
प्रशांत पोळ | VSK Bharat | November 1, 2025
‘इंडिया’ से ‘भारत’ के प्रवास में बदलाव की गति, पिछले दस – बारह वर्षों में तेज हुई है। वर्ष 2014 में, इस देश में एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन आया। 1985 के चुनाव के बाद पहली बार, किसी एक पार्टी को, अपने दम पर पूर्ण बहुमत मिला। पहली बार कांग्रेस की विचारधारा को पूर्णत: बाजू में रख कर, इस देश के मूलाधार से जुड़ी हुई पार्टी सत्ता में आई थी।
क्या इस सत्ता परिवर्तन से बदलाव हुआ? देश में चेतना का, ‘स्व’ का भाव जागृत हुआ, और भारतीयों में आत्मविश्वास निर्माण हुआ..?
यह कथन अर्ध सत्य है। पूरा सच नहीं है। भारतीयता की जड़ों से जुड़ी पार्टी सत्ता पर आने से बदलाव को गति मिली, यह सच है। 2014 के सत्ता परिवर्तन ने इस बदलाव में उत्प्रेरक (Catalyst) की भूमिका की। किंतु बदलाव की यह प्रक्रिया तो बहुत पहले से प्रारंभ हो गई थी।
इस पुस्तक में जिसका संदर्भ दिया है, उस The Guardian (UK) के 18 मई 2014 के संपादकीय के वाक्य हैं – ‘It should be obvious that these underlying changes in Indian Society have brought us Mr Modi, and not the other way round’. (यह स्पष्ट है कि भारतीय समाज में हुए यह मूलभूत परिवर्तन ही श्री मोदी को हमारे सामने लाए हैं, ना कि इसके उलट)।
अर्थात, हिन्दुत्व के जागरण के, ‘स्व’ के जागरण के जो प्रयास वर्षों से चल रहे थे, उन सब का परिणाम यह राजनीतिक परिवर्तन था।
वर्ष 2010-11 के बाद, देश में तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए – 2 सरकार के विरोध में असंतोष मुखर हो रहा था। महाराष्ट्र के गांधीवादी कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने यूपीए के भ्रष्टाचार के विरोध में आंदोलन का शंखनाद किया था। योग के माध्यम से देश को जगाने वाले स्वामी रामदेव बाबा, सरकार के विरोध में आंदोलन करने वाला एक बड़ा नाम था। श्री श्री रविशंकर समवेत अनेक संत – महंत भी यूपीए – 2 की हिन्दू विरोधी नीति के कारण, सरकार के विरोध में खड़े थे। इन सब का योगदान, 2014 के सत्ता परिवर्तन में निश्चित रूप से था।
किंतु राष्ट्रीय चेतना के इस जागरण के पीछे की मुख्य शक्ति थी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। 1925 में अत्यंत छोटे स्वरूप में प्रारंभ होने के बाद से, संघ ने अविरल, अविरत समाज को जगाने का, अपने देश की मुख्य धारा से जोड़ने का काम किया है।
संघ के बारे में अनेकों की अनेक धारणाएं हैं। संघ के बाहर के लोग कहते हैं, ‘संघ समझ में नहीं आता’। इसका कारण स्पष्ट है। संघ किसी संस्था की व्याख्या के मापदंड में नहीं बैठता। संघ किसी संस्था की चौखट में भी नहीं बैठता। संघ की सोच और कार्यपद्धति, मूलतः इन सबसे भिन्न है। अत्यंत व्यापक है। संघ समाज में एक संगठन खड़ा करना नहीं चाहता, वरन् संघ, पूरे समाज को ही संगठित करना चाहता है। यह सोच इतर संस्थाओं से अलग है, भिन्न है। अन्य संस्थाएं अपने किए कार्य का श्रेय (क्रेडिट) लेना चाहती हैं। इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाना चाहती हैं।
किंतु संघ की सोच इसके विपरीत है। संघ समाज में विलीन होकर काम करना चाहता है। अपने कार्य का श्रेय लेना, संघ को उचित नहीं लगता। संघ के प्रमुख, सरसंघचालक कहते हैं, “संघ को यह अहंकार नहीं, संघ को यह चाहिए भी नहीं कि कल क्रेडिट बुक में लिखा जाए कि यह संघ के कारण हुआ। संघ चाहता है, इस देश के समाज ने एक ऐसी छलांग लगाई, जिसके चलते भारत का तो कायापलट हुआ ही, संपूर्ण विश्व में एक सुख, शांतिपूर्ण नई दुनिया खड़ी हो गई। यह करने के लिए संघ का काम है।”
इसी विचारधारा से संघ आज तक चला है, और संघ की इस ‘राष्ट्र सर्वप्रथम’ सोच ने ही समय-समय पर देश की अनेक समस्याओं का समाधान निकाला है।
देश जब स्वतंत्र हुआ, तब संघ की आयु थी मात्र 22 वर्ष। संघ की ताकत भी बहुत कम थी। अकेले महाराष्ट्र में भी वह सारे जिलों में नहीं पहुंचा था। किंतु फिर भी, देश के विभाजन की मांग और आशंका देखते हुए, संघ ने उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में अपने प्रचारक और कार्यकर्ता भेज कर, वहां कार्य प्रारंभ किया था। वहां के हिन्दू-सिक्खों में आत्मविश्वास जगाया था।
विभाजन के समय संघ की ताकत इतनी कम थी कि वह विभाजन को रोकने या टालने की स्थिति में नहीं था। महाराष्ट्र (मराठवाड़ा छोड़कर) और विदर्भ के कुछ जिले, वर्तमान मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ जिले, पंजाब, बंगाल और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में ही संघ की उपस्थिति थी। विभाजन के समय पूरे देश में (तत्कालीन अखंड हिंदुस्तान में), संघ शाखाओं की संख्या लगभग 1,000 मात्र थी।
इसके बावजूद भी, विभाजन के समय जो दंगे हुए, उनमें से संघ स्वयंसेवकों ने अनेक हिन्दू-सिक्ख भाई-बहनों के प्राणों की रक्षा की। सत्तर से अस्सी हजार स्वयंसेवक, उन दिनों पूरे उत्तर भारत में सक्रिय थे।
विभाजन के समय अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति में संघ ने 400 से भी ज्यादा सहायता शिविर चलाए। दिल्ली में – किंग्सवे कैंप, करोल बाग, लाजपत नगर; पंजाब में अमृतसर, लाहौर, फाजिल्का, फिरोजपुर, पटियाला; हरियाणा में अंबाला, रोहतक; संयुक्त प्रांत (वर्तमान में उत्तर प्रदेश) में मेरठ, गाजियाबाद इत्यादि स्थानों पर संघ ने सहायता शिविर चलाए। 200 से ज्यादा स्थानों पर संघ ने चिकित्सा शिविर और रक्तदान शिविर लगाए। उन दिनों, संघ के स्वयंसेवकों द्वारा डेढ़ से दो लाख लोगों को, प्रतिदिन भोजन कराया जाता था।
आपाधापी के उन अशांत दिनों में, हिन्दू – सिक्खों की जान बचाते हुए अनेक संघ स्वयंसेवकों ने अपने प्राणों की आहुति दी है।
संघ की ताकत कम होने के कारण, उन दिनों के ये यह सारे प्रयास ‘संकट प्रबंधन’ (Crisis Management) ही थे। नीति बनाने की, या दिशा देने की भूमिका में संघ नहीं था।
किंतु संघ की ताकत निश्चित रूप से बढ़ रही थी। इसलिए महात्मा गांधी जी की हत्या के झूठे आरोपों में केंद्र सरकार ने, 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगाया। इसके विरोध में संघ ने सत्याग्रह किया। न्यायालय ने भी संघ को इन सभी आरोपों से पूर्णता दोष मुक्त किया। अतः 17 महीनों के बाद, सोमवार 11 जुलाई 1949 को, केंद्र सरकार ने संघ पर लगाया हुआ प्रतिबंध हटाया।
इस सारी प्रक्रिया के कारण, तेजी से बढ़ते संघ कार्य पर कुछ विराम सा अवश्य लगा, किंतु पुनः संघ कार्य उसी जिजीविषा से प्रारंभ हुआ।
1962 में जब चीन ने भारत पर युद्ध थोपा, तब देश में संघ की शाखाओं की संख्या लगभग 6,000 से 7,000 के बीच थी। संघ ने इस युद्ध में सभी प्रकार से, सेना की सहायता की। जख्मी जवानों की पूछताछ की। उनके परिवारों में जाकर ढाढस बंधाया। जख्मी जवानों के लिए अनेक रक्तदान शिविर लगाए… ऐसा बहुत कुछ!
यह सब देखते हुए, 1963 के गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) की परेड में संघ को ससम्मान बुलाया गया, जिसका वर्णन इस पुस्तक में इससे पहले आया है।
1965 में जब पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ा, तब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने भी इसी परंपरा का पालन किया। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी को चर्चा के लिए दिल्ली बुलाया। दोनों के बीच राष्ट्र की एकता, सैनिकों के मनोबल और नागरिकों के अनुशासन बनाए रखने पर विस्तार से चर्चा हुई।
प्रधानमंत्री शास्त्री जी ने अनुरोध किया कि, ‘संघ के स्वयंसेवक देशभर में एकता, शांति और सेवा के कार्यों में जुट जाएं’। श्री गुरुजी ने कहा, “हमारी प्रत्येक शाखा में, हर एक स्वयंसेवक, युद्ध काल में नागरिक सहायता, सैनिक परिवारों की देखरेख, रक्तदान और राहत कार्यों में लगेगा।”
इस कथन के अनुसार, पूरे देश में संघ के स्वयंसेवकों ने रेलवे स्टेशनों और अस्पतालों में सैनिकों की सहायता की। उनका उत्साहवर्धन किया। जख्मी सैनिकों के लिए अनेक रक्तदान शिविरों का आयोजन किया। शरणार्थियों और घायल सैनिकों के परिवारों की सेवा की। सीमांत राज्यों (पंजाब और राजस्थान) में नागरिक सुरक्षा के कार्यों में सक्रिय सहभागिता की।
1971 के युद्ध में भी संघ स्वयंसेवक इसी प्रकार से कार्य कर रहे थे। इस युद्ध में चुनौती बड़ी थी। पूर्व पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) से अनेक हिन्दू शरणार्थी, भारत में आश्रय के लिए आ रहे थे। सरकारी कैंप पर्याप्त नहीं थे। ऐसी स्थिति में संघ स्वयंसेवकों ने, सीमा क्षेत्रों में (असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, बिहार) बड़े पैमाने पर सेवा-सहायता शिविर लगाए।
इस युद्ध के दौरान, एक करोड़ से ज्यादा शरणार्थी भारत में आश्रय के लिए आए थे। भारत सरकार के साथ, संघ स्वयंसेवकों ने भोजन वितरण, चिकित्सा सहायता, कपड़े और आश्रय की व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाई। शरणार्थी शिविरों में अनुशासन और स्वच्छता बनाए रखने में भी संघ स्वयंसेवकों ने मदद की। अनेक महीनों तक, संघ स्वयंसेवक और संघ प्रेरित संस्थाएं, शरणार्थियों के बच्चों के लिए शिक्षा के केंद्र चला रहे थे। संघ ने इस युद्ध में हुतात्मा हुए सैनिकों के परिवारों की भी सहायता की।
उस समय, प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर ने लिखा, “आरएसएस कार्यकर्ताओं ने 1971 में, सीमा पर मानवता की सेवा में अत्यंत अनुशासित और महत्वपूर्ण योगदान दिया।”
(क्रमशः)
(आगामी प्रकाशित, ‘इंडिया’ से ‘भारत’ : एक प्रवास, पुस्तक से)