाय की दुकान पर चर्चा चल रही थी कि कल रात मुजफ्फरपुर में दो अंग्रेज माँ-बेटी मारी गईं। किंग्सफोर्ड के बच
जाने की खबर से खुदीराम विचलित हो गया। वो इतना दुखी हो गया कि गुस्से में आकर चीख उठा “किंग्सफोर्ड कैसे
बच गया” उसके चेहरे के आव भाव से दुकान पर बैठे लोगों को शक हो गया कि कहीं कल रात को बम फैंकने वाला
यही तो नहीं। यह लोग खुदीराम को पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़े। वाह रे देशवासियों देश के लिए अपना जीवन
तक कुर्बान करने वाले इस बालक को दबोच कर पुलिस के हवाले करते हुए जरा भी शर्म नहीं आई?
खुदीराम के पास जेब में एक भरी हुई पिस्तौल थी। वह चाहता तो पीछा कर रहे लोगों और सिपाहियों पर गोली
दाग सकता था। परन्तु उसने अपने ही देशवासियों को मारना उचित नहीं समझा। क्योंकि उसकी गोलियां, पिस्टल
और बम तो भारतीयों पर अत्याचारों की आंधियां चलाने वाले अंग्रेज राक्षसों के लिए थे। थका-मांदा, भूखा-प्यासा
यह बाल स्वतंत्रता सेनानी सिपाहियों द्वारा दबोच लिया गया। न्यायलय द्वारा खुदीराम को मौत की सजा सुनाई
गई। 11 अगस्त 1908 को इस नन्हे स्वतंत्रता सेनानी को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया। फांसी के तख्ते पर
जाने से पहले उसने गीता के कुछ श्लोकों का उच्चारण किया और स्वयं अपने हाथों से फांसी की रस्सी को अपने गले में
डालकर अमर शहीद हो गया।
सरकार ने जिसे कातिल कहकर मौत की सजा दी थी, जनता ने उसे शहीद का सम्मान देकर उसका दाह संस्कार
किया। हजारों नर-नारियों ने इस शहीद की शवयात्रा में शामिल होकर पुष्प वर्षा की। उल्लेखनीय है कि खुदीराम के
अंतिम संस्कार का प्रबंध कलकत्ता निवासी एक वकील कालीदास ने किया था। इसी वकील ने खुदीराम की पैरवी भी
की थी। परन्तु वह उसे बचा नहीं सका। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद खुदीराम का स्मारक बनाया गया। अधिकांश बड़े-बड़े
नेताओं ने इस स्मारक पर पहुंचकर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाए परन्तु पंडित जवाहर लाल नेहरु नहीं आए क्योंकि उनकी
देशभक्ति तो हाथ में कटोरा लेकर अंग्रेजों से भीख मांगने तक ही सीमित थी।
सशस्त्र क्रांति के प्रबल समर्थक लोकमान्य तिलक ने अपने पत्र केसरी में एक लेख लिखा – “यह हत्याएं दूसरी आम
हत्याओं जैसी नहीं हैं —- क्योंकि इन हत्याओं को करने वालों ने अत्यंत उच्च भावनाओं के वशीभूत होकर यह की हैं —
जब तक एक-एक अंग्रेज अफसर को चुन-चुन कर डराया ना गया, तब तक यह निरंकुश विदेशी व्यवस्था बदली नहीं
जा सकती।” उल्लेखनीय है कि इस प्रकार के अंग्रेज विरोधी निर्भीक लेख लिखने के कारण लोकमान्य बाल गंगाधर
तिलक को 6 वर्ष का कठोर कारावास भुगतना पड़ा था। इसी समय में उन्होंने अपनी प्रसिद्द पुस्तक ‘गीता रहस्य
लिखी थी।
उधर खुदीराम बोस का दूसरा साथी प्रफुल्ल चाकी भागकर निकटवर्ती रेलवे स्टेशन समस्तीपुर पहुंचा और कलकत्ता
जाने के लिए गाड़ी के एक साधारण डिब्बे में बैठ गया। उसी डिब्बे में एक पुलिस अफसर नन्द लाल भी बैठा था।
उसने प्रफुल्ल चाकी को पहचान लिया। वह स्टेशन पर उतरा और अन्य पुलिस जवानों के सहयोग से चाकी को
पकड़ने की कोशिश की। चाकी ने तुरंत अपनी जेब से पिस्तौल निकाली और उस पुलिस अफसर पर गोलियां दाग दीं।
चाकी अब गिरफ्तार होकर जेल और न्यायालय के बंधन में नहीं बंधना चाहता था। उसने अपनी ही पिस्तौल से अपने
माथे पर गोलियां दागी और स्वयं मृत्यु देवी की गोद में चला गया। अपने को हथकड़ियों में ना बंधवाकर स्वयं ही
अपने जीवन को समाप्त करने की यह पहली घटना थी। इसके बाद क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने भी इलाहाबाद के
अल्फ्रेड पार्क में कई पुलिसवालों को मौत के घाट उतारने के बाद अपनी ही पिस्तौल से अपनी शहादत दे दी थी।
खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा मुजफ्फरपुर में किये गए बम धमाकों ने अंग्रेजों के सिंहासन को हिलाकर रख
दिया था। विदेशी शासकों को समझ में आ गया कि भारत में सशस्त्र क्रांति की आग तेज होती जा रही है।
इसी बीच क्रांतिकारियों ने अपना गुप्त अड्डा एक सिविल सर्जन डॉ. घोष की कोठी के बगीचे में बना लिया। अब सारी
क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन यहीं से होने लगा। पुलिस की रात-दिन चौकसी के कारण बम बनाने का यह
अड्डा पकड़ा गया। इस जगह काम करने वाले 40 क्रांतिकारी देशभक्तों को पकड़ कर जेल की सींखचों में बंद कर दिया
गया। इनमें अरविन्द घोष, नलिनी, वीरेंद्र घोष और कन्हाई लाल दत्त जैसे अति सक्रिय क्रांतिकारी भी शामिल थे।
अलीपुर जेल में बंद होने के कारण इस अभियोग का नाम ही ‘अलीपुर षड्यंत्र’ पड़ गया।
इस कथित षड्यंत्र का अभियोग चल ही रहा था कि क्रांतिकारियों का एक साथी नरेन्द्र गोस्वामी पुलिस का मुखबिर
बनकर शेष साथियों के सभी राज खोलने लग गया। मुखबिर नरेन्द्र गोस्वामी को अब शेष कैदियों से अलग ‘सुरक्षित
स्थान’ पर रखा जाने लगा। इस गद्दार की वजह से क्रांतिकारियों के सारे प्रयासों पर पानी फिरने के डर से
क्रांतिकारियों ने जेल के अन्दर ही नरेन्द्र गोस्वामी के शरीर को मिट्टी के ढेर में बदलने का निश्चय किया।
अपने ही एक साथी द्वारा किया गया विश्वासघात क्रांतिकारी कन्हाई लाल दत्त से बर्दाश्त नहीं हो सका। स्वतंत्रता
सेनानियों के साथ हो रहे इस जघन्य व्यवहार/अपराध का एकमात्र दंड मौत ही था। अलीगढ़ षड्यंत्र से सम्बंधित
सभी साथियों ने सर्वसम्मत निर्णय करके इस शुभ कार्य को संपन्न करने की जिम्मेदारी कन्हाई लाल दत्त को सौंप दी।
न्यायालय में बयान देने से पहले ही मुखबिर नरेन्द्र गोस्वामी को समाप्त करना जरूरी था।
योजनानुसार कन्हाईलाल और साथी सत्येन्द्र ने जेल के दो पहरेदारों से दोस्ती करके बाहर से दो पिस्तौल मंगवा
लिए। यह दोनों पिस्तौल कैदियों के लिए आने वाली सब्जी के टोकरों में छिपाकर लाए गए। इस घटना से इतना तो
समझ में आ ही जाता है कि जेल में बंद क्रांतिकारियों के हाथ कितने लम्बे थे। एक दिन बीमारी का बहाना बनाकर
कन्हाई और सत्येन्द्र दोनों जेल के अस्पताल पहुँच गए। इन्होने जेल के अधिकारियों के पास सन्देश भेजा कि हम भी
सरकारी मुखबिर बनना चाहते हैं। इन्होने मुखबिर गोस्वामी के साथ मिलकर क्रांतिकारियों के खिलाफ संयुक्त वक्तव्य
देने की पेशकश कर दी। जेल और पुलिस के अफसर इनके झांसे में आ गए। इन्हें नरेन्द्र गोस्वामी से मिलने की
व्यवस्था कर दी गई।
तीनों ने संयुक्त वक्तव्य तैयार करने के लिए जेल अधिकारियों की देखरेख में मिलना शुरू कर दिया। एक दिन मौका
देखकर सत्येन्द्र ने गद्दार नरेन्द्र पर गोली चला दी। भागते हुए इस देशद्रोही पर कन्हाई लाल ने भी गोलियां दाग दीं।
इन्हें पकड़ने का प्रयास करने वाला एक दरोगा को भी कन्हाई ने शांत कर दिया। भागते हुए गोस्वामी को अब सत्येन्द्र
और कन्हाई दोनों की गोलियों से मौत का आलिंगन करना पड़ा। उसकी लाश पर ठोकर मार कर कन्हाई और सत्येन्द्र
ने अपने क्रोध को शांत किया। वे प्रसन्न थे कि उन्होंने निरंकुश साम्राज्यवाद के एक एजेंट और भारत के एक दुश्मन को
मौत की सजा दे दी थी वह भी जेल के अन्दर।
इस तरह देशभक्तों की एतिहासिक परम्परा को आगे बढाकर कन्हाई लाल और सत्येन्द्र दोनों ही प्रसन्नता एवं साहस
के साथ फांसी का इन्तजार करने लगे। अपनी इस वीरता पर यह दोनों क्रन्तिकारी इतने प्रसन्न हुए कि नरेन्द्र
गोस्वामी की हत्या और फांसी की तिथि के कालखंड में इन दोनों का भार 18 – 20 पौंड बढ़ गया। निरंकुश शासकों
द्वारा 10 नवम्बर 1908 को कन्हाई लाल दत्त को फांसी के तख्ते पर चढ़ा कर उसकी जीवन लीला को समाप्त कर
दिया गया।
कन्हाई की माता जब उससे मिलने आई तो इस वीरव्रती क्रांतिकारी ने कहा – “यदि माँ मुझसे मिलते समय आंसू ना
बहाए, तभी मिलूंगा।” और ऐसा ही हुआ। माँ ने किसी प्रकार अपने आंसू रोककर वतन पर शहीद होने जा रहे बेटे को
मौन आशीर्वाद दे दिया। उधर कन्हाई के बड़े भाई ने मिलते समय उसको जानकारी दी – “तुम्हारा बी.ए. का
परिणाम आज ही आया है, तुम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए हो-” कन्हाई ने फिर वीरतापूर्वक उत्तर दिया – ‘मेरी
डिग्री को भी फांसी पर लटका देना। ठीक मेरी तरह वह भी तो देशभक्ति के ईनाम (मौत की सजा) की
हकदार है।
कन्हाई का शरीर शांत हो जाने के बाद उसकी शवयात्रा में हजारों नर-नारियों ने शामिल होकर अपने इस लाडले
शहीद को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। यह शवयात्रा बंगाल समेत पूरे देश के इतिहास में अविस्मर्णीय पृष्ठों में
अंकित रहेगी। इस क्रन्तिकारी शहीद का इतना सम्मान देखकर सरकार घबरा गई। इसलिए कन्हाई के दूसरे साथी
सत्येन्द्र को फांसी के बाद उसके शव को चुपचाप जेल के अहाते में ही जला दिया गया।
गद्दार मुखबिरों और देशद्रोहियों को मौत के घाट उतारना देशभक्त क्रांतिकारियों ने अपना धर्म बना लिया। खुदीराम
बोस, कन्हाई, सत्येन्द्र और प्रफुल्ल चाकी को फंसाने – पकड़वाने और इनके विरुद्ध गवाही देने वाले सभी गद्दारों को
क्रांतिकारियों ने कोर्ट के प्रांगण में ही गोलियों से भून डाला। इस तरह क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ इस सशस्त्र
स्वतंत्रता संग्राम को अपने खून का अर्ध्य देकर आगे बढ़ाते रहे। इन शहीदों की अमर गाथा के बिना ब्रिटिश
साम्राज्यवाद को उखाड़ने के लिए लड़ी गई जंग का इतिहास पूर्णतया अधूरा ही रहेगा। ……….…….. जारी
साभार- नरेन्द्र सहगल(लेखक – पत्रकार)