अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता॥
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को पुष्य नक्षत्र में भूमि से प्रकट हुई थी माता सीता। धार्मिक ग्रंथों में इस दिन को सीता नवमी और जानकी जयंती भी कहा गया है।
हमारे धार्मिक ग्रन्थ इस बात के साक्षी है कि जब-जब मानव समाज का कल्याण करने के लिये ईश्वर का अवतरण हुआ है तब – तब उन का साथ देने के लिये उनकी पार्षद,शक्ति भी अवतरित हुई है।नारी,शक्ति का रूप भी है और भक्ति का भी जहां नारी उपस्थित रहती है वहां शक्ति की उपस्थिति भी स्वाभाविक है।पौराणिक ग्रंथों में श्रीराम को ब्रहम का स्वरूप बताया गया है तो सीताजी को शक्ति का,ब्रहम और शक्ति का सम्मिलन ही संपूर्ण सृष्टि है।
एक बार देवताओं और प्रजापति के मध्य एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार विमर्श चला कि,शक्ति का शाश्वत स्रोत क्या है? कैसे ज्ञात किया जाए? तब प्रजापति जी ने एक सुझाव दिया और समस्त देवी,देवताओं के नाम लिख कर उन्ही के नाम से भाग दिया गया,सभी में शेष कुछ नही बच रहा था परंतु भगवती सीता के नाम में सीता से भाग देने पर भागफल भी सीता और शेष भी सीता ही रहा, बस उसी क्षण भगवती सीता को शाश्वत शक्ति का आधार मान लिया गया।(सीता उपनिषद में वर्णित प्रसंग)
स्त्री को शक्ति का आधार मान लेना इतना सरल नहीं है जगत को उसका प्रमाण चाहिए। तर्क किए जाते हैं कि जब सीताजी स्वयं शक्ति स्वरूपा थीं तो रावण का संहार क्यों नहीं किया??तो उनके इस तर्क का उत्तर यह है कि कोई भी शक्ति अपने आपको एक माध्यम के द्वारा क्रियान्वित करती है क्योंकि वह निरपेक्ष होती है।क्या हमारे ऋषि मुनि शक्ति संपन्न,सामर्थ्यवान नहीं थे? फिर भी विश्वामित्र ने राक्षसों के संहार के लिए श्रीराम की सहायता ली,स्वयं श्रीराम ने महाबली हनुमान जी की सहायता ली।हम भी विद्युत को सीधे उपयोग में लेकर कार्य नहीं कर सकते उसके लिए भी फ्रिज,टीवी और अन्य किसी बिजली उपकरण के माध्यम की आवश्यकता होती है।सीताजी ने भी शिव धनुष को माध्यम बना,असुरों को सचेत कर दिया था कि अब तुम्हारा विनाश निकट है संभल जाओ,अपने पापकर्मों का त्याग कर प्रायश्चित कर लो।यहीं से भगवती सीता द्वारा रावण और अन्य असुरों के संहार की नींव रख दी जाती है।
(इस बारे में एक कथा यह भी है कि जब ससुराल आने पर सीताजी ने अपनी पहली रसोई में खीर बनाकर दशरथ जी को परोसी तब उसमें घास का एक छोटा सा तिनका गिर पड़ा जिसे सीताजी ने उसे अपनी दृष्टि के तेज से नष्ट कर दिया था। उनका यह प्रताप देख दशरथ जी ने उनसे प्रण लिया था कि वह क्रोध में कभी किसी की और दृष्टि नहीं उठाएंगी।सीताजी इसीलिए तिनके की ओट से रावण से संवाद करती थी, वरना तो उनकी दृष्टि ही पर्याप्त थी रावण संहार के लिए)
पुनः एक तर्क यह कि श्रीराम की महिमा का इतना बखान, सीताजी के महात्म्य में तो कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया?? तो शायद आपको ज्ञात न हो कि भगवती सीता पर भी एक उपनिषद है!
‘सीता उपनिषद’,,सीता उपनिषद मध्ययुगीन युग का संस्कृत पाठ और हिंदू धर्म का एक लघु उपनिषद है।यह अथर्ववेद से जुड़ा है,और वैष्णव उपनिषदों में से एक है, जिसमें सीताजी को ब्रह्मांड की अंतिम वास्तविकता (ब्राह्मण )अस्तित्व की भूमि ( आध्यात्मिकता ), और सभी अभिव्यक्तियों के पीछे भौतिक कारण के रूप में वर्णित किया गया है।यह उपनिषद सीताजी का परिचय मौलिक प्रकृति से करवाता है।इस उपनिषद के अनुसार सीताजी स्वयं परम सत्य,वाणी की अधिष्ठात्री वाग्देवी हैं,उन्हीं से समस्त वेद प्रवाहित हुए हैं।जैसे शिव,बिना शक्ति के शव हैं वैसे ही सीताजी भी श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाती हैं।
वनवास के दौरान दंडकारण्य में श्रीराम जब असुरों द्वारा मारे गए ऋषियों की अस्थियां देखते हैं तब आक्रोशित हो उठते हैं।वह धरती को निशिचर हीन करने का प्रण लेने ही वाले होते हैं तभी सीताजी उन्हे शांत करते हुए कहती हैं कि अत्याचारी और असुर दोनों समान हों यह आवश्यक नही।पृथ्वी को निशीचर हीन करने के प्रण में अहंकार अधिक और शक्ति कम दृष्टिगत हो रही है।सीता ही उन्हें नीति और संगठन की महत्ता बताकर उसके अनुरूप अत्याचारियों से युद्ध करने का परामर्श देती हैं।
वेदों में स्त्री को विजयनी कहा गया है और समाज/ परिवार में उनके द्वारा लिए गए निर्णय में सहयोग और प्रोत्साहन को उचित माना गया है।यह दृष्टिगोचर होता भी है जब सीताजी का श्रीराम संग वन गमन का निर्णय स्वयं श्रीराम भी बदल नहीं पाए थे।यही सीता तत्व है कि परिवार में स्त्री जब कोई निर्णय करती है तो पुरुष का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उसका उचित सम्मान करे।वन में श्रीराम संग सीताजी का एक – एक पग लंका की ओर काल की भांति बढ़ता हैं।मारीचि वध की प्रेरणा,लंका में रहकर लंकावासियों में रावण के प्रति असंतोष उत्पन कर श्रीराम की विजय सुनिश्चित करने वाली शक्ति स्वरूपा सीताजी ही तो थी। रामायण या मानस में श्रीराम अवश्य मुख्य पात्र रहे परंतु यथार्थ में केंद्रीय पात्र तो माता सीता ही थी।उनके बिना न राम होते,न रामायण।
तेज और आलोक से पूर्ण पतिव्रता माता सीता,वीरता और साहस की प्रतिमूर्ति थी। उनसे विकट योद्धा कोई नही था पर वह धरती पुत्री भूमिजा भी थीं, सहनशीलता उनका सबसे बड़ा अस्त्र था।वह महारानी होकर भी रसोई बनाती हैं,झाड़ू लगाती हैं।वह श्रम की प्रतिष्ठा तो करती ही है साथ ही स्त्री व पत्नी धर्म का पालन कर समस्त स्त्री जाति के लिए उनके कर्तव्य पालन की प्रेरणा भी बनती हैं। वह उर्वरता और कृषि की देवी भी हैं।सीता,भारतीय नारी-चेतना की चरमोत्कृष्ट अवधारणा है।नारी पात्रों में सीता ही सर्वाधिक, विनयशील, लज्जाशील,संयमशील,सहिष्णु और पतिव्रत की दीप्ति से दैदीप्यमान नारी हैं।समूचा रामकाव्य उसके तप,त्याग एवं बलिदान के मंगल कुंकुम से जगमगा उठता है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जनक और मिथिला की पहचान जानकी/मैथिली ही हैं और जानकी जी एक पुत्री हैं। जो लोग पुत्र मोह में ‘ खानदान का नाम कैसे आगे बढ़ेगा’ जैसे रूढ़िग्रस्त,जर्जर विचार को पकड़ कर बैठे हैं,पुत्रियों के साथ भेद करते हैं उन्हें सनातन धर्म का तृणबिंदु भी ज्ञात नहीं। समस्त विश्व भगवती का ही विस्तार है,जो हर रूप में,माँ पत्नी,पुत्री और सबसे बढकर प्रकृति/स्त्री के रूप में पूजनीय और सम्मानित हैं।
सियाराम मय सब जग जानी करहूँ प्रणाम जोरि जुग पानी
अदभुत है’सीताराम ‘ मंत्र की शक्ति!
रामायण में राम का अर्थ हमारी आत्मा, परमचेतना, सत्य और सदाचार से है।वहीं सीताजी का अर्थ,आद्य ऊर्जा या कुंडलिनी शक्ति से है।सीताजी कुंडलिनी शक्ति के रूप में पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाले मूलाधार या मूल चक्र में निवास करती हैं। सीताराम मंत्र सुषुम्ना नाड़ी में प्राण के प्रवाह को सक्रिय करता है,जिससे कुंडलिनी शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती है।सीताराम मंत्र के निरंतर जाप से उत्पन्न सूक्ष्म घर्षण से इड़ा और पिंगला नाड़ियों का परानुकंपी तंत्रिका तंत्र सक्रिय हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी कंपन करने लगती है।सीताराम मंत्र मस्तिष्क के दोनों किनारों को संतुलित करता है।
इस दिन पृथ्वी पूजा का विशेष महत्व है। अपनी श्रद्धा अनुसार अन्न,जल,वस्त्र का सामर्थ्यनुसार दान करें। मान्यता यह भी है कि इस दिन तीर्थ यात्रा और व्रत करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।जानकी जयंती व्रत से स्त्रियों को सुख और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने से महिलाओं में ममता, करुणा, दया और सहनशीलता के साथ-साथ सतीत्व व आत्मविश्वास की भी वृद्धि होती है।
।।जय सियाराम।।
– राजेश्वरी भट्ट बुरहानपुर ( म. प्र.)