सामाजिक समरसता के राम सेतु

 महात्मा जोतिबा फुले महात्मा ज्योतिबा फुले ने भारतीय समाज में प्रकारांतर से उत्पन्न की गईं विसंगतियों दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया। ईसाईयों ने ज्योतिबा फुले को धर्मांतरण के लिए उकसाया और अपने साँचे में ढालने का प्रयास किया, परंतु ईसाईयत उन्हें कभी प्रभावित न कर सकी, क्योंकि हिंदुत्व उनका मूलाधार था।
  पिछले कई दशकों से मिशनरियों, वामपंथियों, तथाकथित सेक्युलरों और अब जय भीम-जय मीम के कथित विद्वानों ने जोतिबा फुले को हिंदू धर्म विरोधी बताया है परंतु क्या यह सच है क्या? और यदि यह सच है तो महात्मा जोतिबा फुले ने हिंदू धर्म क्यों नहीं छोड़ा? क्यों उन्होंने ईसाई अथवा अन्य धर्म स्वीकार नहीं किया? उत्तर स्पष्ट है कि जोतिबा फुले महान हिन्दू धर्म सुधारक थे और प्रकारांतर से हिन्दू धर्म में आई विसंगतियों को दूर करना चाहते थे, इसलिए वे हिन्दू पुनरुद्धार के जाज्वल्यमान नक्षत्र के रुप में शिरोधार्य किए जाते हैं। आधुनिक भारत के महान चिंतक, लेखक, समाज सेवक, सुधारक एवं वंचितों के मसीहा महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म 11अप्रैल सन् 1827 पुणे में हुआ। कोल्हापुर के पास ही एक पहाड़ी पर देवता ज्योतिबा का मंदिर है, इन्हें जोतबा भी कहते हैं। यह हिन्दू धर्मावलंबियों का पवित्र तीर्थ है। वस्तुतः भगवान शिव के तीनों स्वरूपों को ज्योतिबा (जोतिबा) देवता के नाम से अभिव्यक्त किया गया है, इन्हें भैरव का पुनर्जन्म भी माना गया है। ये बहुत से मराठों के कुल देवता हैं। जिस दिन महात्मा फुले का जन्म हुआ उस दिन जोतबा देवता का उत्सव था। इसलिए उनका नाम जोतिबा (ज्योतिबा) रखा गया। उनके पिता का नाम गोविंद राव फुले, माता का नाम विमला बाई एवं धर्मपत्नी का नाम सावित्री बाई फुले था।
      ज्योतिबा के सारे कार्यों के पीछे एक आस्तिक्य बुद्धि थी। न उन्होंने हिन्दू धर्म त्याग की बात की और न धर्म परिवर्तन किया, न कराया। किसी भी धर्म को अपनाने की बात उन्होंने सोची ही नहीं थी। धर्म की नींव निकाल लेंगे तो जिस समाज के उत्थान के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वह समाज भहराकर गिर पड़ेगा इसे वे जानते थे। (भारतीय समाज क्रांति के जनक महात्मा जोतिबा फुले-डॉ. मु. ब. शहा, पृष्ठ क्रं. 102) इसलिए उन्होंने हिंदू धर्म का परित्याग नहीं किया और ना ही किसी और को करने की समझाईश दी।
   यह विडंबना है कि तथाकथित सेक्युलरों वामियों और मिशनरियों ने षड्यंत्र पूर्वक सदैव ज्योतिबा फुले को ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के विरोधक रुप में प्रचारित किया है, परंतु हम देख सकते हैं कि वे इनमें से किसी के अंध विरोधक नहीं थे। उनका मूल उद्देश्य था में आई विकृति को स्वच्छ करना था। जोतिबा फुले सामाजिक समरसता के पक्षधर थे, वे कहते थे कि ब्राह्मण हो या शूद्र सब एक जैसे हैं - “मांग आर्यामध्ये पाहूँ जाता खूण। एक आत्म जाण। दोघां मध्ये।। दोघे ही सरीखी सर्व खाती पिती। इच्छा ती भोगती सार खेच। सर्व ज्ञाना मध्ये आत्म ज्ञान श्रेष्ठ। कोणी नाही भ्रष्ट। जोनीम्हणे।। 

(महात्मा फुले, समग्र वांग्मय, पृष्ठ 457) अर्थात महार, मांग और आर्यो में कोई भेद नहीं। दोनों में एक ही आत्मा का निवास है।दोनों समान ढंग से खाते पीते हैं। उनकी इच्छाएं भी समान होती हैं। जोति यह कहता है कि सारे ज्ञान में आत्मज्ञान श्रेष्ठ हैं तथा कोई भी भी भ्रष्ट नहीं है, इसे जान लो। वस्तुतः जोतिबा ब्राह्मण जाति के विरोधी नहीं थे, जब उनसे राष्ट्र की एकता की बात उठी तो उन्होंने निःसंकोच यह कहा कि देश सुधार के लिए हम ब्राह्मणों को और मांगों को एक पंक्ति में बिठाएंगे।
सदाशिव बल्लाल गोवंडे नाम के जोतिबाराव फुले के एक ब्राह्मण साथी थे, दोनों की गहरी दोस्ती थी। अछूतों के लिए पहली पाठशाला सन् 1848 में जब पुणे की बुधवार पेठ में खुली तब पाठशाला खोलने के लिए जोतिबा के मित्र सखाराम यशवंत परांजपे और सदाशिवराव गोवंडे का योगदान उल्लेखनीय है। आठ- 9 माह चलने के बाद स्कूल बंद हो गया तब जूनागंज पेठ में सदाशिवराव गोवंडे जी की जगह पर ही स्कूल शुरु हुआ। यहां भी विष्णुपंत शत्तै नाम के एक ब्राह्मण ने शिक्षा देना आरंभ किया था।
देखा जाए तो ज्योतिबा के इस क्रांतिकारी कार्य में श्री बापूराव मांडे, पंडित मोरेश्वर शास्त्री, मोरो विट्ठल बालवेकर, सखाराम बलवंत परांजपे, बाबाजी, मानाजी डेनाले आदि ब्राह्मण समुदाय से ही आते हैं। अछूतोद्धार नारी-शिक्षा, विधवा विवाह और किसानों के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है। आधुनिक भारत की उन्नीसवीं शताब्दी में जोतिबा की धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले ने प्रथम भारतीय महिला शिक्षक के साथ प्रथम बालिका स्कूल की नींव रखी थी, तो वहीं ज्योतिबा ने विधवाओं के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।
बाल हत्या प्रतिबंधक गृह सन् 1863 में शुरू किया गया, यहां कोई भी विधवा आकर जचगी करा सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था ज्योतिबा ने इस बाल हत्या प्रतिबंधक गृह के बड़े-बड़े पोस्टर्स सर्वत्र लगवाए थे। उन पर लिखा था “विधवाओं! यहाँ अनाम रहकर निर्विघ्न जचगी कीजिए। अपना बच्चा साथ ले जाएं या यहीं रखें आपकी मर्जी पर निर्भर रहेगा। अन्यथा अनाथ आश्रम उन बच्चों की देखभाल करेगा ही।”
सत्यशोधक समाज भारतीय सामाजिक क्रांति के लिये प्रयास करने वाली अग्रणी संस्था बनी। महात्मा फुले ने लोकमान्य तिलक, आगरकर, न्या. रानाडे, दयानंद सरस्वती के साथ देश की राजनीति और समाज को नवीन दिशा दी। 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की. वह इस संस्था के पहले कार्यकारी व्यवस्थापक तथा कोषपाल भी थे। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य समाज में वंचितों और दलितों पर पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था। महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की। उन्होंने उच्च जाति की विधवाओं के लिए सन् 1854 में एक घर भी बनवाया था। अपने खुद के घर के दरवाजे सभी जाति और वर्गों के लोगों के लिए हमेशा खुले रखे।
ज्योतिबा फुले महान लेखक थे, उन्होंने ‘गुलामगिरी’, ‘तृतीय रत्न ‘,’ छत्रपति शिवाजी ‘,’ किसान का कोड़ा ‘सहित कई पुस्तकें लिखीं। उनकी पुस्तक गुलामगिरी तत्कालीन भेदभाव और ऊंच- नीच की परिस्थितियों का आईना दिखाते हुए उस पर तीखा प्रहार करती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गुलामगिरी पुस्तक को जय भीम, जय मीम, मिशनरियों, वामपंथियों और तथाकथित सेकुलरों ने हिंदू धर्म के विरुद्ध एक घातक उपकरण के रूप में प्रयोग किया है और कर रहे हैं, परंतु वे भूल जाते हैं कि इस पुस्तक का मूल उद्देश्य क्या था.
वस्तुत: इस पुस्तक का मूल उद्देश्य यही था कि सनातन की एक शाखा वैष्णव के पौराणिक संदर्भों को लेकर व्यंग्यात्मक टिप्पणियों के माध्यम से प्रहार कर, व्याप्त मायाजाल का उन्मूलन करना और कालांतर में आर्य – अनार्य को लेकर हिंदू समाज में उत्पन्न सामाजिक विसंगतियों के उन्मूलन के लिए विमर्श स्थापित करना, ताकि सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त हो सके। यदि ऐसा ना होता तो महात्मा ज्योतिबा फुले अपनी पुस्तक गुलामगिरी में हिंदू धर्म को छोड़ देने की बात करते, धर्मान्तरण के लिए कहते, और स्वयं भी धर्मांतरित हो जाते, परंतु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, न ही लिखा और न ही कभी कहा !!! यही सब तथ्य सबसे बड़े प्रमाण हैं कि महात्मा ज्योतिबा फुले हिंदू धर्म के विरोधी नहीं, वरन् महान् सुधारक और रक्षक थे।
जोतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई के बच्चे को गोद लेकर सामाजिक समरसता के उत्कृष्ट भाव साकार किया, जिसका नाम यशवंत राव रखा। यह बालक बड़ा होकर एक चिकित्सक बना और इसने भी अपने माता पिता के समाज सेवा के कार्यों को आगे बढ़ाया। मानवता की भलाई के लिए किये गए ज्योतिबा के इन निस्वार्थ कार्यों के कारण मई 1888 में उस समय के एक और महान समाज सुधारक “राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णाजी कृष्णाजी वान्देकर” ने उन्हें “महात्मा” की उपाधि प्रदान की ।
27 नवम्बर 1890 को उन्होंने अपने सभी प्रियजनों को बुलाया और कहा कि “अब मेरे जाने का समय आ गया है, मैंने जीवन में जिन-जिन कार्यों को हाथ में लिया है उसे पूरा किया है मेरी पत्नी सावित्री ने हरदम परछाईं की तरह मेरा साथ दिया है और मेरा पुत्र यशवंत अभी छोटा है और मैं इन दोनों को आपके हवाले करता हूँ।” इतना कहते ही उनकी आँखों से आँसू आ गये और उनकी पत्नी ने उन्हें सम्भाला। 28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दी और एक महान् विभूति ने इस दुनिया से अपनी अनंत यात्रा के लिए विदाई ले ली।
मध्य काल में संत कबीर की भक्ति आंदोलन में जो भूमिका थी, उसी प्रकार आधुनिक भारत के पुनर्जागरण में जोतिबा फुले की भूमिका दृष्टिगोचर होती है। जोतिबा फुले हिन्दू धर्म के रक्षणार्थ सदैव अडिग रहे, वे आधुनिक भारत के पुनर्जागरण के देदीप्यमान नक्षत्र एवं सामाजिक समरसता के राम सेतु थे और रहेंगे।

डॉ. आनंद सिंह राणा
(पांचजन्य से साभार)

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