
मानवीय रिश्तों की उलझनों के मूल में “मैं ही सही हूं” के भाव की बहुत बड़ी भूमिका है। यह भाव कम ज्यादा अनुपात में प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद होता है। यह भाव हमारे अहं की सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति होती है। हमारा “सही” जब दूसरे के “सही” से विपरीत या भिन्न होता है, तब द्वेष, वैमनस्यता और संघर्ष के बीज बोये जाते हैं।
वस्तुतः हम भी ग़लत हो सकते हैं, हम से भी चूक हो सकती है, सामने वाला भी सही हो सकता है; यह समझ जितनी अधिक होगी उतना ही समन्वय सरल होता जाता है, सहवास सुखद होता जाता है।
भारत की जैन परम्परा में क्षमा याचना, इस दिशा में सबसे परिष्कृत प्रथा है। व्यक्ति से आशा की जाती है कि कम से कम एक दिन वह यह स्वीकार करे कि उससे भी त्रुटि हो सकती है, उसके व्यवहार से किसी को ठेस पहुंच सकती है और उसके आचार से किसी मन दुख सकता है। इसलिए कम से कम एक दिन समाज में सभी से क्षमा याचना की जाती है, जाने-अनजाने हुई त्रुटियों के लिए! यह क्षमा याचना एक तरह से स्वयं का शुद्धि करण है। क्षमा की याचना होती है। याचना दीन व्यक्ति का लक्षण है। और फिर जब यह याचना सार्वजनिक स्तर पर हो तब आपको अपने अहं को बाजू में रखना होता है। यह स्वीकार करना होता है कि मैं, अनजाने ही सही, ग़लत हो सकता हूं!
मुझे लगता है, यह प्रथा अपने आप में अनोखी तो है ही, मानव के व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से, उसके स्वस्थ मन और आध्यात्मिक उत्थान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। और इस क्षमा याचना के अवसर को भी पर्व बना देना, भारतीय संस्कृति में ही सम्भव है।
श्री श्रीरंग पेंढारकर