युग प्रणेता
“मी सावित्रीबाई फुले”
18 वीं शताब्दी के आधुनिकता की ओर बढ़ते कदमों के ताल पर, नारी शक्ति को सही दिशा में प्रेरित करने वाली प्रथम महिला शिक्षिका मां सावित्रीबाई फुले परम वंदनीय है|
18वीं शताब्दी तक आते-आते रीढ़ विहीन, कराहते, हमारे भारत वर्ष में उस समय स्त्री की नि:शब्द व्यथा को वानी(सरस्वती) और वाणी देने का अद्मय साहसिक कार्य मां सावित्रीबाई फुले ने ही किया था | सावित्री बाई, उस समय गहरी तमस में एकमात्र स्वयंप्रभा सी शोषित वर्ग से उभरी किरण रही है, जिन्होंने स्त्री को नारकीय जीवन से उठाने का अथक व सरलतम् प्रयास किया था। बालिका शिक्षा की अलख, विधवा शिक्षा, विधवा आश्रम, स्त्री छात्रावास, मुंडन विरोध जैसी कुरीतियों आडंबरों का विरोध करने में अग्रणी सावित्रीबाई फुले और पति ज्योतिबा फुले ,दोनों को जर्जर होते भारतीय समाज के ढांचे को सुधारने के लिए जैसे ईश्वरी वरदान स्वरुप धरा पर अवतरित किया गया हो |
ऐसी फूले दंपति को कोटिश: नमन् है|
स्त्री शिक्षा प्राचीनतम परंपरा रही है ऋग्वेद काल से ही स्त्री शिक्षा में ऋरिष (स्त्री ऋषि) बनाने की परंपरा रही थी। हमें मैत्रैयी, गार्गी ,आपला, लोपामुद्रा ,अत्रैयी, स्वाहा, अरूंधति जैसी अनेक विदुषी स्त्रियों का उल्लेख उपनिषदों में मिलता है| आठवीं ,नौवीं शताब्दी में विज्जिका,अवंति सुंदरी, सविननिमर्दि (कन्नड़ भाषा )अतिमाब्बे चालुक्य वंशी और बाद की सदियों में, होती विद्यालंकार,(बंगाल ) हर कुंवर सेठानी की तरह असंख्य स्त्रियां, नारी शिक्षा को अपना ध्येय बनाकर क्रमशः ऋग्वेद संहिताओं का सृजन ,वैदिक शिक्षा (उपनयन संस्कार ) की परंपरा के चलते शास्त्रार्थ ,गुरुकुलों की मठाधीश ,संस्कृत काव्य सृजन, दर्शन शास्त्र, अस्त्र शस्त्र शिक्षा, क्रीड़ा, आखेट,चित्रांकन करना, चिकित्सा ,विधिक आदि अनेक भूमिकाओं में संलग्न रही | इनके साक्ष्य हमें शिलालेखों मे, पुरातत्वों पर उकेरी हुई मूर्ति के रूप में दृश्य है |
ये साक्ष्य इतिहास के पन्नों पर अंकित है |
अल्प मात्रा में उपलब्ध प्रमाणों के साथ और नष्ट कर दिए गए अवशेषों के आधार पर यह स्पष्ट हुआ है कि 12वीं शताब्दी तक स्त्री शिक्षा का स्वर्णिम युग था। बौद्ध परंपरा की बात करें तो बौद्ध भिक्षुणिओं के लिए भी शिक्षा व्यवस्था मठों में रहती थी |
प्राचीनतम शिक्षा अपनी एक पूर्णाहुत गाथा है, स्वमिटकर आदर्श की स्थापना के लिए प्रमाणों के अभाव में बहुत सी शिक्षाविद् विदुषियां किंवदंतियों में सिमट कर लुप्त हो गाथाओं में अमर हो गयी है और दैहिक शोषण ,वैचारिक, बौद्धिक प्रगति पर घना तमस छोड़ता गया|
बाह्य आक्रांताओं के भय से प्रारंभ होता है निषिद्ध युग!
516 शताब्दी का “दरिउस “का भारतवर्ष पर प्रथम आक्रमण । इन आतताइयों की श्रृंखला 1519 के बाबर की आक्रमण से मुगलों, फिरंगियों के अधीन होने तक जारी रहा। अस्मिता की रक्षा के लिए, विषम परिस्थितियों में स्त्री का देहरी पार होना निषिद्ध हो गया , पर्दा प्रथा भी इसी क्रम से उत्पन्न हुई| शनैः शनैः स्त्री शिक्षा शिखर से रसातल तक पहुंच चुकी थी। ऐसी विपरित एवं विषम स्थिति में स्त्री शिक्षा के पुनर्जागरण हेतु प्रथम सीढ़ी बना था, वर्ष 1831 जब आज के ही दिन याने 3 जनवरी को एक पुण्यात्मा के रूप में सावित्री बाई का जन्म हुआ था।
शिक्षण परंपरा में स्त्री आत्मसम्मान और अनगिनत सुधारों का सेतु बांधने का का श्रेय युग प्रवर्तक सावित्रीबाई फुले को जाता है। उनका हवन अमूल्य अविस्मरणीय है। आज 3 जनवरी को उनकी जन्म तिथि पर सावित्रीबाई फुले को पुनश्च: नमन्।
– वन्दना खेड़े “चारू”, खरगोन